क्या चैनलों को यह पता नहीं था कि जैसे हर चमकती चीज सोना नहीं होती, आइपीएल भी शुरू से ही क्रिकेट से ज्यादा पैसे और ग्लैमर के कारण चमक रहा था? सच यह है कि मीडिया को यह सब मालूम था. लेकिन चैनल खुद भी इसी ‘चमक’ से अभिभूत थे. यहां तक कि अधिकांश चैनलों पर क्रिकेट के एक्सपर्ट वे पूर्व खिलाड़ी हैं जिन पर फिक्सिंग के आरोप लग चुके हैं. मजे की बात यह है कि वे अब खिलाड़ियों के लालच और उनमें नैतिकता की बढ़ती कमी पर ‘ज्ञान’ देते हैं. यही नहीं, आईपीएल में सट्टेबाजी की पोस्टमार्टम कर रहे चैनल या अखबार कल तक खुद मैच से पहले सट्टा बाजार में टीमों के भाव बताया करते थे.
इसे कहते हैं, गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज. इसका सबूत यह है कि आईपीएल में फिक्सिंग के आरोपों में एन श्रीनिवासन का सिर मांग रहे अखबार या चैनल उस आईपीएल पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं जिसे काले धन को सफेद करने के लिए ही खड़ा किया गया है. सट्टेबाजी और नतीजे में फिक्सिंग उसके मूल चरित्र में है. सवाल है कि अगर आईपीएल को खत्म कर दिया जाए तो क्रिकेट का क्या नुकसान होगा. लेकिन यह सवाल कोई चैनल या अखबार नहीं उठाएगा क्योंकि आईपीएल को टेलीविजन यानी मनोरंजन उद्योग के लिए ही बनाया गया है. उसमें बड़े टीवी समूहों (जिनमें न्यूज चैनल भी शामिल हैं) के हजारों करोड़ रुपये लगे हुए हैं और सभी को विज्ञापनों से भारी कमाई हो रही है.
जाहिर है कि चैनल बेवकूफ नहीं हैं कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारें. वे तो सिर्फ श्रीनिवासन का सिर दिखाकर दर्शकों को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आईपीएल में अब सब ठीक-ठाक है. वैसे ही जैसे ललित मोदी के बाद राजीव शुक्ल को आईपीएल कमिश्नर और श्रीनिवासन को बोर्ड अध्यक्ष बनाने के बाद हो गया था.