हाल ही में राजस्थान के बाड़मेर के कानासर गाँव की मूमल मेहर नाम की 15 वर्ष की किशोरी रेत के मैदान पर चौके-छक्के जड़ते दिख रही है। इस बच्ची की मदद के लिए कई हाथ आगे बढ़े हैं। आँकड़े कहते हैं कि भारत इस समय एक युवा देश है अर्थात् भारत की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम है। इस 50 प्रतिशत आबादी में क़रीब 48 प्रतिशत महिलाएँ हैं। प्राइमरी, मिडिल व हायर सेकेंडरी स्कूलों में पढऩे वाली लड़कियों के झुण्ड स्कूलों के बाहर अक्सर नज़र आते हैं; लेकिन क्या कारण है कि अधिकांश स्कूलों के खेल के मैदानों में यह दृश्य नदारद है।
गली, मोहल्लों, पार्कों में खेलने वालों की आवाज़ ही बता देती है कि यहाँ पर भी लडक़ों की ही क़ब्ज़ा है। खेल की सामग्री बेचने वाले दुकानों पर भी अक्सर यही नज़ारा देखने को मिल जाता है। ऐसे बहुत-से सवालों का समाधान हम क्या तलाशते हैं? तलाशते हैं, तो उनके साथ कितनी दूर तक चलते हैं? खेल का कोई लिंग नहीं होता; पर हक़ीक़त कुछ और ही है। खेल में लड़कियों, महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है, उन्हें पुरुष खिलाडिय़ों से कमतर आँकने की अवधारणा साफ़ दिखायी देती है। इस तस्वीर का एक अहम पहलू यह भी है कि इस अवधारणा को बदलने के प्रयास जारी हैं। पर इसके बावजूद इसका वाजूद साफ़ दिखायी देता है।
हाल ही में देश में 13 फरवरी को महिला प्रीमियर लीग (डब्लयूपीएल) की नीलामी का आयोजन किया गया। 406 महिलाओं में से 87 महिला खिलाडिय़ों के साथ अनुबंध किये गये। इन 87 में से 30 विदेशी और 57 भारतीय हैं। इस महिला प्रीमियर लीग ने 87 महिला खिलाडिय़ों को लखपति-करोड़पति बना दिया है। अब चर्चा इस ओर मुड़ गयी है कि इस लीग ने महिला खिलाडिय़ों के भीतर एक नयी ऊर्जा का संचार कर दिया है। अब देश की लड़कियाँ खेल को एक करियर के तौर पर देखने इससे इन्कार नहीं किया जा सकता; लेकिन इसके समानांतर यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या अन्य खेलों की भी तस्वीर बदलेगी? दूर-दराज़ इलाक़ों में लड़कियों के लिए खेल की ज़रूरी सुविधाओं से लैस ढाँचा विकसित किया जाएगा? क्या उसका विस्तार होगा? दिल्ली के एक पार्क में धूप सेंकती एक महिला से जब सवाल पूछा गया कि क्या उन्हें महिला प्रीमियर लीग के बारे में पता है? तो जबाव नहीं मिला। क्या उन्हें किसी महिला खिलाड़ी का नाम याद है? नहीं। बताया कि वह विराट कोहली को पहचानती है।
लड़कियों को खेल के मैदान में खेलने के लिए भेजने पर उन्होंने बताया कि उनकी नज़र में लड़कियों की सुरक्षा एक बहुत बड़ी समस्या है। लड़कियों को पढऩे भेजने के लिए तो जोखिम उठाते ही हैं, खेल के लिए नहीं उठा सकते। बहरहाल लड़कियों की सुरक्षा देश में एक बहुत बड़ा मुद्दा है। यहाँ पर प्रसंगवश पापुआ न्यू गिनी देश का ज़िक्र किया जा रहा है। इस देश की महिला फुटबॉल टीम को खेल की चुनौतियों के साथ ही सामाजिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। इस टीम के कोच स्पेंसर प्रायर ने मीडिया को बताया कि देश की राजधानी पोर्ट मोर्सबी महिलाओं के लिए ख़तरनाक है। यहाँ अर्केी महिला के साथ आपराधिक घटना आम बात है। ऐसे में सपोर्टिंग स्टाफ रात में किसी भी महिला को अकेले नहीं निकलने देता। लेकिन इन सबके बावजूद यहाँ की महिला फुटबॉल टीम मज़बूती से खेलती हैं और अपने दम पर महिला फीफा वल्र्ड कप के लिए क्वालीफाई की तैयार कर रही हैं।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि खेल एक सामाजिक मंच भी है। यह इंसान के अंदर खेल भावना, अनुशासन, दूसरों से मेल-मिलाप, आत्म विश्वास सरीखी कई भावनाओं को विकसित करने में मददगार साबित हो सकता है। आगे बढऩे के कई मौक़े मुहैया कराता है। और यहीं पर लड़कियाँ पीछे छूटती साफ़ नज़र आती हैं। बहुत साल पहले चक दे इंडिया फ़िल्म महिला हॉकी पर बनी थी। इस फ़िल्म के लेखक ने इस मुद्दे को उठाने की वजह यह बतायी कि राष्ट्रीय महिला हॉकी की उपलब्धि को मीडिया ने अख़बार के एक कोने में जगह दी।
इस फ़िल्म को सराहा गया और महिला खिलाड़ी खेल संघों में भी कमतर आँकी जाती हैं, इस नज़रिये को बेबाक रखा गया। महिला खिलाडिय़ों का संघर्ष पुरुषों के संघर्ष से मिलता भी है; लेकिन खेल के मैदान तक पहुँचने व उन पर लम्बे समय तक टिके रहने की जद्दोजहद पुरुषों से अलग भी है, जिन्हें एड्रस करने व उनके ठोस समाधान की दिशा में तेज़ी से आगे बढऩे की दरकार है। महिला प्रीमियर लीग में महिलाओं को अनुबंधित करने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भारतीय महिला क्रिकेट की पूर्व कप्तान मिताली राज ने कहा कि पहले महिला क्रिकेटर जल्द ही मैदान को इसलिए अलविदा कह जाती थीं; क्योंकि उन्हें लगता था कि उनके पास अवसरों की कमी है। मगर अब महिला प्रीमियर लीग उन्हें अपना करियर आगे ले जाने के लिए प्रेरित करेगी।’