क्या शिवराज, अटल जैसे होकर उनके जितना हासिल करने की राह पर हैं?

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नौ मार्च, 2013 का दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए वह सुखद क्षण लेकर आया जिसे दुहराने की उनके मन में बार-बार इच्छा होती होगी. ऐसा नहीं था कि उस दिन लालकृष्ण आडवाणी पहली बार मध्य प्रदेश आए थे. ऐसा भी नहीं था कि उन्होंने राज्य की शिवराज सरकार की प्रशंसा पहले नहीं की थी. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी से शिवराज की तुलना उन्होंने पहले कभी नहीं की थी. शहडोल की उस जनसभा में जहां आडवाणी जिले में 24 घंटे बिजली देने की योजना का शुभारंभ करने आए थे शिवराज की अटल से तुलना करते हुए आडवाणी ने कहा कि जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति और विकास के रोल मॉडल रहे हैं, उसी प्रकार शिवराज सिंह चौहान भी मध्य प्रदेश के रोल मॉडल बन चुके हैं.

हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी नरेंद्र मोदी के इतर कोई और नेता जो राष्ट्रीय पटल पर चर्चा के केंद्र में आया तो वे शिवराज सिंह चौहान ही थे. पूरी परिषद की चर्चा में भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने विकास, सुशासन और लोकप्रियता की जब भी चर्चा की मोदी के साथ ही चौहान का नाम भी उन्होंने प्रमुखता से लिया.

हाल ही में संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने पूरी बैठक को कवर करते हुए जो लेख प्रकाशित किया उसने भी मोदी और शिवराज के बीच एक बराबरी की रेखा खींचने की कोशिश की है. लेख जहां एक तरफ मोदी की तारीफ करता है वहीं दूसरी तरफ वह शिवराज के राजनीतिक कद को भी मोदी के बराबर लाकर खड़ा करता है. ऊपर दिए गए ये उदाहरण सबसे बड़ा प्रश्न यह खड़ा करते हैं कि आखिर मोदी-मोदी और नमो-नमो के इस माहौल में शिवराज सिंह चौहान में ऐसा क्या है कि आडवाणी अटल से उनकी तुलना कर रहे हैं, तो संघ का मुखपत्र उन्हें मोदी के बराबर लाकर खड़ा कर रहा है. पिछले कुछ समय में विभिन्न स्रोतों से ऐसी भी कई खबरें सामने आई हैं जो बता रही हैं कि यह शख्स 2014 में डार्क हॉर्स साबित हो सकता है. मध्य प्रदेश में पिछले आठ साल से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक बेहतर बैकअप मैन के तौर पर देखा जाता है. अर्थात संकट या विकल्पहीनता की स्थिति में यह व्यक्ति हर उस जिम्मेदारी को बेहतर ढंग से निभा सकता है जो उसे सौंपी जाए. ऐसा सोचने के पीछे मजबूत कारण है.

[box]आज भाजपा का कोई नेता है जिस पर संघ आंख बंद करके विश्वास करता है और जिसने संघ को पूरी तरह साधा हुआ है तो वह शिवराज सिंह चौहान ही हैं[/box]

जब 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने वाले थे तो उस समय शिवराज सिंह चौहान कहीं सीन में ही नहीं थे. उस वक्त प्रदेश भाजपा का चेहरा उमा भारती थीं. शिवराज की स्थिति उस समय यह थी कि उन्हें टिकट पाने तक के लिए संघर्ष करना पड़ा. टिकट मिला भी तो राघौगढ़ से दिग्विजय सिंह के खिलाफ. शिवराज चुनाव हार गए. लेकिन पार्टी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को धूल चटाने में सफल रही. उमा ने दिग्विजय सिंह को हराकर मध्य प्रदेश में भाजपा का लंबे समय से चल रहा राजनीतिक वनवास समाप्त किया. नौ महीने के अपने छोटे-से कार्यकाल के बाद उमा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. पार्टी ने उनके बाद बाबूलाल गौर को सीएम बनाया लेकिन पता नहीं सत्ता को क्या मंजूर था, वह  कुछ समय बाद ही गौर के तमाम जतन के बावजूद उनके हाथों से भी फिसल गई. पार्टी ने तब तमाम शंकाओं के साथ तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया.

पार्टी शिवराज को लेकर संशय में थी कि पता नहीं वे पार्टी को एकजुट रखने के साथ ही सही ढंग से सरकार चला भी पाएंगे या नहीं. शिवराज सिंह चौहान खुद इस बात को कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि उस समय शायद ही कोई था जिसे उनकी नेतृत्व क्षमता पर विश्वास था. लेकिन तमाम आशंकाओं को गलत साबित करते हुए शिवराज ने पार्टी और सरकार को बेहतर तरीके से संभाल लिया. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद बिना किसी अस्थिरता का शिकार हुए सरकार ने पांच साल पूरे किए. 2008 के विधानसभा चुनाव में पार्टी शिवराज के नेतृत्व में ही चुनाव मैदान में गई और भारी बहुमत के साथ जीत दर्ज की. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘2003 में किसे उम्मीद थी कि यह आदमी सीएम बन जाएगा. जिस तरह से हाथी के खाने और दिखाने वाले दांत अलग-अलग होते हैं, उसी तरह से यह आदमी भाजपा का दिखाने वाला नहीं बल्कि खाने वाला दांत है. जरूरत पड़ने पर यह आदमी कोई भी जिम्मेदारी बेहतर तरीके से संभाल सकता है. भले ही वो पीएम पद की जिम्मेदारी ही क्यों न हो. ’

शिवराज की एक बड़ी विशेषता उनकी वह उदार छवि है जो प्रायः भाजपा की पारंपरिक छवि के उलट जाती है. उदार राजनेता के रूप में पहचाने जाने वाले शिवराज ने मध्य प्रदेश के अपने आठ साल के कार्यकाल में राज्य के हर वर्ग को अपने से जोड़ने का पूरा प्रयास किया है. चाहे वह दलित, आदिवासी हों या फिर मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक. ऐसे दृश्य बहुत कम देखने को मिलते हैं जहां भाजपा का कोई नेता अल्पसंख्यकों के कार्यक्रमों में शामिल होता हो. अल्पसंख्यकों का सम्मेलन करने, हज यात्रा के लिए छोड़ने जाने, नमाज़ी टोपी पहनकर मुस्लिम समुदाय के लोगों से मिलने-जुलने, ईद पर उन्हें बधाई देने जैसी चीजें भाजपा के नेताओं में आम नहीं हैं. लेकिन शिवराज ये सब कुछ करते हैं. यही कारण है कि अल्पसंख्यकों के बीच शिवराज शायद अन्य भाजपा नेताओं से कहीं ज्यादा लोकप्रिय और स्वीकार्य हैं. या यह कहें कि राज्य के अल्पसंख्यक उनकी तरफ संदेह की नजरों से नहीं देखते हैं.

भोजशाला विवाद एक बड़ा उदाहरण है जो इस बात को स्थापित करता  दिखता है कि कैसे संघ की वैचारिक फैक्टरी में तैयार हुए स्वयंसेवक मुख्यमंत्री ने बिना किसी दबाव में आए हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के साथ न्याय करने की कोशिश की. धार स्थित भोजशाला में हर शुक्रवार को नमाज पढ़ी जाती है और मंगलवार को पूजा होती है. इस बार बसंत पंचमी शुक्रवार को ही पड़ गई. ऐसे में कई हिंदू धर्मगुरुओं ने वहां पूरे दिन पूजा की मांग की. दोनों पक्षों में तनाव बढ़ता गया. तमाम दबावों के बावजूद प्रदेश सरकार ने कड़ा फैसला लेते हुए उस दिन नमाज और पूजा दोनों कराने का निर्णय लिया. इसका हिंदू धर्मगुरुओं ने कड़ा विरोध किया और सरकार को कठोर परिणाम भुगतने की चेतावनी तक दी लेकिन सरकार नहीं झुकी. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा के वयोवृद्ध नेता कैलाश जोशी इस घटना से निपटने के शिवराज सिंह चौहान के तरीके को उनकी राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण बताते हुए कहते हैं, ‘अगर धार का मामला सही से नहीं सुलझा होता तो प्रदेश में भाजपा के राजनीतिक भविष्य पर एक गंभीर प्रश्न खड़ा हो जाता.’

जानकार बताते हैं कि दो बार ऐसे मौके पूर्व में भी आए हैं जो शिवराज की अल्पसंख्यकों के प्रति सोच को काफी हद तक स्पष्ट करते हैं. पहला मामला तब आया जब सरकार ने कन्यादान योजना शुरू की थी. योजना के शुरू होने के बाद कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसका यह कहकर विरोध किया कि यह हिंदू धर्म की विवाह पद्धति को सबके ऊपर थोपने का प्रयास है. सरकार ने तुरंत मुस्लिम समुदाय के लिए निकाह योजना शुरू कर दी. दूसरा मामला तब का है जब सरकार ने तीर्थ दर्शन योजना शुरू की. चयनित किए गए 17 तीर्थस्थलों में अजमेर शरीफ, वेलांगणी चर्च, सम्मेद-शिखर, और अमृतसर को भी शामिल किया गया. मध्य प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘देखिए, राज्य में अल्पसंख्यक मतदाताओं का कोई खास प्रभाव नहीं है. लेकिन फिर भी मैंने देखा है कि मुख्यमंत्री योजनाएं बनाते समय उनका भी खयाल रखते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो फिर आप बताइए तीर्थ दर्शन में अजमेर शरीफ शामिल नहीं करने से सरकार की सेहत पर क्या फर्क पड़ता.’

शिवराज के पक्ष में सबसे बड़ी बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बेहतर संबंध होना भी है. भाजपा के सूत्र बताते हैं कि आज भाजपा का कोई नेता है जिस पर संघ आंख बंद करके विश्वास करता है और जिसने संघ को पूरी तरह साधा हुआ है तो वह शिवराज सिंह चौहान ही हैं. संघ से जुड़े सूत्र इस बात की तस्दीक करते हुए बताते हैं कि जब गडकरी को अध्यक्ष पद पर दूसरा टर्म मिलने की संभावना पर ग्रहण लगता दिखा तो संघ ने बैकअप प्लान के तौर पर शिवराज को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की प्लानिंग कर ली थी. संघ ने यह तय किया था कि गडकरी को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव होने तक अध्यक्ष बना रहने दिया जाएगा. उसके बाद शिवराज को दिल्ली बतौर भाजपा अध्यक्ष भेजा जाएगा. अचानक ही गडकरी को लेकर पार्टी में विरोध चरम पर पहुंच गया और संघ ने  मन मसोसकर गडकरी को हटाए जाने का ग्रीन सिग्नल दे दिया. चूंकि शिवराज को दिल्ली लाना मध्य प्रदेश के चुनाव में नुकसानदेह साबित हो सकता था इसलिए संघ ने अध्यक्ष पद के लिए दूसरे नामों पर विचार करना शुरू किया.

इस पूरी कहानी का सार सिर्फ इतना बताना है कि संघ शिवराज से किस कदर प्रेम करता है. लेकिन क्या संघ का शिवराज के प्रति प्रेम ऐसे ही मुफ्त में उपजा है? वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘बिना कोई विवाद पैदा किए जिस सफाई से शिवराज ने संघ के एजेंडे को पूरे राज्य में लागू किया है वो अपने आप में ऐतिहासिक है. शायद ही भाजपा शासित कोई राज्य ऐसा रहा है जहां संघ को इस कदर स्पेस मिला हो.’
पिछले कुछ सालों के रिकॉर्ड को उठाकर देखा जा सकता है कि कैसे संघ की कोई योजना अगर सबसे पहले किसी राज्य में लागू हुई तो वह मध्य प्रदेश ही था. जयपुर में हाल ही में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आए संघ के एक नेता कहते हैं, ‘मोदी को भले ही हिंदुत्व का पोस्टर ब्वॉय समझा जाता हो लेकिन ये बता पाना मुश्किल है कि पिछले 10 साल में उन्होंने अपने राज्य में संघ की किस योजना को लागू करने का काम किया है. उन्होंने संघ की विचारधारा को गुजरात में मजबूत करने या उसे फैलाने के लिए क्या किया है?’

मध्य प्रदेश में शिवराज ने बिना किसी बड़े विवाद और शोर-शराबे के संघ के मन मुताबिक अनेक काम किए हैं. सूर्य नमस्कार को ही लें. इसको लेकर मुस्लिम समाज की तरफ से कड़ा विरोध दर्ज कराया गया था लेकिन सरकार नहीं मानी. इसे सभी सरकारी स्कूलों में अनिवार्य घोषित कर दिया गया. ऐसे ही शिवराज सरकार ने सालों से चले आ रहे उस बैन को हटाया जिसमें सरकारी कर्मचारियों के संघ की शाखाओं में जाने पर पाबंदी थी. राज्य सरकार ने एक समय पर गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का भी निर्णय लिया. जब इसका विरोध हुआ तो इसमें बच्चों को अन्य धर्म ग्रंथों को भी पढ़ाने का सरकार ने आश्वासन दिया, लेकिन वह गीता पढ़ाने के अपने निर्णय से पीछे नहीं हटी. इनके अतिरिक्त योजनाओं के नामकरण से लेकर बौद्ध विश्वविद्यालय स्थापित करने, गौ-अभयारण्य बनाने समेत तमाम ऐसे कदम राज्य सरकार ने उठाए जो संघ की विचारधारा के मुताबिक थे. लेकिन अगर यह पढ़कर आपको ऐसा लगता है कि शिवराज संघ की कठपुतली हैं और संघ जो चाहता है मध्य प्रदेश में करता है तो आप बिल्कुल गलत दिशा में जा रहे हैं. यहीं पर आपका सामना चतुर और कूटनीतिज्ञ राजनेता शिवराज से होता है.

मध्य प्रदेश सरकार के बेहद करीबी रहे एक व्यक्ति हमें बताते हैं कि कैसे शिवराज ने एक हाथ से संघ को साधने के साथ ही दूसरे हाथ से उस पर लगाम भी लगाई है. वे बताते हैं कि शिवराज इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना संघ को साधे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री क्या आप भाजपा में चपरासी तक नहीं बन सकते. लेकिन दूसरी तरफ उन्हें यह भी पता है कि लंबी रेस का घोड़ा बनने के लिए और देश के बदले राजनीतिक माहौल में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए सिर्फ संघ का समर्थन नाकाफी है. ऐसे में उन्होंने तीसरा रास्ता निकाला. समझौते के तहत शिवराज ने कुछ संस्थान संघ को सौंप दिए. अर्थात इन संस्थानों में क्या होगा, किन लोगों की नियुक्ति इसमें की जाएगी, पाठ्यक्रम आदि क्या होगा – यह तय करने का पूरा अधिकार एक प्रकार से संघ को दे दिया गया. समझौते के दूसरे हिस्से में शिवराज ने संघ से कहा कि इन चुनिंदा संस्थानों को छोड़कर संघ राज्य के अन्य  संस्थानों एवं प्रदेश के शासन और प्रशासन में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा. शिवराज के इस फॉर्मूले पर संघ ने अपनी सहमति दे दी. इस तरह की व्यवस्था न पहले किसी भाजपा शासित राज्य में रही है और न अभी ही किसी राज्य में है. यही कारण है कि संघ मध्य प्रदेश में सबसे अधिक दिखता तो है लेकिन कभी सरकार या मुख्यमंत्री के रास्ते में आड़ा-तिरछा आता नहीं दिखता.

[box]विधानसभा से लेकर सड़क तक अगर कांग्रेस के नेता शिवराज सरकार को घेरते भी हैं तो उनके निशाने पर मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उनकी सरकार या मंत्री होते हैं[/box]

कहा जाता है कि राजनीतिक क्षेत्र में सफलता काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप अपने विरोधियों को भी साधने, उन्हें साथ लेकर चलने की कितनी क्षमता रखते हैं या फिर उन्हें ऐसा भ्रम दिला पाने में कितने सफल होते हैं. शिवराज ने इस मामले में भी महारत हासिल कर ली है.

अपने आठ साल के कार्यकाल में शिवराज ने राज्य के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को साधने और उनके बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में सफलता पाई है. आज सीधे तौर पर भाजपा में उनका कोई दुश्मन नहीं है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उमा भारती हैं. वे उमा भारती जो चौहान को लंबे समय तक ‘बच्चा चोर’ कहा करती थीं. उन्हें लगता था कि भाजपा को सत्ता तो उन्होंने दिलाई लेकिन शिवराज ने छल-कपट से उसे उनसे छीन लिया. स्थिति यह थी कि उमा शिवराज को फूटी आंख तक नहीं देखना चाहती थीं. लेकिन इन आठ साल में शिवराज ने उमा भारती के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की. वे उमा से  लगातार अपने संबंध सुधारने की कोशिश करते रहे. 2012 में जब उमा ने उत्तर प्रदेश के चरखारी से विधानसभा चुनाव लड़ा तो वे उनके लिए वहां चुनाव प्रचार करने भी गए. इसके अतिरिक्त जब भी कोई उनसे उमा के साथ मनमुटाव की बात करता वे कहते, ‘भाई और बहन में क्या कभी मनमुटाव हो सकता है? उमा मेरी बहन हैं. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं.’

उमा का मामला महत्वपूर्ण इसलिए है कि अगर सबसे ज्यादा तनाव और संघर्ष शिवराज का किसी से रहा है तो वे उमा भारती ही थीं. वे जानते थे कि उन्हें चुनौती देने और उखाड़ फेंकने की क्षमता मध्य प्रदेश में अगर किसी के पास है तो उमा में ही है. यही कारण है कि शिवराज ने उमा को साधने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी.

हाल ही में उमा भारती के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने को कुछ लोगों शिवराज के लिए एक बड़ा सेटबैक बताया. अभी इस दिशा में चर्चा चल ही रही थी कि उमा ने सभी को चौंकाते हुए एकाएक कुछ ऐसा ऐतिहासिक किया जिसने इस पूरी चर्चा की हवा ही निकाल दी. वे उमा जो पिछले आठ साल से कभी भाजपा कार्यालय नहीं गई थीं उपाध्यक्ष बनने के बाद प्रदेश भाजपा के बुलावे पर भोपाल स्थित भाजपा कार्यालय पहुंच गईं. वहां भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की टीम में शामिल किए गए मध्य प्रदेश के सभी नेताओं का स्वागत किया जाना था. उमा के कार्यालय पहुंचने की घटना से लोग हैरान थे कि उन्होंने वहां शिवराज सरकार की तारीफ करके सभी को अचरज में डाल दिया. 2013 में शिवराज के नेतृत्व में फिर से भाजपा के सत्ता में आने की बात करते हुए उमा ने न सिर्फ शिवराज की खुल कर तारीफ की बल्कि मध्य प्रदेश को गुजरात से बेहतर भी बता डाला.

बीते कुछ सालों में शिवराज ने राज्य के अन्य कई नेताओं को साधने की आक्रामक कोशिशें की हैं. इनमें से कई उमा भारती के वफादार थे, कुछ वरिष्ठ थे तो कई ऐसे थे जो इस बात से परेशान थे कि यह सीएम कैसे बन गया हम कहां किसी चीज में इससे कम थे. आखिरी श्रेणी में काफी समय तक प्रदेश के कद्दावर मंत्री कैलाश विजयवर्गीय भी थे. आज वे यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि शिवराज प्रधानमंत्री पद के लिए बिल्कुल योग्य उम्मीदवार हैं. शिवराज के सबको साथ लेकर चलने के गुण का जिक्र करते हुए कैलाश जोशी कहते हैं, ‘शिवराज सभी का सम्मान करता है. मेरे जैसे ही राज्य में और भी कई वरिष्ठ नेता हैं. उसने कभी किसी को सम्मान देने में कोई कमी नहीं रखी. ऐसे अब बहुत कम नेता बचे हैं जो लोकप्रिय और विनम्र एक साथ बने रहें.’

जानकारों का मानना है कि पिछले आठ साल में खुद को बेहतर तरीके से राज्य में स्थापित करने के साथ ही शिवराज ने जनता के बीच अपनी एक लोकप्रिय छवि भी गढ़ी है. शिवराज की लोकप्रियता को भाजपा के साथ ही राज्य में विपक्षी दल कांग्रेस के नेता भी स्वीकार करते दिखते हैं. मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की बहन वीणा सिंह, जो अभी हाल ही में वापस कांग्रेस में शामिल हुई हैं, का हाल ही में यह बयान आया कि शिवराज पूरे राज्य में लोकप्रिय भी हैं और गांवों तक सरकार की विकास योजनाएं भी पहुंची हैं, ऐसे में भाजपा को हराना बहुत मुश्किल होने वाला है. इस संबंध में जब तहलका ने प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता से बात की तो वे कुछ चिढ़ते हुए कहते हैं, ‘ऐसा आदमी क्यों नहीं लोकप्रिय होगा जो अपने भाषण में मामा से लेकर मुर्गा-मुर्गी तक की बात करता हो. भले ही करता कुछ न हो लेकिन बातें तो मीठी करता ही है.’ राज्य में शिवराज पिछले कुछ समय में कितने ताकतवर होकर उभरे हैं इसे प्रमुख रूप से तीन घटनाओं से समझा जा सकता है.

पहला मामला उमा भारती से जुड़ा है. जब पार्टी में उमा की वापसी के समय शिवराज ने हाईकमान के सामने यह शर्त रखी कि वे मध्य प्रदेश की राजनीति और यहां के शासन-प्रशासन में किसी तरह का हस्तेक्षप नहीं करेंगी तो पार्टी ने शिवराज की यह शर्त स्वीकार कर ली. उमा को पार्टी में आए दो साल से ऊपर हो गए, वे भोपाल नियमित आती भी हैं लेकिन दो वर्षों में एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब उन्हें किसी ने कोई राजनीतिक सभा संबोधित करते, राज्य की राजनीति और शासन-प्रशासन में हस्तक्षेप या कोई नकारात्मक टिप्पणी करते सुना हो. उल्टे आज वे शिवराज की तारीफ करते दिखाई दे रही हैं.

दूसरा बड़ा मामला पूर्व प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा से जुड़ा है. उनके पहले कार्यकाल की समाप्ति के बाद सभी को लग रहा था कि झा फिर से प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाएंगे. यहां तक कि झा भी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे. लेकिन रातों रात संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहे प्रभात जा का पत्ता कट गया और मुख्यमंत्री ने अपने विश्वासपात्र और मित्र नरेंद्र तोमर को प्रदेश अध्यक्ष बनवा दिया. झा ने इस घटना के बाद कहा, ‘मुझे हटाने का फैसला पोखरण विस्फोट की तरह गुप्त रखा गया.’ झा की इस बात से स्पष्ट होता है कि वे शिवराज से कितने नाराज रहे होंगे. लेकिन कुछ दिनों की नाराजगी के बाद कोई और ठौर न मिलता देख उन्होंने भी शिवराज की प्रशंसा करने में ही अपनी राजनीतिक भलाई समझी.

तीसरा मामला भोजशाला से जुड़ा है. धार्मिक रूप से अतिसंवेदनशील इस मामले में शिवराज ने पूरी तरह अपनी मर्जी चलाई. विवाद सुलझाने के लिए प्रदेश के तमाम नेताओं और मंत्रियों को किनारे करते हुए शिवराज ने प्रशासन को मामला सुलझाने की जिम्मेवारी सौंप दी. यहां तक कि पुलिस की कार्रवाई में तमाम हिंदूवादी नेता पीटे गए लेकिन उसके बाद भी शिवराज प्रशासन की तारीफ करते नजर आए. गिरिजांशकर कहते हैं, ‘यह मामला अपने आप में बेहद अहम है. आप सोचिए हिंदू-मुस्लिमों के बीच के संघर्ष में पुलिस के हाथों हिंदू नेता पीटे गए और शिवराज को किसी ने कुछ कहा नहीं. ये अपने आप में शिवराज की मजबूत स्थिति की ओर इशारा करता है.’

एक तरफ शिवराज ने राज्य में अपने आप को धीरे-धीरे सबसे ताकतवर और लोकप्रिय बनाया तो दूसरी तरफ दिल्ली दरबार के लोगों की आंखों का भी वे तारा बने हुए हैं. नियमित माथा टेक कर दिल्ली के भाजपा नेताओं को खुश रखने का जितना आक्रामक प्रयास शिवराज ने किया है वैसा शायद ही आज तक भाजपा के किसी और नेता या मुख्यमंत्री ने किया होगा. यही कारण है कि शिवराज के दिल्ली दरबार के सभी लोगों से बेहद मधुर संबंध है. वहां भी कोई इनका विरोधी नहीं है. सबसे पहले आडवाणी को लें. पिछले दो-चार साल का अगर हिसाब लगाया जाए तो शायद मध्य प्रदेश ही वह राज्य है जहां भाजपा के ‘लौह पुरुष’ सर्वाधिक बार गए होंगे. चाहे प्रदेश में कोई सरकारी कार्यक्रम हो या आडवाणी का खुद का कोई निजी कार्यक्रम. हर दो-चार महीने में आडवाणी प्रदेश का एक चक्कर लगा ही आते हैं. आवभगत की स्थिति यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सहित पूरी सरकार आडवाणी के लिए एक पांव पर खड़ी रहती है. कांग्रेस के एक नेता चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘आडवाणी जी प्रधानमंत्री तो नहीं बन पाए. लेकिन एमपी आकर उन्हें सुपर प्रधानमंत्री टाइप फीलिंग होती है.’

सुषमा स्वराज की बात करें तो जब उनके सामने इस बात का संकट खड़ा हुआ कि कहां से चुनाव लड़ें तो उनकी नजर मध्य प्रदेश पर पड़ी. एमपी में लड़ तो वे कहीं से भी सकती थीं लेकिन प्रश्न जीतने का था. शिवराज ने अपनी लोकसभा सीट विदिशा सुषमा के हवाले कर दी. सीट देने के साथ जीत की बधाई भी दे दी. आज शायद ही कोई ऐसा मंच है जहां उन्हें शिवराज की प्रशंसा करने का मौका मिले और वे ना करें. इन उदाहरणों से अगर आपको लगता है कि दिल्ली को साधने के शिवराज के प्रयास चरम पर हैं तो रुकिए. आडवाणी और सुषमा के बारे में कहा जा सकता है कि उनका एक कद है, बड़े नेता है इसलिए ऐसा किया होगा. सबसे मजेदार मामला तो भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी से जुड़ा हुआ है. हुआ यूं कि गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद से ही विरोधी उन्हें घेरने के लिए कहते कि जो आदमी आज तक पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा उसको अध्यक्ष बना दिया. तंज कसने वालों में कांग्रेस वाले तो थे ही कुछ भाजपा वाले भी शामिल थे जो इस बात से नाराज थे कि पता नहीं संघ ने किसको उठाकर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया है. न कोई नाम जानता है न चेहरा पहचानता है.

खैर, गडकरी ने इस बात को दिल पर ले लिया. दूसरी ओर शायद उनके मन में भी पीएम बनने के सपने उमड़ने-घुमड़ने लगे थे. लेकिन फिर वही यक्ष प्रश्न था, कहां से लड़ेंगे तो जीतेंगे. अब अध्यक्ष महोदय के लिए कोई अपनी सीट 2014 में खाली करने वाला दिख नहीं रहा था. दूसरी तरफ नागपुर की सीट संघ मुख्यालय के बावजूद जीतना मुश्किल था. सूत्र बताते हैं कि शिवराज ने गडकरी का मन भांपते हुए उनके कुछ कहने से पहले ही ऑफर दे दिया, ‘मध्य प्रदेश से लड़िए. जीत की गांरटी मैं लूंगा.’ तय हो गया गडकरी को इंदौर से 2014 लोकसभा का चुनाव लड़वाया जाएगा. गडकरी के बाद राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने. नए अध्यक्ष से बेहतर संबंध बनाने का प्रयास शिवराज ने पहले दिन से ही शुरू कर दिया. जिस दिन राजनाथ सिंह की राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर ताजपोशी हुई, उस कार्यक्रम में शिवराज ही एकमात्र भाजपा मुख्यमंत्री थे जो शामिल हुए थे.

शिवराज की सबको साधने की कला का ही परिणाम है कि आज राष्ट्रीय स्तर पर हर नेता उनकी तारीफ करता हुआ दिखाई देता है. एक तरफ सुषमा गुजरात से मध्य प्रदेश की तुलना करते हुए कहती हैं कि गुजरात सुशासन का मॉडल हो सकता है लेकिन एमपी संवेदनशीलता का मॉडल है तो राजनाथ शिवराज को एक काबिल और ईमानदार मुख्यमंत्री ठहराते हैं. खैर, यह तो भाजपा के नेताओं को साधने की बात थी. शिवराज ने तो राज्य में प्रदेश कांग्रेस और केंद्र की यूपीए सरकार को भी साधने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है. उसके परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं. पिछले साल गुजरात, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश सरकारों ने प्रधानमंत्री कार्यालय से अपने-अपने राज्यों के प्रमुख सचिवों को सेवा विस्तार देने संबंधी अनुरोध किया. गुजरात और तमिलनाडु का अनुरोध नामंजूर कर दिया गया. मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव को सेवा विस्तार मिल गया. जिस तरह से कांग्रेस के नेता भाजपा शासित अन्य राज्यों और नेताओं पर हमलावर रहते हैं, उस अनुपात में शायद ही कोई राष्ट्रीय नेता शिवराज शासित मध्य प्रदेश सरकार की आलोचना करता हुआ आपको दिखाई देगा. केंद्र सरकार के कई मंत्री प्रदेश सरकार की समय-समय पर प्रशंसा करते देखे जा सकते हैं.

राज्य की स्थिति यह है कि प्रदेश कांग्रेस के गिने-चुने नेताओं को छोड़कर बाकी नेता शिवराज को कोई खास घेरते हुए दिखाई नहीं देते हैं. कांतिलाल भूरिया के पहले सुरेश पचौरी जब प्रदेश अध्यक्ष थे तो  कहा जाता था कि शिवराज ने पचौरी को ‘पटा’ लिया है. अनेक राज्यों में जहां स्थिति यह रहती है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे को फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते वहीं मध्य प्रदेश में स्थिति इसके बिल्कुल उलट है. तीन साल पहले जब पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह का देहांत हुआ था तो शिवराज और पचौरी भी वहां पहुंचे थे. वापसी में शिवराज ने पचौरी से कहा कि कहां आप सड़क के रास्ते से होते हुए भोपाल जाएंगे. मेरे हेलिकॉप्टर में साथ चलिए. तब पचौरी को शिवराज के साथ हंसते-बोलते उड़नखटोले में बैठकर जाते देखकर प्रदेश कांग्रेस के वहां मौजूद कई नेताओं के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा था. जब 2010 में मध्य प्रदेश कांग्रेस की वरिष्ठ नेता और नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी की मृत्यु के बाद भोपाल स्थित कांग्रेस भवन में प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया था तो अचानक शिवराज सिंह चौहान वहां पहुंच गए. भाजपा के किसी नेता के कांग्रेस मुख्यालय आने की यह पहली घटना थी और इसलिए भी कि चौहान बिना बुलाए ही वहां पहुंच गए थे. और तो और, तब तक कांग्रेस का भी कोई वरिष्ठ नेता वहां नहीं पहुंचा था.

पिछले साल टाइम पत्रिका ने अपनी कवर स्टोरी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर कहा था. इसके बाद भाजपा की पूरी लीडरशीप मनमोहन पर हमलावर हो गई थी. प्रधानमंत्री पर हमलावर भाजपा और उनका बचाव करने में जुटे कांग्रेसी उस समय चकित रह गए जब भाजपा का ही नेता मनमोहन के बचाव में आ गया. शिवराज सिंह चौहान ने मनमोहन सिंह का बचाव करते हुए कहा, ‘हम अचीवर हैं या अंडरअचीवर इसके लिए हमें किसी विदेशी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है. मनमोहन सिंह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं, इसलिए सभी को उनका सम्मान करना चाहिए.’ समय-समय पर जहां भाजपा के नेता गांधी-नेहरू परिवार पर लगातार हमले करते रहते हैं वहीं शिवराज ने इससे परहेज किया है. आज तक सोनिया गांधी या राहुल गांधी के खिलाफ उन्होंने कभी कोई अप्रिय टिप्पणी नहीं की है. प्रदेश कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं का काम शिवराज सरकार में जितनी तेजी से होता है उतनी तेजी से तो कांग्रेस के जमाने में भी नहीं होता था. इस आदमी ने कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को अच्छी तरह से पटा लिया है. वो इनके काम करता है, बदले में ये लोग चुप रहते हैं.’

[box]भाजपा के पास दिल्ली में जो नेता हैं उनमें चुनाव जीतने और जिताने की क्षमता रखने वालों का अभाव है. ऐसी स्थिति में शिवराज वहां मजबूती से उभरेंगे[/box]

विधानसभा से लेकर सड़क तक अगर कांग्रेस के नेता शिवराज सरकार को घेरते भी हैं तो उनके निशाने पर मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उनकी सरकार या उसके मंत्री होते हैं. सदन के अंदर कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता कई बार इस बात को दोहराते हुए पाए गए हैं कि शिवराज तो ईमानदार हैं लेकिन उनकी सरकार भ्रष्ट है. 2011 में जब कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था तो उस समय नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने विधानसभा में सरकार को घेरते हुए जो भाषण दिया उसकी शुरुआत ही उन्होंने शिवराज की अच्छाइयां गिनाते हुए की. उनके शुरुआती भाषण को सुनकर ऐसा लगा मानो एक दोस्त दूसरे दोस्त को संबोधित कर रहा हो. इस तरह की स्थिति शायद ही आपको कहीं दिखाई दे जब विपक्ष सरकार पर हमला करते समय यह ध्यान भी रखता हो कि कहीं सीएम को चोट न लग जाए.

भले ही मोदी ने बहुत तेजी से कॉरपोरेट जगत को अपना मुरीद बना लिया है लेकिन इस मामले में शिवराज ने भी काफी प्रयास किया है. राज्य में हर साल होने वाली निवेश बैठकों से राज्य में कितना निवेश, विकास और रोजगार सृजन होता है यह अध्ययन का मामला है लेकिन इनसे शिवराज ने अपनी छवि उद्योग जगत में चमकाने की कोशिश जरूर की है. यही कारण है कि जब प्रदेश भाजपा के नेताओं से इस संबंध में बात होती है तो वे अनिल अंबानी की उस बात का जिक्र करने के बाद अपनी बात शुरू करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था, ‘मुझे शिवराज सिंह चौहान में अपने पिता जैसी दूरदृष्टि दिखाई देती है.’ शिवराज के इन्हीं व्यक्तिगत, राजनीतिक और कूटनीतिक गुणों के कारण उस संभावना और चर्चा का जन्म होता है कि वे 2014 में भाजपा के सत्ता में आने पर उसके नेतृत्व वाली सरकार में प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से गठबंधन की राजनीति का आज दौर है उसमें शिवराज सबसे फिट नजर आते हैं. वे कुछ उसी तरह के सेक्युलर और लिबरल हैं जिस तरह संघ के स्वयंसेवक होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी हुआ करते थे. जिस तरह की समस्या मोदी को प्रोजेक्ट करने में आ रही है या आ सकती है, वह शिवराज के साथ नहीं है. वे सभी को स्वीकार्य होंगे. और दूसरी तरफ आडवाणी जिस एनडीए के विस्तार की बात कर रहे हैं वह शिवराज जैसे व्यक्ति के टॉप पर होने के कारण संभव हो सकता है. रशीद कहते हैं, ‘ देखिए, इसे दो तरह से देखे जाने की जरूरत है. मान लीजिए अगर पार्टी मोदी को आगे लाती है तो ये संभव है कि वो उसकी कुछ सीटें बढ़वा दें. लेकिन वो बढ़ी हुई सीटें इतनी नहीं होंगी कि उनके दम पर 272 के पार पहुंचा जा सकता हो. वहीं दूसरी तरफ अगर शिवराज सामने आते हैं तो ये बिल्कुल संभव है कि पार्टी की अपनी सीटें ना बढ़ें लेकिन शिवराज के नेतृत्व के कारण उसे 272 के पार पहुंचाने के लिए अनेक राजनीतिक दल अपना हाथ भाजपा की ओर बढ़ाने के लिए जरूर तैयार दिखाई देंगे.’

जानकार मानते हैं कि शिवराज नवीन, नीतीश, जयललिता, ममता आदि समेत सभी गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी नेताओं को स्वीकार्य होंगे. मोदी की तरह किसी को शिवराज से आपत्ति नहीं होगी. वे किसी के लिए अछूत नहीं हैं. कैलाश जोशी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पार्टी ऐसे ही व्यक्ति को बतौर पीएम आगे बढ़ाएगी जिस पर घटक दलों की भी सहमति हो. शिवराज के पक्ष में दूसरी बात यह जा सकती है कि मध्य प्रदेश भाजपा के उन गिने-चुने राज्यों में शुमार हो गया है जहां सरकार बिना किसी अस्थिरता के चल रही है. राज्य में ऐसा नहीं कि विकास का कोई आंदोलन खड़ा हो गया हो. अब भी यहां पिछड़ापन है, भुखमरी है, कुपोषण है, महिलाओं के प्रति हिंसा की घटनाएं आए दिन अखबारों में आती रहती हैं, भ्रष्टाचार के कई गंभीर मामले पिछले कुछ समय में सामने आए हैं लेकिन इसके बाद भी शिवराज को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने पूर्व की कांग्रेस सरकार से कई गुना बेहतर काम किया है. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘चाहे रोड, बिजली, पानी का मामला हो या कृषि का, शिवराज के शासन में हर क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार हुआ है. यही कारण है कि आज कांग्रेस का प्रधानमंत्री भी एमपी को बीमारू राज्य नहीं मानता.’ हाल ही में राष्ट्रपति की तरफ से मध्य प्रदेश को कृषि क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए कृषि कर्मण अवॉर्ड दिया गया. राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि एमपी में सब कुछ अच्छा हो गया है, लेकिन हां आपको शिवराज सिंह की इस बात के लिए प्रशंसा जरूर करनी होगी कि उन्होंने एक शुरुआत की है, जो धीरे-धीरे रंग ला रही है.’

राज्य में चलाई जा रही दर्जनों योजनाओं को दूसरे राज्यों ने कॉपी किया है. ऐसे में भाजपा के लिए मध्य प्रदेश भी एक मॉडल के रूप में उभर रहा है. एक ऐसा मॉडल जो गांव और गरीबों से मिलकर बना है. इस तरह से भाजपा के पास गुजरात के बाद दूसरा मॉडल मध्य प्रदेश का हो सकता है. शिवराज को लेकर संघ का रुख भी उनका सबसे मजबूत पक्ष है. जानकार कहते हैं कि शिवराज के साथ संघ का समर्थन इस कारण तो रहेगा ही कि वे उसके एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाते हैं, उसे शिवराज इसलिए भी प्रिय हैं क्योंकि संघ को पता है यह आदमी बहुत आगे बढ़ जाने पर भी कभी अकड़ नहीं दिखाएगा. उनकी हमेशा सुनता रहेगा. संघ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि संघ शिवराज सिंह चौहान को दूसरे वाजपेयी के रूप में तैयार करना चाहता है. इससे संघ अपने दो हित साधने की सोच रहा है. पहला- शिवराज के रूप में उसे मोदी की एक काट मिल जाएगी. जिनके बढ़ते कद से संघ खुद परेशान है. दूसरा शिवराज संघ का स्वयंसेवक और उसका आज्ञाकारी होने के साथ ही चुनावी राजनीति में घटक दलों को भी स्वीकार्य रहेंगे जिससे सत्ता में आने की संभावना बनी रहेगी.

इन्हीं वजहों से भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं को भी शिवराज स्वीकार्य हो सकते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं,  ‘मोदी जी का व्यक्तित्व और काम करने का तरीका ऐसा है जिससे सभी भयभीत रहते हैं. सबको लगता है कि अगर ये आदमी टॉप पर आया तो किसी की नहीं सुनेगा. अगर वो पीएम बने तो सब कुछ वहीं रहेंगे. ऐसे में बाकी नेताओं का हाल गुजरात के मंत्रियों और वहां के अन्य नेताओं जैसा ही हो जाएगा. लेकिन शिवराज जी के साथ ऐसा नहीं है.’ शिवराज के पीएम रेस में सफल होने की एक और परिस्थिति का उदाहरण देते हुए रशीद कहते हैं, ‘ये बिलकुल संभव और स्वाभाविक है कि भाजपा के दिल्ली वाले नेता शुरुआत में तो खुद को पीएम बनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दें, लेकिन अगर वो अपने मंसूबों में सफल नहीं हो पाते हैं तो उनके बीच सोनिया गांधी बनने की होड़ लग जाएगी. सब त्याग की मूर्ति बन किंगमेकर बनना चाहेंगे. और ऐसी स्थिति में शिवराज उनकी पहली पसंद होंगे.’

शिवराज के डार्क हॉर्स साबित होने संबंधी प्रश्न के जवाब में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ बाबूलाल गौर कहते है, ‘सबसे पहला अधिकार पीएम पद पर आडवाणी जी का है. वो बाकी लोगों से हर मामले में बेहतर हैं. राज्य में हमारी सरकार बहुत अच्छी चल रही है. अगली बार भी हम शिवराज जी के नेतृत्व में विधानसभा जीतेंगे. उसके बाद ही बाकी चीजें देखी जाएंगी.’ जानकार भी मानते हैं कि शिवराज सिंह के पीएम पद का दावेदार होने या न होने का मामला आगामी प्रदेश विधानसभा परिणामों पर काफी हद तक निर्भर करेगा. दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक मनीष दीक्षित कहते हैं, ‘अगर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह अगली बार फिर से जीत कर आ जाते हैं तो ऐसी स्थिति में मोदी की बराबरी में खड़े हो जाएंगे. फिर इनके पीएम पद का दावेदार बनने से इनकार नहीं किया जा सकता.’

राजनीतिक पंडितों का ऐसा भी आकलन है कि शिवराज के दिल्ली आने की स्थिति में उनका मजबूत होना तय है क्योंकि भाजपा के पास दिल्ली में जो राष्ट्रीय नेता हैं उनमें चुनाव जीतने और जिताने की क्षमता रखने वालों का बेहद अभाव है. ऐसी स्थिति में शिवराज वहां मजबूती से उभरेंगे. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘आडवाणी और सुषमा की जो भी सभाएं आजकल होती हैं वो भाजपा शासित राज्यों में ही होती हैं. आडवाणी का पहले वाला करिश्मा रहा नहीं. ये उन्हें खुद भी अपनी पिछली रथ यात्रा से पता चल गया होगा. दूसरी तरफ सुषमा की स्थिति ये है कि उन्हें अपने आप को लोकसभा पहुंचाने में बेहद मशक्कत करनी पड़ रही है. पूरी पार्टी को वो कैसे लोकसभा पहुंचाएंगी. जेटली राज्य सभा वाले हैं और राजनाथ का अपने ही राज्य में कोई जनाधार नहीं रहा. मोदी आज सिर्फ इस कारण से दबाव बना पा रहे हैं क्योंकि वो लगातार चुनाव जीत कर आ रहे हैं. यही ताकत शिवराज भी आगामी विधानसभा जीत कर हासिल कर लेंगे.’

खैर, शिवराज प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बनते हैं या नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन एक चीज स्पष्ट है कि अगर उन्होंने अपनी राजनीति और व्यवहार की गति और दिशा यही बनाए रखी तो निश्चित तौर पर वे आने वाले समय में भाजपा के उन-गिने चुने चेहरों में शामिल होंगे जिन पर भाजपा का भविष्य निर्भर होगा.