पिता श्री ठीक होकर बनारस लौट गए हैं। मैं उन्हें दिल्ली में उतने ही दिन रोक पाया जब तक वे बिस्तर पर थे। उनका दिल सामान्य आदमी से आधा धड़क रहा था। इस कारण शरीर के दूसरे हिस्से में $खून और ऑक्सीजन की आपूर्ति काफी कम थी। डाक्टरों ने उनके दिल में पेसमेकर लगाया। ठीक होते ही वे एक रोज़ भी यहां नहीं रु के। लौट गए बनारस। इस दलील के साथ कि ‘मेरो मन अनत कहां सुख पावे। जैसे उडि़ जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै।Ó
वे दिल्ली आना नहीं चाहते थे। कहते – ‘यह भी कोई शहर है। सत्ता के लिए षडयंत्रों का शहर। शोहरत के पीछे भागते लोग। वहीं काशी। राग और विराग का शहर। जहां लोग मोक्ष के लिए शरीर तक छोड़ देते हैं। एक फक्कड़ मस्ती के साथ। और यहां अनंत लिप्सा की न थकने वाली होड़ जारी है।Ó
डाक्टरों की सलाह के बावजूद पिताश्री इलाज के लिए दिल्ली आने में ना-नुकुर कर रहे थे। इस उम्र में कोई काशी छोड़ता है। उनके इस हठ की एक दूसरी वजह भी देखता हूं। बनारस का एक खास किस्म का ‘ऑर्गेनिकÓ चरित्र है। कोई वहां कुछ दिन रह ले तो उसकी जड़ें उग आती हैं। यह जड़ें उसे शहर नहीं छोडऩे देतीं। इसीलिए एक बुरी आदत सा बनारस व्यक्ति को छोड़ता नहीं। फिर दिल्ली से बनारस की क्या तुलना। एक ओर सदियों से सिकुड़ती-फैलती, बनती-बिगड़ती, उजड़ती-बसती दिल्ली। दूसरी तरफ धर्म, परम्परा और संस्कृति की अनादि, अनंत परम्परा। जिसका न इतिहास बदला न भूगोल।
दिल्ली को पिताजी एक सराय मानते। दुनिया का सबसे बड़ा ‘ट्रांजिट कैम्पÓ। जहां लोग लगातार आते और जाते रहते हैं। अस्पताल में उन्होंने बताया कि डॉ. लोहिया दिल्ली को भारतीय इतिहास की शाश्वत नगरवधू कहा करते थे। डॉ. लोहिया और पिताजी का जन्म अकबरपुर के शहज़ादपुर कस्बे में कोई सौ गज की दूरी में ही हुआ था। शायद इसलिए दोनों मानते हैं कि दिल्ली न किसी की रही है न किसी की होगी। इसका अपना एक बेवफा चरित्र है। मुकाबले में अपने बनारस की आत्मीयता और अड्डेबाज़ी का जवाब नहीं। जहां जुलाहे में भी ब्रह्यज्ञान जगा था। शायद इसीलिए तुलसी ने भी यहीं तन त्यागा था।
दिल्ली से उनके इस बैर भाव के कारण उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लाना मुश्किल काम था। मोक्ष भले बनारस में मिले पर जीवन पर आए संकट से बचने के उपकरण दिल्ली में थे। क्या करें? संकट बड़ा था। समय के साथ उनकी सेहत गिर रही थी। बनारस के डाक्टर $फौरन ऑपरेशन चाहते थे। मैं कुछ कहता वे बोल पड़ते, इस उम्र में कोई काशी छोड़ता है भला। मेरे मन में एक अपराधबोध पहले से ही था। माता को भी दिल्ली लाया था। इलाज के लिए। वे यहीं चली गई। दिल पर बना यह बोझ फैसला लेने में बाधक था। तब माता के दिल के वॉल्व बदलवाने थे।
दिल्ली में बड़े अस्पतालों में पव्वा न हो तो कोई पूछता नहीं है। अपना पव्वा साबित करने के लिए माताजी को मैं दिल्ली ले आया था। मेरा पव्वा उन पर भारी पड़ा। दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में उनका ऑपरेशन हुआ। वे दिल्ली चलकर आई थीं और मैं वापस बनारस लौटा, उनकी देह लेकर।
बनारस के एक निजी अस्पताल के आईसीयू में मैं इसी उधेड़बुन में था। तभी पिताश्री ने कहा, क्यों परेशान हो। गालिब का एक शेर सुनाया- ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रातभर नहीं आती।Ó चचा गालिब के इस शेर ने मुझमें ताकत भर दी। फैसला हो गया कि दिल्ली ही चलना है।
पिताजी को दिल्ली लाना दिल-जिगरे का काम था। ऐसा नहीं था कि वे दिल्ली के हमारे घर आते नहीं थे। पिताजी कई बार आए। बनारस से उनका आना हमारे दिल्ली के घर में उत्सव की तरह होता। वे आएं तो उत्सव और टिक जाएं तो महोत्सव। अब उत्सव होगा या महोत्सव, यह निर्णय हर बार अपने मूड के अनुसार पिताजी ही लेते। काशी से उनका निकलना या कहिए उन्हें निकालना, उतना ही कठिन होता जितना स्वयं काशीनाथ को उनकी नगरी से निकाल पाना। गाया हज़रते ज़ौक की एक पंक्ति, कुछ यूं बदलकर उन्होंने अपने सीने से लगा रखी थी- ‘कौन जाए ए ज़ौक अब काशी की गलियां छोड़कर।’ काशी में पिता के प्राण बसते हैं।
लेकिन इस बार व्यथा कुछ अलग थी। उन्हेंं दिल्ली लाना जितना कठिन था, उतना ही ज़रूरी भी। हमेशा जिंदादिली से जीने वाले पिता उम्र के 84वें पड़ाव पर दिल के ही हाथों मात खा रहे थे। उनके सीने में ‘पेसमेकर’ लगाया जाना ज़रूरी हो गया था। पेसमेकर यानी एक प्रकार का ‘इनवर्टरÓ। जब दिल को धड़काने वाली बिजली की तरंगे फेल होने लगती हैं तो यह खुद-ब-खुद ऑन होकर दिल को धड़काने लगता है। ‘पेसमेकर’ तो बनारस में भी लग सकता था पर इसके लिए ज़रूरी सुविधाएं वहां नहीं थीं।
‘अब तो होगा सो यहीं होगा।’ उनकी इस हठधर्मिता के पीछे छुपी, अंत तक अपनी मिट्टी से जुड़े रहने की आस्था एकदम तटस्थ थी। उन्हें कैसे कहूं की आपको दिल्ली चलना ही होगा। मितव्ययिता जीवनभर उनके स्वभाव का हिस्सा रही। अचानक यह कुंजी मेरे दिमाग पर लगा ताला खोल गई। सो इसी के सहारे एक नए दांव का मसौदा तैयार किया। कल सुबह-सुबह बात बन जाएगी। सुबह आईसीयू में उनके सामने था। ऊपर वाले का सुमिरण किया और अपना पत्ता फेंका। ‘देखिए दिल्ली से एयर एम्बुलेंस मंगवाई है। आज दोपहर तक आ जाएगी। अभी एक मित्र के कहने पर कोई पैसा नहीं लग रहा है। मगर कल कोई ऊंच-नीच हो गई तो आनन-फानन में यही एयर एम्बुलेंस दोगुना पैसा लेकर आएगी।Ó सधा हुआ तीर सीधा निशाने पर लगा। पिताजी का स्वर फू टा, ‘अच्छा, ठीक है। चलता हूं। तुम मुझे दिल्ली ले जा रहे हो तो कुछ-न-कुछ बड़ी गड़बड़ ज़रूर है।Ó
इलाज के लिए पिताजी का दिल्ली चलने का राज़ी हो जाना मेरे लिए उनके आधे स्वस्थ हो जाने की आश्वस्ति थी। यूं भी जीवन की आपाधापी में एक बेटे का पिता से कितना सरोकार रहता हैं? ममत्व, आत्मीयता, प्यार, साहस और एक वृक्ष के साए के अलावा? ज़रूरत के वक्त उनसे ही रास्ता पूछना और राह भटकने पर उन्हीं से दण्ड पाना। शायर मित्र आलोक का शेर है -‘कभी बड़ा सा हाथखर्च है। कभी हथेली की सूजन। मेरे मन का आधा साहस आधा डर हैं बाबू जी।Ó
मगर स्वयं पिता बनने पर कई मानक एकदम उलट जाते हैं। एक पिता के रूप में हम अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का प्रतिबिंब अपने पिता की आंखों में देखने लगते हैं। तब इस रिश्ते का महत्व समझ में आता है। एक रिश्ता सबसे बड़ी ज़रूरत बन जाता है। तपती धूप में की जाने वाली यात्रा के बीच आने वाले मीठे जल के कुंए या बावड़ी में बदल जाता है।
पिताश्री दिल्ली आए। इलाज कराया। और ठीक होकर बनारस लौट गए। दिल्ली के चाक-चिक्य को छोड़ उसी काशी को जिसके बारे में कहा गया है ‘चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार। काशी कबहुं न छोडि़ए विश्वनाथ दरबार।Ó उन्हें दिल्ली दरबार से बेहतर विश्वनाथ दरबार लगता है। लेकिन उनकी सेवा का सुयोग इन दिनों जो मुझे मिला वह सदा-सदा के लिए मेरे मन में ठहर गया है। मुझे धन्य कर गया है।
मनु शर्मा कवि, शिक्षक और पौराणिक उपन्यासकार
(28 अक्तूबर 1928-8 नवंबर 2017)
हिंदी साहित्य में पौराणिक उपन्यासकार के तौर पर विख्यात मनु शर्मा (हनुमान प्रसाद शर्मा) का आठ नवंबर को काशी में निधन हो गया। अभी 28 अक्तूबर को पारिवारिक सदस्यों और साहित्यकारों ने उनका नब्बे वां जन्मदिन मनाया था। उनका रचना संसार विराट था और निजी संसार उतना ही व्यापक और सहज। कृष्ण उनके अपने सखा, चिंतक और मार्गदर्शक थे। उन्होंने आठ खंडों में उनकी कथा लिखी। ‘तहलकाÓ को भी उनका रचनात्मक सहयोग हमेशा मिला। उनका शरीर आज नहीं है फिर भी वे हर पल साथ हैं।-संपादक