कसमें, वादे प्यार, वफा सब…

फोटोः कृष्ण मुरारी ‘ककशन’
फोटोः कृष्ण मुरारी ‘किशन’

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बिहार में राजनीति जैसे अनायासी मुद्रा में है. सबकुछ अनायास हो रहा है. कहीं अब तक किसी की नजर में चढ़े रहे अचानक उसकी नजर में बस जा रहे हैं तो कहीं इसका उलटा हो रहा है. रातों-रात खेल बदल देने का खेल चल रहा है. सभी दलों की धुकधुकी बढ़ी हुई है. कल क्या होगा, किसी को पता नहीं.

सत्ताधारी जदयू की ही बात करें. दल के कई नेता राज्यसभा जाने के लिए बेचैन थे. सूत्रों की मानें तो कुछ ने अपनी सीट पक्की मानकर पार्टी वगैरह भी दे दी थी. लेकिन नीतीश कुमार ने रातों-रात पासा पलटते हुए तीन ऐसे लोगों को अपनी पार्टी की ओर से राज्यसभा भेज दिया जिनकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.

दूसरी तरफ लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और उसके मुखिया रामविलास पासवान हैं. करीब एक दशक पहले वे नरेंद्र मोदी के नाम पर ही एनडीए से अलग हुए थे. उसके बाद उन्होंने पिछले नौ साल से लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ फेवीकोल टाइप जोड़ बनाया हुआ था. कुछ दिनों पहले उन्होंने दिल खोलकर नीतीश कुमार की तारीफ की थी और नीतीश ने उनकी. इससे कुछ दूसरी संभावनाओं के संकेत भी मिले थे. लेकिन वह सब दिखावे की कवायद साबित हुई. पासवान आज अपने पुराने दुश्मन नरेंद्र मोदी को ही प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में अपने भाई,  बेटे आदि के साथ पूरी ऊर्जा लगाने के लिए तैयार हो चुके हैं.

इस सबके बीच सबसे बड़ा सियासी खेल लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में हुआ. रातों-रात पार्टी के 13 विधायकों के टूटने की खबर जंगल में आग की तरह फैली. राजनीतिक गलियारों में  दिन भर गहमागहमी रही कि राजद के 22 में से 13 विधायकों ने अलग गुट बनाकर जदयू का साथ दे दिया है. लेकिन  शाम होते-होते छह विधायक फिर राजद के ही कार्यालय में पहुंचकर प्रमाण देने में लग गए कि वे हर तरह से लालू प्रसाद के साथ हैं. जब यह खबर सामने आई थी तो लालू दिल्ली में थे. उधर, पटना में नीतीश कुमार तो उस पर चुप्पी साधे रहे लेकिन जदयू के सिपहसालार बयान पर बयान देते रहे कि इसमें हर्ज क्या है, अनैतिक क्या है,  हर दल अपनी मजबूती चाहता है, हमने भी चाही तो गलत क्या?

लेकिन जदयू नेता ऐसे बयान दिन भर ही दे सके. शाम होते-होते बाजी बदलने लगी.  लालू के खेमे से नीतीश के खेमे में गए या ले जाए गए विधायक वापस अपने कुनबे यानी राजद में लौटने लगे. शाम तक छह लौटे और अगले दिन लालू प्रसाद के दिल्ली से लौटते ही संख्या छह से नौ हो गई. जदयू की बोलती बंद हुई और छीछालेदर करने-कराने का एक नया सिलसिला शुरू हुआ.

आने वाले समय में और भी उथलपुथल के संकेत मिल रहे हैं. सूत्र बता रहे हैं कि जिस तरह से राजद में तूफानी गति से विद्रोह के संकेत मिले हैं वैसा ही कुछ भाजपा में भी दिख सकता है. संभावित लोजपा-भाजपा गठबंधन को लेकर बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अश्विनी कुमार चौबे विरोध जताकर इसके संकेत दे चुके हैं. बताया जाता है कि भाजपा के कई नेता जदयू से अलगाव के बाद लोकसभा चुनाव लड़ने के आकांक्षी हैं. लोजपा को सीटें देने पर उनकी उम्मीदें टूटेंगी तो वे बगावत की राह अपना सकते हैं.

इस सबके बीच बिहार में वाम दलों के बीच बंटवारा तो साफ-साफ हो ही चुका है. कुछ माह पहले तक पानी पी-पी कर बिहार सरकार को कोसने वाले भाकपा और माकपा जैसे दो बड़े वाम दल जदयू की शरण में जा चुके हैं. बिहार में तीसरा वाम दल भाकपा माले जदयू,  भाजपा के साथ अपनी बिरादरी के इन दो वाम दलों से भी लड़ने की तैयारी में है. सियासत के ऐसे पेंच बिहार में रोज-ब-रोज फंस रहे हैं. इन सबके बीच आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जैसे दलों की उछलकूद का अपना गुणा-गणित है.

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अब सवाल यह उठता है कि सियासत के इस खेल में फिलहाल पेंच फंसा कर आगे की योजना पर काम कर रहे दलों को दो माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में वाकई उतना फायदा भी होगा या फिर दांव उलटा भी पड़ सकता है. सवाल और भी हैं. मसलन क्या भाजपा का दामन थामकर लोजपा और पूर्व राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का बेड़ा पार होगा? क्या ये नये संगी-साथी भाजपा को भी फायदा दिला पाने की स्थिति में होंगे? नीतीश कुमार की पार्टी जदयू क्या राजद तोड़फोड़ प्रकरण के बाद मजबूत होने की ओर बढ़ेगी या फिर इस घटना से पार्टी की छवि और साख पर उलटा बट्टा ही लगेगा? पुराने साथी रामविलास पासवान का साथ छूटने और इकलौती बड़ी राजनीतिक ख्वाहिश के तौर पर कांग्रेस का साथ मिलने के बाद लालू प्रसाद की पार्टी राजद को फायदा होगा या नुकसान? और सवाल यह भी है कि बिहार में सीटों की राजनीति में हाशिये पर पहुंच चुके दोनों प्रमुख वाम दल भाकपा और माकपा क्या नीतीश का साथ मिलने के बाद फिर से उठ खड़े होंगे या यह कवायद फुस हो जाएगी. बड़ा सवाल यह भी है कि क्या विशेष राज्य दर्जे की मांग को फिर मुद्दा बनाने की तैयारी में जुटी जदयू इस काठ की हांडी को फिर से चढ़ा पाने की स्थिति में आ जाएगी. और क्या फेडरल फ्रंट की जिस कवायद में नीतीश कुमार इन दिनों दिन-रात एक किए हुए हैं, उसका असर बिहार की सियासत पर भी पड़ेगा?

तो ऐसे तमाम सवाल हैं. लेकिन निश्चित जवाब किसी सवाल का नहीं मिलता. जवाब के रूप में तरह-तरह के अनुमान और आकलन मिलते हैं. एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं.

लालू और उनकी पार्टी का क्या होगा?
बिहार के सियासी गलियारे में जो कुछ हालिया दिनों में हुआ, उसमें सबसे चर्चित मामला रहा लालू प्रसाद की पार्टी राजद के 13 विधायकों द्वारा हस्ताक्षर कर अलग गुट बनाते हुए जदयू को समर्थन देना. हालांकि डैमेज कंट्रोल करते हुए लालू ने 24 घंटे से भी कम समय में इन 13 में से नौ विधायकों को वापस लाकर सबके सामने खड़ा कर दिया. एक तरीके से उन्होंने नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के अभियान पर न सिर्फ ब्रेक लगाया बल्कि अरसे बाद जदयू को जवाब भी दिया. लेकिन जानकारों की मानें तो राजद में ऐसा होना पहले से ही रसातल में पहुंच चुकी पार्टी के लिए खतरनाक संकेत लेकर आया है. नौ की वापसी के बाद भी कुल 22 विधायकों वाली पार्टी के पास अब फिलहाल 18 विधायक ही बच गए हैं. यानी डैमेज कंट्रोल के बाद भी उसे चार का झटका लगा. जदयू के कोटे से विधानसभा अध्यक्ष ने गड़बड़ी कर राजद विधायकों के गुट को मान्यता दी है, यह सब जानते हैं. लेकिन यह बात भी सामने आ रही है कि यह सब खेल राजद के एक विधायक सम्राट चौधरी का है जिन्होंने खुद खगड़िया से लोकसभा टिकट पाने और अपने पिता शकुनी चौधरी को विधान परिषद का सभापति बनवाने के लिए जदयू के पक्ष में खेल किया.

Paswanबात इतनी ही नहीं है. इस खेल में जदयू के अलावा राजद के कुछ दूसरे नेताओं की मिलीभगत की बात भी कही जा रही है. लालू प्रसाद अपने विधायकों के तोड़े जाने के बाद जोश में हैं. वे रिक्शे से राजभवन जाकर नए नारे और जुमले चला चुके हैं. राजद जागा, नीतीश भागा तक के नारे.

बेशक नौ विधायकों को वापस करा लेना लालू प्रसाद के लिए कोई मामूली सफलता नहीं है और नीतीश की पार्टी के लिए कोई मामूली विफलता भी नहीं, लेकिन क्या इतने से ही लालू प्रसाद की पार्टी का लोकसभा में बेड़ापार होगा? राजनीतिक जानकार कहते हैं कि  इससे लालू प्रसाद को ज्यादा ऊर्जा नहीं मिलने वाली. अब उनके सामने चुनौती और बढ़ गई है. उनके दल की क्या आंतरिक स्थिति है, उसका पता उन्हें चल गया होगा. दल के एक वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी पर जदयू की ओर से डोरे डालने की बात सामने आ ही चुकी है. बताते हैं कि नीतीश कुमार की तरफ से उन्हें मधुबनी से लोकसभा चुनाव लड़ने और फिलहाल उपमुख्यमंत्री बनने तक का प्रस्ताव दिया जा चुका था, लेकिन उन्होंने यह ठुकरा दिया. राजद के अंदरूनी सूत्र बता रहे हैं कि सिद्दीकी  उचित समय की तलाश में अब भी हैं. उन्हें राजद अगर मधुबनी से टिकट नहीं दे पाएगा तो वे कभी भी पार्टी को अलविदा कह सकते हैं. यहीं पेंच फंसा हुआ है. माना जा रहा है कि लालू प्रसाद के लिए उन्हें मधुबनी सीट देना मुश्किल होगा. जानकारों के मुताबिक वहां से कांग्रेस के शकील अहमद चुनाव लड़ना चाहते हैं और लालू फिलहाल कांग्रेस के सामने नतमस्तक दिखते हैं.

लालू के लिए सिर्फ सिद्दीकी के लिए ही रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होगा. राजद में ऐसे कई नेता अब भी कतार में हैं, जो चुनाव आते-आते पाला बदलकर दूसरी राह जा सकते हैं. लालू प्रसाद के वर्षों तक करीबी रहे विधान पार्षद नवल किशोर यादव कहते हैं, ‘जो चार सीट है, वह बचाना भी मुश्किल होगा इस बार लालू प्रसाद के लिए. लालू की राजनीति की भविष्यवाणी करना अभी से ठीक नहीं लेकिन रामविलास पासवान के अलग होने से भी उन्हें एक झटका लगा है, क्योंकि राज्य में करीब पांच प्रतिशत मत पासवानों का है और रामविलास उसके चैंपियन नेता हैं.’

नीतीश आखिर चाहते क्या हैं?
वैसे लालू प्रसाद अगर परेशानी में हैं तो बिहार में सत्ता संभाले नीतीश कुमार भी उनसे कम मुश्किल में नहीं दिख रहे. उनकी पार्टी जदयू ने राजद विधायकों को अपने खेमे में शामिल करने की जो कोशिश की और उसे जो झटका लगा उससे जदयू और नीतीश कुमार की राजनीति, दोनों की साख पर बट्टा लगा है. राज्य में विरोधी दल अब इस बात को हवा देने लगे हैं कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार के पास सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ाने को उम्मीदवार तक नहीं हैं इसलिए वे दूसरे दलों से नेताओं को तोड़ने की असंवैधानिक कोशिश करने से भी बाज नहीं आ रहे. यह बात सबको समझ में आ भी सकती है  क्योंकि राजद से अगर कम से कम 15 विधायक टूटते तो ही उन्हें एक अलग समूह के तौर पर मान्यता दी जा सकती थी. लेकिन 13 पर ही यह मान्यता देकर विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने एक राजनीतिक खेल का समर्थन ही किया है. राजद के सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं कि नीतीश की तरह विधानसभा अध्यक्ष भी इस खेल के अपराधी हैं और इस मामले को लेकर अब पूरे बिहार में संग्राम होगा, क्योंकि रक्षक के पद पर रहते हुए विधानसभा अध्यक्ष भक्षक हो गए. दूसरी ओर उदय नारायण चौधरी अब भी यही कह रहे हैं कि उनका फैसला कानूनन एकदम सही था.

इस मामले में सबसे ज्यादा मुश्किल में नीतीश कुमार फंसे हुए दिख रहे हैं. अब तक वे दूसरे दलों को नैतिक तौर पर निशाने पर लेते रहे थे, लेकिन इस प्रकरण के बाद वे सवालों से मुंह मोड़ने की स्थिति में दिख रहे हैं. नीतीश कुमार कहते हैं कि उन पर तो कोई भी कुछ भी आरोप लगा देता है, इस जोड़तोड़ का भी आरोप लगाया जाएगा तो क्या कहें! वे भले ही इससे ज्यादा कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके ही दल के एक नेता श्रवण कुमार कुछ ढिठाई से जवाब देकर पार्टी की मिट्टीपलीद कराने के अभियान में ही लगे हुए दिखे. बकौल श्रवणकुमार, ‘हर दल अपनी मजबूती चाहता है, राजद के विधायक टूटकर खुद आने को तैयार थे तो हम इससे भला क्यों न इतराते. हमारी पार्टी मजबूत है और भविष्य में संभावना अच्छी है इसलिए लोग हमारे दल से जुड़ने के लिए परेशान हैं.’

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फोटोः विकास कुमार

नीतीश कुमार के लिए परेशानी एक नहीं है. उनके चहेते आईएएस अधिकारी अफजल अमानुल्लाह की पत्नी और उनके प्रिय मंत्रियों में एक रहीं परवीन अमानुल्लाह हालिया दिनों में उनसे अलग हो चुकी हैं. इतना ही नहीं, अलग होने और आम आदमी पार्टी का दामन थामने के बाद वे नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ आग उगलने का अभियान शुरू कर चुकी हैं. परेशानियां पार्टी के भीतर से भी हैं. शायद यही वजह है कि 27 फरवरी को खबर आई कि बिहार में जदयू ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में अपने पांच सांसदों को पार्टी से निष्कासित कर दिया है. निष्कासित सांसदों में पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के अलावा पूर्णमासी राम, मंगनी लाल मंडल, सुशील सिंह और जय नारायण निषाद शामिल हैं.

नीतीश कुमार के लिए यह भी मुश्किल है कि लोकसभा चुनाव में वे क्या मुद्दा चुनें. उनकी पूरी ऊर्जा इन दिनों दो अभियानों में लगी हुई है. एक तो वे किसी तरह फिर से इस चुनाव में भी विशेष राज्य दर्जा के मसले को जिंदा करके उसे चलाना चाहते हैं. इसके लिए वे दो मार्च को अपने द्वारा ही शासित राज्य बिहार को बंद करवाने का एलान कर चुके हैं. असर क्या होगा यह देखा जाएगा, लेकिन विशेष राज्य दर्जा का अभियान अब इस बार भी चुनाव में चल पाएगा,  इसमें संदेह है. जदयू के ही एक नेता कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि काठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, लेकिन हमारे सामने संकट कार्यकर्ताओं को रीचार्ज करने का भी है, इसलिए बंदी का एलान कर  हम अपने कार्यकर्ताओं को रीचार्ज करने में लगे हुए हैं.’ उधर, जिस दूसरे मोर्चे यानी फेडरल फ्रंट पर नीतीश काफी ऊर्जा खर्च कर रहे हैं, उसके बारे में जानकार मानते हैं कि उसका असर बिहार में कम होगा, दूसरी जगह चाहे जो हो.

इसके अलावा बिहार में रामविलास का भाजपा की ओर जाने का संकेत देना जितना लालू प्रसाद के लिए नुकसानदायी है, उससे कोई कम नुकसानदायक नीतीश के लिए नहीं है. वजह यह है कि रामविलास के तौर पर उनके पास कम से कम एक संगी था, जो नरेंद्र मोदी की जोरदार आलोचना करता था. दूसरी ओर कभी उनके साथ रहे और कुशवाहा नेताओं में से एक उपेंद्र कुशवाहा एक अलग पार्टी बनाकर पहले ही भाजपा के पाले में बैठ चुके हैं.

भाजपा का क्या होगा?
बिहार में भाजपा का क्या होगा, यह सिर्फ सर्वेक्षणों या अधिक से अधिक सहयोगियों के जुड़ जाने से तय होता नहीं दिखता. राज्य में भाजपा के नेता इन दिनों रोज हवाई किले बनाने में व्यस्त दिखते हैं. एक तो कुछ चुनावी सर्वेक्षणों ने उन्हें दिवास्वप्न देखने का अधिकार दे दिया है.  दूसरे रामविलास पासवान या उपेंद्र कुशवाहा जैसे संगी साथी मिलने से भी उनकी खुशी बढ़ी है. भाजपा को उम्मीद है कि रामविलास पासवान के आने से उसे दलितों के बीच पैठ बढ़ाने में सहूलियत होगी. लेकिन जो भी थोड़ी बहुत बिहार की राजनीति की समझ रखते हैं वे जानते हैं कि रामविलास पासवान अब दलितों नहीं बल्कि सिर्फ पासवानों के नेता भर रह गए हैं और हाल के समय में सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने समय-समय पर सहयागियों को फटाफट बदला है. साथ ही पासवान की अब एक बड़ी पहचान राजनीति में किसी तरह अपने परिवार को स्थापित करवाने के अभियान में लगे नेता के तौर पर भी उभरी है. ऐसे में रामविलास पासवान के आने से भाजपा को फायदा होगा, इसमें कई जानकार संदेह जताते हैं. हालांकि भाजपा को लगता है कि बिहार में पासवान समुदाय का पांच फीसदी वोट उसे काफी फायदा पहुंचा सकता है. उधर, लोजपा को लगता है कि इस बार नरेंद्र मोदी की लहर में शायद पार्टी बिहार में अपना खोया जनाधार वापस पा सकती है. पार्टी नेता सूरजभान सिंह कहते हैं,  ‘पार्टी सोचसमझकर फैसला ले रही है, क्योंकि इससे हमें फायदा होगा.’ दूसरी ओर भाजपा को उपेंद्र कुशवाहा में भी बड़ी संभावना दिख रही है. कुशवाहा वर्षों तक नीतीश कुमार के संगी साथी रहने के बाद अब नीतीश के घोर विरोधी नेताओं में से एक हैं. बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की ताकत के तौर पर लव-कुश समीकरण यानी कोईरी कुरमी गठजोड़ को भी माना जाता है. भाजपा को विश्वास है कि उपेंद्र कुशवाहा के साथ आने से यह गठजोड़ टूटेगा और नीतीश से कोईरी मतदाताओं का मोह भंग होगा.

ये बातें अभी आकलन और अनुमान के आधार पर कही जा रही है लेकिन भाजपा के सामने दूसरे सवाल बड़े हैं और बड़ी चुनौती भी इंतजार में है. भाजपा में ऐसे गठबंधनों पर विरोध के स्वर अंदर ही अंदर तेज होते जा रहे हैं. पार्टी के कई नेताओं का मानना है कि पार्टी को बिहार में अकेले दम पर ही चुनावी मैदान में उतरना चाहिए, इससे पार्टी को फायदा होगा. साथ ही भाजपा के कई नेताओं को यह भी अखर रहा है कि अगर पार्टी दस सीटें पासवान और कुशवाहा को दे देगी तो इससे उनकी उम्मीदों के ही पर तो कतरे जाएंगे. भाजपा के सामने एक बड़ा सवाल जाति की राजनीति साधने को लेकर भी है. बेशक आज नंदकिशोर यादव विधानसभा में दल के नेता हैं, जो पिछड़े समुदाय से आते हैं. सुशील मोदी बड़े नेता हैं जो पिछड़े समुदाय से आते हैं. रामविलास के आने के बाद दलित के बीच जाने का भी मौका मिलेगा, ऐसी उम्मीद कुछ भाजपा नेताओं को है लेकिन भाजपा के सामने मुश्किल यह है कि उसकी पहचान सवर्णों की पार्टी के रूप में हो गई है और इस लोकसभा चुनाव तक आसानी से शायद ही यह छवि बदल सके.