सत्ताधारी जदयू की ही बात करें. दल के कई नेता राज्यसभा जाने के लिए बेचैन थे. सूत्रों की मानें तो कुछ ने अपनी सीट पक्की मानकर पार्टी वगैरह भी दे दी थी. लेकिन नीतीश कुमार ने रातों-रात पासा पलटते हुए तीन ऐसे लोगों को अपनी पार्टी की ओर से राज्यसभा भेज दिया जिनकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.
दूसरी तरफ लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और उसके मुखिया रामविलास पासवान हैं. करीब एक दशक पहले वे नरेंद्र मोदी के नाम पर ही एनडीए से अलग हुए थे. उसके बाद उन्होंने पिछले नौ साल से लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ फेवीकोल टाइप जोड़ बनाया हुआ था. कुछ दिनों पहले उन्होंने दिल खोलकर नीतीश कुमार की तारीफ की थी और नीतीश ने उनकी. इससे कुछ दूसरी संभावनाओं के संकेत भी मिले थे. लेकिन वह सब दिखावे की कवायद साबित हुई. पासवान आज अपने पुराने दुश्मन नरेंद्र मोदी को ही प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में अपने भाई, बेटे आदि के साथ पूरी ऊर्जा लगाने के लिए तैयार हो चुके हैं.
इस सबके बीच सबसे बड़ा सियासी खेल लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में हुआ. रातों-रात पार्टी के 13 विधायकों के टूटने की खबर जंगल में आग की तरह फैली. राजनीतिक गलियारों में दिन भर गहमागहमी रही कि राजद के 22 में से 13 विधायकों ने अलग गुट बनाकर जदयू का साथ दे दिया है. लेकिन शाम होते-होते छह विधायक फिर राजद के ही कार्यालय में पहुंचकर प्रमाण देने में लग गए कि वे हर तरह से लालू प्रसाद के साथ हैं. जब यह खबर सामने आई थी तो लालू दिल्ली में थे. उधर, पटना में नीतीश कुमार तो उस पर चुप्पी साधे रहे लेकिन जदयू के सिपहसालार बयान पर बयान देते रहे कि इसमें हर्ज क्या है, अनैतिक क्या है, हर दल अपनी मजबूती चाहता है, हमने भी चाही तो गलत क्या?
लेकिन जदयू नेता ऐसे बयान दिन भर ही दे सके. शाम होते-होते बाजी बदलने लगी. लालू के खेमे से नीतीश के खेमे में गए या ले जाए गए विधायक वापस अपने कुनबे यानी राजद में लौटने लगे. शाम तक छह लौटे और अगले दिन लालू प्रसाद के दिल्ली से लौटते ही संख्या छह से नौ हो गई. जदयू की बोलती बंद हुई और छीछालेदर करने-कराने का एक नया सिलसिला शुरू हुआ.
आने वाले समय में और भी उथलपुथल के संकेत मिल रहे हैं. सूत्र बता रहे हैं कि जिस तरह से राजद में तूफानी गति से विद्रोह के संकेत मिले हैं वैसा ही कुछ भाजपा में भी दिख सकता है. संभावित लोजपा-भाजपा गठबंधन को लेकर बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अश्विनी कुमार चौबे विरोध जताकर इसके संकेत दे चुके हैं. बताया जाता है कि भाजपा के कई नेता जदयू से अलगाव के बाद लोकसभा चुनाव लड़ने के आकांक्षी हैं. लोजपा को सीटें देने पर उनकी उम्मीदें टूटेंगी तो वे बगावत की राह अपना सकते हैं.
इस सबके बीच बिहार में वाम दलों के बीच बंटवारा तो साफ-साफ हो ही चुका है. कुछ माह पहले तक पानी पी-पी कर बिहार सरकार को कोसने वाले भाकपा और माकपा जैसे दो बड़े वाम दल जदयू की शरण में जा चुके हैं. बिहार में तीसरा वाम दल भाकपा माले जदयू, भाजपा के साथ अपनी बिरादरी के इन दो वाम दलों से भी लड़ने की तैयारी में है. सियासत के ऐसे पेंच बिहार में रोज-ब-रोज फंस रहे हैं. इन सबके बीच आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जैसे दलों की उछलकूद का अपना गुणा-गणित है.
अब सवाल यह उठता है कि सियासत के इस खेल में फिलहाल पेंच फंसा कर आगे की योजना पर काम कर रहे दलों को दो माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में वाकई उतना फायदा भी होगा या फिर दांव उलटा भी पड़ सकता है. सवाल और भी हैं. मसलन क्या भाजपा का दामन थामकर लोजपा और पूर्व राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का बेड़ा पार होगा? क्या ये नये संगी-साथी भाजपा को भी फायदा दिला पाने की स्थिति में होंगे? नीतीश कुमार की पार्टी जदयू क्या राजद तोड़फोड़ प्रकरण के बाद मजबूत होने की ओर बढ़ेगी या फिर इस घटना से पार्टी की छवि और साख पर उलटा बट्टा ही लगेगा? पुराने साथी रामविलास पासवान का साथ छूटने और इकलौती बड़ी राजनीतिक ख्वाहिश के तौर पर कांग्रेस का साथ मिलने के बाद लालू प्रसाद की पार्टी राजद को फायदा होगा या नुकसान? और सवाल यह भी है कि बिहार में सीटों की राजनीति में हाशिये पर पहुंच चुके दोनों प्रमुख वाम दल भाकपा और माकपा क्या नीतीश का साथ मिलने के बाद फिर से उठ खड़े होंगे या यह कवायद फुस हो जाएगी. बड़ा सवाल यह भी है कि क्या विशेष राज्य दर्जे की मांग को फिर मुद्दा बनाने की तैयारी में जुटी जदयू इस काठ की हांडी को फिर से चढ़ा पाने की स्थिति में आ जाएगी. और क्या फेडरल फ्रंट की जिस कवायद में नीतीश कुमार इन दिनों दिन-रात एक किए हुए हैं, उसका असर बिहार की सियासत पर भी पड़ेगा?
तो ऐसे तमाम सवाल हैं. लेकिन निश्चित जवाब किसी सवाल का नहीं मिलता. जवाब के रूप में तरह-तरह के अनुमान और आकलन मिलते हैं. एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं.
लालू और उनकी पार्टी का क्या होगा?
बिहार के सियासी गलियारे में जो कुछ हालिया दिनों में हुआ, उसमें सबसे चर्चित मामला रहा लालू प्रसाद की पार्टी राजद के 13 विधायकों द्वारा हस्ताक्षर कर अलग गुट बनाते हुए जदयू को समर्थन देना. हालांकि डैमेज कंट्रोल करते हुए लालू ने 24 घंटे से भी कम समय में इन 13 में से नौ विधायकों को वापस लाकर सबके सामने खड़ा कर दिया. एक तरीके से उन्होंने नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के अभियान पर न सिर्फ ब्रेक लगाया बल्कि अरसे बाद जदयू को जवाब भी दिया. लेकिन जानकारों की मानें तो राजद में ऐसा होना पहले से ही रसातल में पहुंच चुकी पार्टी के लिए खतरनाक संकेत लेकर आया है. नौ की वापसी के बाद भी कुल 22 विधायकों वाली पार्टी के पास अब फिलहाल 18 विधायक ही बच गए हैं. यानी डैमेज कंट्रोल के बाद भी उसे चार का झटका लगा. जदयू के कोटे से विधानसभा अध्यक्ष ने गड़बड़ी कर राजद विधायकों के गुट को मान्यता दी है, यह सब जानते हैं. लेकिन यह बात भी सामने आ रही है कि यह सब खेल राजद के एक विधायक सम्राट चौधरी का है जिन्होंने खुद खगड़िया से लोकसभा टिकट पाने और अपने पिता शकुनी चौधरी को विधान परिषद का सभापति बनवाने के लिए जदयू के पक्ष में खेल किया.
बात इतनी ही नहीं है. इस खेल में जदयू के अलावा राजद के कुछ दूसरे नेताओं की मिलीभगत की बात भी कही जा रही है. लालू प्रसाद अपने विधायकों के तोड़े जाने के बाद जोश में हैं. वे रिक्शे से राजभवन जाकर नए नारे और जुमले चला चुके हैं. राजद जागा, नीतीश भागा तक के नारे.