करवट लेती कुदरत

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जुलाई 2005 में मुंबई की बाढ़
26 जुलाई, 2005 को मुंबई में 944 मिमी पानी गिरा. यह बारिश इतनी थी कि पिछले 100 साल की शहर की याददाश्त में कभी इतना पानी नहीं गिरा था. इस अप्रत्याशित बारिश ने एक अप्रत्याशित बाढ़ को जन्म दिया जिसने देश की आर्थिक राजधानी को अगले चार दिन तक अपंग बनाए रखा. जगह-जगह पानी भरा होने के कारण सड़कें टूट गई थीं और नाले जाम थे. इस बाढ़ में करीब 100 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. उस साल पूरे महाराष्ट्र में ही जरूरत से ज्यादा बारिश हुई थी. पूरे राज्य में मौतों का आंकड़ा दो सौ के पार पहुंच गया था. वैज्ञानिकों के मुताबिक जल निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं होने और जनसंख्या में हुई बेहिसाब बढ़ोतरी के कारण इस बारिश का दोहरा दुष्प्रभाव सामने आया था. तबाही के बाद अगले कुछ दिनों में वैज्ञानिकों ने काफी विचार के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि मुंबई की बाढ़ के पीछे ग्लोबल वार्मिंग की भूमिका है. साल दर साल बढ़ते तापमान की वजह से समुद्री पानी के वाष्पीकरण की दर बहुत तेज हो गई है. ‘मरीन ऑब्जर्वेशन’ के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं. उनके मुताबिक पिछले 50 वर्षों में समुद्री सतह से वाष्प उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसी अध्ययन में यह भी कहा गया है कि पिछली आधी सदी में भयंकर वर्षा या बादल फटने की घटनाओं में प्रति दशक 14.5 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई है. मुंबई की बाढ़ और बारिश इसी का नतीजा थी और चेतावनी भी.

लेह में बादल का फटना
कोल्ड डेजर्ट यानी ठंडा रेगिस्तान. लद्दाख को इसी उपनाम से जाना जाता है. इसकी वजह यह है कि यहां जितनी ज्यादा ठंड होती है उतनी ही तेज सूर्य की किरणें भी यहां पड़ती हैं. एक साथ ही यहां धूप में तेज गर्मी और छांह में ठंड का अहसास लिया जा सकता है. अधिकतर वक्त चटख धूप वाले लद्दाख के लेह इलाके में छह अगस्त, 2010 को बादल फटने की विनाशकारी घटना हुई. इसकी वजह से पूरे लेह क्षेत्र में भयंकर बाढ़ और भूस्खलन की घटना हुई. इस आपदा में  डेढ़ सौ से अधिक लोगों की मौत हो गईं और गांव के गांव बह गए. इसके अलावा लेह की आजीविका के मुख्य आधार इनके जानवर बड़ी संख्या में मारे गए. इससे लेह की पूरी अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई. स्कूलों, दफ्तरों, रास्तों और पुलों समेत तमाम दूसरी जगहों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा था.

जानकारों के मुताबिक लेह की त्रासदी इंसानी हस्तक्षेप की वजह से हुई. लेह में आई बाढ़ और भूस्खलन की वजह असल में ये थी कि वह पूरा का पूरा इलाका एक ऐसी धारा के ऊपर बसा हुआ था जो काफी समय से सूखा पड़ा था. बीते कुछ सालों के दौरान इस रास्ते में बड़ी मात्रा में निर्माण  कार्य हुए जिससे पुरानी धारा जिस रास्ते से बहती थी वह बेहद संकरा हो गया था. 2010 के अगस्त महीने में जब अचानक से भीषण बरसात हुई तो पानी को बहने के लिए पर्याप्त रास्ता नहीं मिल पाया. पर पानी अपना रास्ता बना ही लेता है. अपने रास्ते में पड़ने वाले हर घर-मकान को तोड़ते पानी आगे निकल गया और पीछे तबाही के निशान छोड़ गया. भुरभुरी मिट्टी के ऊपर बने ये मकान पानी के प्रचंड दबाव के सामने टिक नहीं सके. जानकारों के मुताबिक लेह में बादल फटना एक सामान्य घटना थी लेकिन इतनी बड़ी जनहानी की वजह रही मानवीय लापरवाही. लोगों ने पारंपरिक तरीके छोड़कर आधुनिक कंक्रीट और सीमेंट आदि के घर बनाना शुरू कर दिया है. लद्दाख में ऐसा भी देखने में आया कि हाल के समय में बने मकान मलबे के ढेर में बदल गए थे जबकि स्थानीय शैली में बने 400 साल पुराने भवन अपनी जगहों पर सुरक्षित बने रहे.

उड़ीसा का चक्रवाती तूफान
1999 में आया उड़ीसा का चक्रवाती तूफान हिंद महासागर में आया सबसे शक्तिशाली तूफान माना जाता है. यह 25 अक्टूबर, 1999 से शुरू होकर 3 नवंबर, 1999 तक चला. 260 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार वाला यह तूफान देखते ही देखते उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों से आगे बढ़ते हुए लगभग बीस से तीस किलोमीटर भीतर तक तबाही फैला चुका था. इस तूफान में 15,000 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. लगभग दस लाख हेक्टेयर में फैली खेती तबाह हो गई और सोलह लाख लोग बेघर होकर सड़कों पर आ गए. तटीय इलाकों में आया यह सबसे विकराल तूफान था और इसका दायरा सबसे अधिक था. उड़ीसा के पुरी, गंजाम, बालासोर, भद्रक, केंद्रापड़ा और जगतसिंहपुर समेत कुल 14 जिले इस आपदा की चपेट में पूरी तरह से ध्वस्त हो गए थे. इस तूफान ने देश के सामने एक बड़े मानवीय विस्थापन का संकट भी खड़ा किया था. लाखों परिवारों को उड़ीसा के तटीय इलाकों से हटा कर सुरक्षित जगहों पर ले जाया गया. अकेले रेड क्रास के 23 राहत शिविरों में 44,500 के करीब लोगों को रखा गया था. इसकी विभीषिका तूफान गुजरने के काफी दिनों बाद तक इन इलाकों में देखने को मिली. सैकड़ों लोग भुखमरी, संक्रामक बीमारी और गंदे पानी के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे. इस चक्रवाती तूफान को ‘सायक्लोन जीरो बी’ के नाम से भी जाना जाता है.

हिमाचल के मैदानी इलाकों में बर्फबारी
2012 के जनवरी महीने में हिमाचल प्रदेश एक अनोखी घटना का चश्मदीद बना. प्रदेश के मैदानी इलाकों में भयंकर बर्फबारी हुई. इसने वहां के लोगों की दिनचर्या को तहस-नहस कर दिया. इस घटना ने आम लोगों के साथ-साथ वैज्ञानिकों को भी सकते में डाल दिया. प्रदेश के कम ऊंचाई वाले इलाकों ऊना जिले के चिंतपूर्णी और कांगड़ा जिले के नूरपुर, जसूर तथा हमीरपुर शहरी क्षेत्र के साथ-साथ लगभग सभी निचले इलाकों में बर्फबारी हुई. समुद्रतल से महज 400 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बर्फ का गिरना यूं भी अजीबोगरीब घटना थी. कई इलाकों के निवासियों ने तो अपने जीवनकाल में कभी भी बर्फबारी देखी ही नहीं थी. ज्यादातर जगहों पर पहली बार बर्फ गिरी थी. हिमाचल में उस साल बर्फबारी ने 76 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया था. इससे पहले 1971 में अवाहदेवी और टौणीदेवी इलाके में हल्की बर्फबारी हुई थी लेकिन इतने बड़े पैमाने पर बर्फबारी की यह पहली घटना थी. वैज्ञानिकों ने हिमाचल के निचले इलाकों में हुई इस बर्फबारी के लिए यूरोप के पश्चिमोत्तर में स्थित काला सागर में सक्रिय हुए एक पश्चिमी विक्षोभ को वजह माना था. वैज्ञानिकों का कहना था कि इस विक्षोभ के कारण पैदा हो रही हवाओं का वेग इतना बढ़ गया था कि ऊंचे इलाकों में गिरने वाली बर्फ हवा के साथ उड़कर निचले इलाकों तक पहुंच गई थी.

चेरापूंजी में सूखा
बचपन में सामान्य ज्ञान के सवालों में पूछा जाता रहा है कि भारत में सबसे अधिक वर्षा कहां होती है और उसका उत्तर हमेशा चेरापूंजी हुआ करता था. शायद नई पीढ़ी के लिए इस सवाल का उत्तर कुछ और हो जाए. कभी सर्वाधिक वर्षा वाली जगह के रूप में चर्चित चेरापूंजी से बारिश साल दर साल मुंह फेरती जा रही है. पिछले साल देश ने चेरापूंजी का एक विचित्र चेहरा देखा. साल भर पानी से सराबोर रहने वाले चेरापूंजी के लोग पीने के पानी के लिए लाइन लगाकर इंतजार कर रहे थे. पर्यावरणविदों का कहना है कि चेरापूंजी में होने वाली बारिश में हर साल 15 से 20 प्रतिशत तक की कमी आ रही है. बारिश की मात्रा में यह कमी पिछले एक दशक से देखी जा रही है. औसतन यहां 1,100 सेंटीमीटर बारिश होती थी. 2005 के बाद सालाना 800 से 900 सेंटीमीटर बारिश ही हो रही है. चेरापूंजी में कभी भी बड़े-बड़े जंगल नहीं रहे हैं और यहां पेड़ कटान की घटनाएं भी ना के बराबर ही होती रही हैं. इसलिए माना जा रहा है कि दूसरे हिस्सों में हो रही पर्यावरणीय घटनाओं (ग्लोबल वार्मिंग) का दुष्प्रभाव चेरापूंजी पर पड़ रहा है. बरसात केपर्यायवाची चेरापूंजी में आलम यह है कि लोगों को सर्दियों में पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है. जनसंख्या में बढ़ोतरी भी चेरापूंजी में पानी की कमी का एक बड़ा कारण है. 1961 में इस इलाके की आबादी मात्र 7,000 थी जो अब करीब पंद्रह गुना बढ़ गई है. चेरापूंजी के लिए चिंता की बात यह भी है कि यदि बारिश की मात्रा इसी तरह कम होती गई तो चेरापूंजी के आस-पास मौजूद तमाम जल-प्रपातों के लिए भी संकट खड़ा हो सकता है.