कम्पनी ने तलाशा आपदा में अवसर

पैसा लेकर अन्तिम संस्कार करने को बनाया मोटी कमायी वाला व्यवसाय

कोरोना महामारी में एक जुमला ख़ूब चर्चा में आया था, आपदा में अवसर। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना-काल में देशवासियों को राय दी थी कि वे आपदा में अवसर तलाशें। इसकी कोई जानकारी नहीं कि कोरोना-काल में आपदा में अवसर कितने लोगों ने तलाशे, मगर यह सच है कि आम लोगों को तो इस आपदा ने कहीं का नहीं छोड़ा। वैसे भी कोई आपदा जब आती है, तो सबसे अधिक समस्या सामान्य लोगों को ही होती है। मगर इस कोरोना-काल में कुछ लोगों ने वास्तव में आवदा में अवसर ढूँढ लिया तथा मरते, तड़पते लोगों की बेबसी का लाभ उठाते हुए जमकर कमायी की। मास्क से लेकर दवा, इंजेक्शन से लेकर ऑक्सीजन सिलेंडर तक के कई-कई गुना दाम जमकर वसूले गये। दो रुपये का मास्क 20 से 25 रुपये में बेचा गया, 2,000 से 2,500 का रेमडेसिवीर इंजेक्शन 20,000 से लेकर 50,000 रुपये तक का बिका। उसमें भी मिलावट करने वालों ने पैरासिटामोल का घोल भरकर बेचा। 500 रुपये वाला ऑक्सीजन सिलेंडर 10,000 से लेकर 30,000 रुपये तक में चोरी-छिपे बेचा गया। कोरोना-काल में ही एक अन्य दृश्य देखने को मिला कि लोग कोरोना से मरे अपने ही घर के सदस्य के शव को हाथ लगाने तक से बचते दिखे।

आपदा के इसी दृश्य को देखते हुए सुखांत फ्यूनरल मैनेजमेंट नाम की कम्पनी ने आपदा में अवसर की तलाश की। बीते नवंबर में कम्पनी ने दावा किया कि वह 50 लाख रुपये का लाभ कमा चुकी है तथा आने वाले समय में 2,000 करोड़ रुपये का लाभ उसे होगा। सुखांत फ्यूनरल मैनेजमेंट नाम की यह कम्पनी नवंबर महीने के समाप्त होने से पहले ही 5,000 अन्तिम संस्कार करा चुकी थी। एक अन्तिम संस्कार के लिए कम्पनी का शुल्क 37,000 रुपये है। जबकि एक मुर्दे के अन्तिम संस्कार में 8,000 से 10,000 रुपये तक का व्यय होता है।

हमारी संस्कृति और समाज के संस्कार हैं कि कोई भी कार्य मिलजुलकर किया जाता है। मगर जैसे-जैसे बाज़ारवाद हावी होता जा रहा है, अपने ही अपनों से दूरी बनाते जा रहे हैं। इसकी वजह बाज़ारवाद के इस समय में हर वस्तु का मूल्य केवल पैसे से है। इसी बाज़ारवाद ने हर किसी को स्वार्थी और लालची बना दिया है, जिसके चलते अब बिना स्वार्थ के अपने भी साथ नहीं देते। बुढ़ापे में या पैसा पास न होने पर तो अपने भी साथ छोडऩे में समय नहीं लगाते। आजकल तो विदेशों में रहने वाले अनेक लोग अपने बड़े माता-पिता को लौटकर भी नहीं देखते। इसी माहौल को देखते हुए सुखांत फ्यूनरल मैनेजमेंट कम्पनी ने अन्तिम संस्कार का काम शुरू किया। यह कम्पनी किसी के मरने पर उसके घर वालों या रिश्तेदारों द्वारा बुलाने पर अन्तिम संस्कार का पूरी व्यवस्था करती है। इसके लिए वह शव को कांधा देने वाले चार लोग, क़फ़न, फूल, अरथी, लकड़ी और अन्य सामग्री की व्यवस्था कम्पनी ही करती है। अर्थात् अब अगर कोई किसी अपने का अन्तिम संस्कार करना नहीं चाहता या दूर है, तो वो इस कम्पनी को किसी की मृत्यु पर 37,000 रुपये में उसका अन्तिम संस्कार का ठेका देकर छुटकारा पा सकता है।

भारत में इस पाश्चात्य संस्कृति से टूटते परिवारों में और दरार आएगी। हमारी संस्कृति मिलजुलकर रहने और सुख-दु:ख में एक-दूसरे के काम आने की है। मगर किसी कम्पनी द्वारा किराये के अन्तिम संस्कार करने वालों को बुलाने की यह परम्परा टूटते-बिखरते रिश्तो के बीच आग में घी का काम करेगी, जिससे एक-दूसरे के प्रति प्रेम और त्याग की भावना समाप्त होगी। धीरे-धीरे सुखांत फ्यूनरल मैनेजमेंट कम्पनी की तरह देश में अन्तिम संस्कार भी एक पेशेवर काम होता जाएगा और दर्ज़नों कम्पनियाँ इसी तरह खुलेंगी। हो सकता है कि हर धर्म के लोगों के अन्तिम संस्कार के लिए इस तरह की कम्पनियाँ खुलने लगें, जिससे पारिवारिक रिश्तों में अन्तिम संस्कार तक अपने फ़र्ज़ निभाने का ट्रेंड ख़त्म होने लगे। इस देश के धर्माचार्यों, विचारकों, बुद्धिजीवियों को इस तरह की परम्परा पर ध्यान देकर समाज में बढ़ रहे विखंडन को एकता तथा सामंजस्य का पाठ पढ़ाना होगा, अन्यथा ऐसी परम्पराओं से समाज टूटने लगेगा। कम्पनी से अपने ही लोगों का अन्तिम संस्कार कराने वालों को भी सोचना होगा कि क्या यह उचित है? ऐसे लोगों को कोरोना-काल के उन दृश्यों को नहीं भूलना चाहिए, जब मानवतावादी लोग दूसरे धर्म के कोरोना से मरे लोगों का अन्तिम संस्कार भी मरे हुए व्यक्ति के धर्म के अनुरूप अपनत्व की उसी भावना से कर रहे थे, जिस भावना से कोई अपना करता है।