उदास है चिनार

मोदी की अमेरिका यात्रा में भी झलकी तालिबान को लेकर कश्मीर की चिन्ता

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर को लेकर भारत की चिन्ता इस बात से समझी जा सकती है कि क्वाड बैठक के लिए अमेरिका गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडन के साथ बैठक से लेकर यूएनजीए के सम्बोधन तक हर मंच पर आतंकवाद का ज़िक्र किया। वैश्विक पटल पर भारत अमेरिका और अन्य देशों से अपनी, विशेष तौर पर कश्मीर की सुरक्षा को लेकर कितना सहयोग हासिल कर पाएगा, यह भविष्य की बात है। लेकिन इतना ज़रूर है कि पाकिस्तान और आतंकियों को तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल देश के ख़िलाफ़ करने की इजाज़त न देने की भारत पूरी कोशिश कर रहा है। पूरे मामले पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

कश्मीर में यह सुनहरी पतझड़ का मौसम है। चिनार के सुनहरे पत्ते इस मौसम में धरती को अपनी ख़ूबसूरती से ऐसा रंग दे देते हैं, मानों हम स्वर्ग पर उतर आये हों। लेकिन इस ख़ूबसूरती के बीच कश्मीर के लोग एक अनजाने भय से भरे हैं। तुर्की और अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर क़ाबिज़ हुए तालिबान और अलक़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के कश्मीर को लेकर भडक़ाऊ बयानों से यह चिन्ता और गहरी हुई है। इसी चिन्ता के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की यात्रा हुई है। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन समेत अन्य राष्ट्राध्यक्षों के सामने आतंकवाद को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश किया। मोदी की पिछले सात साल में अमेरिका की यह सातवीं यात्रा थी और इसका एक बड़ा मक़सद अमेरिका के नये प्रशासन, ख़ासकर राष्ट्रपति जो बाइडन से पहली मुलाक़ात भी थी। हालाँकि भारत की बड़ी चिन्ता कश्मीर को लेकर है; ख़ासकर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी शासन आने के बाद। भारत उन देशों का मज़बूत समूह बनाना चाहता है, जो आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक साझा मंच चाहते हैं। अमेरिका की यात्रा शुरू होने से कुछ घंटे पहले ही जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवाद पर बयान जारी किया, उससे साफ़ था कि भारत फ़िलहाल तालिबान को मान्यता पर कोई विचार नहीं कर रहा। दोहा (क़तर) में तालिबान के प्रतिनिधियों से एक महीने पहले भारत के राजदूत की बैठक के बावजूद भारत तालिबान के प्रति सख़्त रूख़ बनाये रखे हुए है। इसकी सबसे बड़ी एक वजह कश्मीर भी है; जिसे लेकर तालिबान, ख़ासकर सत्ता में उसका सहयोगी आतंकवादी संगठन अलक़ायदा ज़हर उगल रहा है।

अमेरिका को लेकर हमेशा यह कहा जाता है कि वह किसी भी देश की मदद से पहले अपने हित देखता है। ऐसे में कश्मीर में आतंकवाद बढऩे के ख़तरे को लेकर यह कहना मुश्किल है कि अमेरिका का नया प्रसाशन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के इस ख़तरे में कश्मीर को लेकर भारत के साथ कितनी मज़बूती से खड़ा होगा? इसका एक कारण राष्ट्रपति जो बाइडन और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस का कश्मीर में मानवाधिकार के मुद्दों पर मुखर होकर बोलना है। दूसरे प्रधानमंत्री मोदी की पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मित्रता होने के बावजूद कश्मीर और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मसले पर ट्रंप कभी खुलकर भारत के पक्ष में खड़े नहीं दिखे। इसका बड़ा कारण यह है कि दक्षिण एशिया में अमेरिका पाकिस्तान को एक सहयोगी के रूप में साथ रखना चाहता है।

अनुच्छेद-370 के तहत जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्महोने के बाद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विरोध-प्रदर्शन हुए हैं। वहाँ कश्मीर के मानवाधिकार हनन को लेकर पहले ही कुछ गुट प्रदर्शन करते रहे हैं। हालाँकि भारत ने बार-बार यह कहा है कि कश्मीर भारत का आंतरिक मसला है और इसमें किसी को दख़्ल का कोई अधिकार नहीं। पाकिस्तान में फलने-फूलने वाले आतंकवादी समूह और अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और उसके सहयोगी आतंकवादी संगठनों के सत्ता में आने के बाद कश्मीर की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा है। भारत की एक बड़ी चिन्ता चीन का तालिबान के प्रति नरम रूख़ है। पाकिस्तान तो पहले ही तालिबान और आतंकी समूहों को पालता-पोसता रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से एक बात तो साफ़ हुई है कि प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिका के नये प्रशासन के साथ ट्रंप के समय वाली स्थिति बहाल करने में अभी समय लगेगा। नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका के अख़बारों ने मोदी की यात्रा को बहुत ज़्यादा तरजीह नहीं दी, भले ही वहाँ रह रहे कुछ भारतवंशी मोदी की यात्रा से उत्साहित दिखे। उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ बातचीत में भी मोदी ने अन्य विषयों के अलावा आतंकवाद पर भी चर्चा की। आतंकवाद के वैश्विक विषय होने के बावजूद दुर्भाग्य से मोदी-हैरिस की बैठक को ज़्यादा कवरेज नहीं मिली। यहाँ तक कि ख़ुद हैरिस ने मोदी की बैठक का अपने ट्वीट में ज़िक्र नहीं किया।

इससे पहले भारत को तब झटका लगा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्वाड वाशिंगटन पहुँचने से ऐन पहले अमेरिका ने भारत को ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ हुए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ऑकस रक्षा समझौते में जोडऩे से साफ़ मना कर दिया। वैश्विक कूटनीति के स्तर पर यह भारत के लिए बड़ा झटका था। यह इसलिए भी बहुत आश्चर्यजनक था क्योंकि उस समय मोदी अमेरिका जा रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के साथ त्रिपक्षीय सुरक्षा गठबन्धन ऑकस की 15 सितंबर को घोषणा की थी। विशेषज्ञ मानते हैं कि ऑकस के गठन से क्वाड का महत्त्व कम हुआ है।

चीन से साथ भारत के तनाव और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने और कश्मीर में उसकी तरफ़ से ख़ून-ख़ूराबे की आशंका के बीच भारत का ऑकस से बाहर रहना बड़ा नुक़सान तो है ही। हालाँकि विदेश सचिव हर्षवर्धन शृंगला ने ऑकस से भारत को बाहर रखने पर कहा कि अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया का नया सुरक्षा समझौता न तो क्वाड से सम्बन्धित है और न ही समझौते के कारण इसके कामकाज पर कोई प्रभाव पड़ेगा। बता दें ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका तीन देशों के बीच एक सुरक्षा गठबन्धन है, जबकि क्वाड एक मुक्त, खुले, पारदर्शी और समावेशी हिन्द प्रशांत के दृष्टिकोण के साथ एक बहुपक्षीय समूह है।

बता दें ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु-संचालित पनडुब्बियों का एक बेड़ा अर्थात् परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियाँ बनाने की तकनीक मिलेगी। इसके पीछे एक कारण चीन का पिछले कुछ अरसे से दक्षिण चीन सागर में सक्रियता बढ़ाना है। ऑस्ट्रेलिया इसे अपने लिए ख़तरा मानता है। अब ऑकस को वैश्विक कूटनीति के लिहाज़ से दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती आक्रामता का मुक़ाबला करने के एक कारगर गठबन्धन के रूप में देखा जा रहा है। यदि भारत इससे जुड़ता, तो यह उसके लिए लाभकारी साबित होता। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत आतंकवाद से अपने स्तर पर निपटने में सक्षम है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज़ से ऑकस में भारत को साथ न रखने के अमेरिका के फ़ैसले से भारत के प्रति अमेरिकी रूख़ का पता तो चलता ही है।

चिन्ता के कारण

 

विशेषज्ञ अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने और कश्मीर पर उसके असर को लेकर अलग-अलग राय रखते हैं। कुछ का कहना कि तालिबान कश्मीर में हस्तक्षेप नहीं करेगा; क्योंकि इस बार तालिबान का रूख़ थोड़ा बदला हुआ है। हालाँकि अन्य का मानना है कि तालिबानी सरकार में इस बार ताक़त को लेकर संघर्ष है। इसका असर यह होगा कि अलक़ायदा जैसे उसके गुट ख़ुराफ़ात कर सकते हैं।

अलक़ायदा के नेता तो कई बार कश्मीर को लेकर भडक़ाऊ बयान दे चुके हैं। लेकिन विशेषज्ञ यह मानते हैं कि पाकिस्तान कश्मीर में छद्म युद्ध जारी रखेगा। कश्मीर में सक्रिय जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन हक़्क़ानी नेटवर्क के नज़दीकी हैं, जो पाकिस्तान की ख़ुराक से अब तालिबान सरकार में शामिल हैं। लिहाज़ा कश्मीर में स्थिति ख़राब करने के बड़े ख़तरे तो हैं ही।

भले कुछ विशेषज्ञ मानते हों कि तालिबान पिछली बार के मुक़ाबले इस बार कुछ बदला हुआ दिखता है। लेकिन जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी इसे ग़लत मानते हैं। चेलानी कहते हैं- ‘संयुक्त राष्ट्र ने जिसे आतंकवादियों की सूची में शामिल किया है, जिसने बुद्ध की मूर्ति तुड़वायी, वो अफ़ग़ानिस्तान का प्रधानमंत्री है। जिस सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को गृह मंत्री बनाया गया है। वो कुख्यात हक़्क़ानी नेटवर्क का है और हम कह रहे हैं कि तालिबान अब पहले वाला नहीं है।’

उधर सेना की चिनार कोर के जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल डी.पी. पांडे ने कहा- ‘अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान की हुकूमत का कश्मीर पर कोई असर नहीं होगा। कश्मीर में सुरक्षा की स्थिति पूरे नियंत्रण में है। लिहाज़ा चिन्ता की कोई बात नहीं है। सेना हर किसी से हर तरह की स्थिति से निपटने के लिए तैयार है।’

आरएसएस नेता राम माधव ने हाल में चेताया था कि तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में आने से भारत के सामने गम्भीर सुरक्षा चुनौतियाँ आ खड़ी हुई हैं। उनके मुताबिक, पाकिस्तान की कुख्यात एजेंसी आईएसआई तालिबान की माई-बाप है और उसके पास पाकिस्तान में प्रशिक्षित 30,000 से अधिक भाड़े के आतंकी हैं। माधव कहते हैं- ‘काबुल की सत्ता में मौज़ूद तालिबान का नेतृत्व अब उन्हें अपने संरक्षक पाक की मदद से कहीं और (कश्मीर में) तैनात करेगा। भारत को गम्भीर सुरक्षा चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा। तालिबान भारत के लिए ख़तरा है।’

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्महोने के बाद वहाँ राज्य के दो केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में टुकड़े किये गये थे। जम्मू-कश्मीर और लेह। लिहाज़ा इन महीनों में जम्मू-कश्मीर बिना किसी जन प्रतिनिधित्व के हैं, जिससे लोगों की दिक़्क़ते बढ़ी हैं। अफ़सरशाही उनकी समस्यायों का घर-द्वार पर वैसा समाधान नहीं कर सकती, जैसा जनप्रतिनिधि कर सकते हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, मोदी सरकार अगले साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव करवा सकती है। हालाँकि यह उस समय वहाँ की स्थिति पर निर्भर करेगा। वहाँ परिसीमन का काम अभी चल रहा है और इसके अगले साल की शुरुआत तक पूरा हो जाने की सम्भावना है। परिसीमन को लेकर भी कश्मीर के राजनीतिक दल सवाल उठा रहे हैं और उनका आरोप है कि इसके ज़रिये जम्मू-कश्मीर की वास्तविक जनसांख्यिकीय स्थिति को बदलने की कोशिश की जा रही है। प्रदेश भाजपा भी उम्मीद कर रही है कि अगले साल चुनाव हो सकते हैं। ‘तहलका’ से फोन पर बातचीत में जम्मू-कश्मीर भाजपा अध्यक्ष रवींद्र रैना ने कहा- ‘केंद्र शासित प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने की सम्भावना है। यह काम परिसीमन का काम पूरा होने के बाद ही कराये जाएँगे। आतंकवाद के समर्थक इस केंद्र शासित प्रदेश के लोगों के दुश्मन हैं और उनके साथ क़ानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी।’

केंद्र सरकार के दावों के विपरीत कश्मीर में आतंकी गतिविधियाँ बदस्तूर जारी हैं। वहाँ सेना की बड़ी मात्रा में उपस्थिति है और आतंकियों का काम इससे कठिन हुआ है। लेकिन इसके बावजूद सीमा पार से घुसपैठ करवायी जा रही है। सितंबर के तीसरे हफ़्ते कश्मीर में पकड़े गये हथियार ज़ाहिर करते हैं कि आतंकियों पर पूरी लगाम कसने में अभी वक़्त लगेगा। भारत के लिए बड़ी चिन्ता की बात यह है कि आतंकियों ने अपनी रणनीति में बदलाव करके अब स्थानीय युवाओं पर फोकस किया है और उन्हें आतंकी संगठनों में भर्ती किया जा रहा है।

समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय संगठन यह मान चुके हैं कि कई आतंकी गुटों की पाकिस्तान से दोस्ती है और वह उनकी मदद करता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीरी अवाम में कभी भी अलक़ायदा और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों के प्रति सहानुभूति नहीं रही है। लेकिन कश्मीर की अवाम में इस बात को लेकर चिन्ता ज़रूर है कि यह आतंकी संगठन यदि अपनी गतिविधियाँ बढ़ाते हैं, तो इसकी सबसे बड़ी क़ीमत उन्हें ही चुकानी पड़ेगी। निश्चित ही कश्मीर में आतंकवाद के इन वर्षों में कश्मीरी जनता ने बहुत कुछ खोया है।

कश्मीर में आतंकवाद में अब तक जान गँवाने वाले लोगों में 90 फ़ीसदी से ज़्यादा कश्मीरी मुसलमान हैं। उनके अलावा सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान, कश्मीरी पंडित और सिख हैं। ऐसे में उन्हें लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर में अस्थिरता की स्थिति बन सकती है। कश्मीर में भले अनुच्छेद-370 वापस लेकर राज्य का विशेष दर्जा ख़त्मकरने के मोदी सरकार के फ़ैसले से सख़्त नाराज़गी है; लेकिन कश्मीर की जनता तालिबान के प्रति भी सख़्त नफ़रत का भाव रखती है। इसका एक बड़ा कारण 20 साल पहले अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज के दौरान कश्मीरियों पर पड़ी मुसीबतें हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान कश्मीर के अलगाववादी हुर्रियत नेता सईद अली शाह गिलानी के बाद वहाँ इस जगह को भरने के लिए अपने किसी प्यादे को बिठाने की कोशिश कर रहा है। दरअसल गिलानी के नज़दीकी कुछ नेता जेल में हैं, जिनमें मसर्रत आलम और गिलानी का दामाद अल्ताफ़ शाह फंटूश प्रमुख हैं; जबकि एक और नेता अशरफ़ सहराई की जेल में मौत हो गयी थी। इन तीनों को गिलानी का उत्तराधिकारी माना जाता रहा है। हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के नेता मीरवाइज उमर फ़ारूक़ सक्रिय नहीं दिख रहे हैं, जबकि जेकेएलएफ के नेता यासीन मालिक कुछ मामलों में सरकार के निशाने पर हैं। जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान अब पीओके में हुर्रियत के नेता अब्दुल्ला गिलानी को आगे करने की साज़िश रच रहा है।

जानकारों का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद कश्मीर में विदेशी आतंकियों की तादाद में इज़ाफ़ा हुआ है। एक दशक बाद जम्‍मू-कश्‍मीर में पहली बार विदेशी आतंकवादियों की संख्या में यह इज़ाफ़ा देखा गया है। कुछ रिपोट्र्स में यह दावा किया गया है। तालिबान की जीत के बाद यहाँ पहले से सक्रिय आतंकी संगठनों को ताक़त मिली है। जानकार मानते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से जम्मू-कश्मीर निश्चित ही एक संवेदनशील इलाक़ा हो गया है। तालिबान के आने न कश्मीर ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया पर असर पड़ेगा।

रिर्पोटस के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों के ख़िलाफ़ कुछ ऐसे आतंकवादी संगठनों ने तालिबान की मदद की है, जिनके तार सीधे जम्‍मू-कश्‍मीर से जुड़ते हैं। लश्‍कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्‍मद जैसे आतंकवादी संगठनों ने तालिबान की मदद की है। ज़ाहिर है इस सहयोग के बदले यह आतंकी संगठन तालिबान से मदद की उम्मीद करते होंगे। साफ़ है कि जम्मू-कश्मीर पर तालिबान का बड़ा रोल हो सकता है। भले तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के समक्ष कहा है कि वह अपनी धरती का उपयोग अन्‍य देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा, ज़मानी हक़ीक़त समय में ही पता चलेगी।

भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी भी आशंका ज़ाहिर करते हैं। स्वामी का कहना है- ‘अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भारत के लिए एक नया ख़तरा पैदा हो गया है। अब सरकार के गम्भीर होने का समय है। पाकिस्तान जल्द ही तालिबानीकृत अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा बन जाएगा।’

पाकिस्तान की हाय-तौबा