उत्थान का जातिवादी वर्तमान

किंतु दोनों पार्टियों के नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने इस संभावना को चकनाचूर कर दिया. 1995 में अपने गठबंधन की सरकार को गिराकर बीएसपी ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जैसी ब्राह्मणवादी पार्टी से समझौता कर डाला जिसकी वजह से मायावती तीन बार क्रमश: चार, छ: तथा 14 माह तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहीं. बाकी सात साल बीजेपी का शासन रहा. इस तरह पहली बार दलित आंदोलन अपने सबसे बड़े दुश्मन यानी संघ परिवार का शिकार हो गया.

2007 के आते-आते दलित आंदोलन का सदियों पुराना ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान ब्राह्मण सहयोग में बदल गया. विशेष रूप से मायावती ने डॉ. अंबेडकर की एक उक्ति को गलत संदर्भों में बड़े पैमाने पर उद्धृत करना शुरू कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता हर ताले की मास्टर चाभी होती है. अत: जातिव्यवस्था विरोधी संपूर्ण ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि को लात मार कर मायावती ने ब्राह्मणों को अपनी तरफ खींचना शुरू कर दिया. ब्राह्मणों के साथ अन्य सवर्ण जातियों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने इस कड़ी में अलग-अलग जातियों के सम्मेलन आयोजित करवाने के साथ-साथ आर्थिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण का वादा करना शुरू कर दिया. परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में बड़े पैमाने पर जातीय चेतना का विकास होने लगा. दलित-आरक्षण की अवधारणा हिंदू धर्म की शिकार जातियों के शोषण पर विकसित हुई थी. इसे मायावती ने चकनाचूर कर दिया.

यह बात सही है कि गरीब सभी जातियों में पाए जाते हैं. किंतु ऐसे सवर्ण-गरीब कभी दलितों की श्रेणी में नहीं लाए जा सकते. उनकी गरीबी एक विशुद्ध गरीबी उन्मूलन योजना के तहत दूर करने का प्रयास होना चाहिए, न कि दलितों की तरह आरक्षण से. इस तरह आरक्षण जिसका सीधा संबंध सामाजिक न्याय से है, उसे तोड़-मरोड़कर मायावती ने सत्ता की राजनीति में बदल दिया. इस दार्शनिक तोड़-मरोड़ के चलते धीरे-धीरे पार्टियां सत्ताच्युत्त हो रही हैं और जातियां सत्ता में आने लगी हैं. परिणामस्वरूप भारत की जनतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली विशुद्ध जातीय प्रणाली में बदलती जा रही है. इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध के प्रसिद्ध नारे ‘सर्व जन हिताय’ का नारा देकर दलित मुक्ति की दिशा को उल्टा खड़ा कर दिया गया है. फलत: बुद्ध से लेकर अंबेडकर तक का जो दलित आंदोलन जाति व्यवस्था-विरोधी था, उसने अब जातिवादी स्वरूप हासिल कर लिया है. इसके चलते जातीय सत्ता की होड़ मच गई है. इसका एक खतरनाक पहलू यह है कि चूंकि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की देन है इसलिए जब जाति की अवधारणा मजबूत होती है तो उससे जाति व्यवस्था मजबूत होती है तो हिंदू धर्म मजबूत होता है, अर्थात् हिंदुत्ववादी पार्टियां मजबूत होती हैं. यह क्रमिक विकास इस समय भारत की राजनीति में धीरे-धीरे छाने लगा है.

जाहिर है, जब दलित खुद ही जातीय चेतना भड़काने लगें तो हिंदुत्ववादी चेतना कैसे रुक सकती है? अत: प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में बीएसपी की नीतियों के चलते संघ परिवार का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित हिंदुत्ववादी फासीवाद धीरे-धीरे सामाजिक तौर पर विकसित होने लगा है. भविष्य में हिंदुत्ववादी यदि सत्ता में पुन: आएंगे, तो अब तक का सारा सामाजिक आंदोलन हमेशा के लिए नेस्तनाबूद हो जाएगा. संयोगवश समय रहते यदि चेता नहीं गया, तो ऐसा संभव हो सकता है. इस संदर्भ में दलित विमर्श निश्चित रूप से एक घोर अंधकारमय दौर से गुजर रहा है.’

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