आख़िरकार जागी कांग्रेस, लम्बे समय से ठंडी पड़ी पार्टी के नेता दिखने लगे सड़कों पर

कांग्रेस फिर सड़क पर दिखने लगी है। आठ साल से केंद्रीय सत्ता से बाहर कांग्रेस को लग रहा है कि अब आर-पार की लड़ाई लड़े बिना काम नहीं चलेगा। उदयपुर के चिन्तन शिविर में उसने सड़क पर आने का संकल्प किया था और अब वह उस पर अमल करती दिख रही है। हाल के एक महीने में महँगाई, बेरोज़गारी और अन्य मुद्दों पर कांग्रेस लगातार सड़क पर दिख रही है। इस दौरान प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गाँधी और फिर सोनिया गाँधी को जब कई-कई बार तलब किया, तो कांग्रेस ने इसे सहानुभूति में बदलने के लिए सड़कों पर आकर नारेबाज़ी की। अब जबकि भाजपा समर्थित सोशल मीडिया में चर्चा है कि राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी को ईडी गिरफ़्तार कर सकती है, कांग्रेस का पूरा कुनबा गाँधी परिवार के साथ खड़ा दिखने लगा है।

लेकिन यहाँ एक बड़ा सवाल है कि राहुल और सोनिया गाँधी को ईडी के दफ्तरों के चक्कर लगवाकर क्या भाजपा कांग्रेस को एकजुट नहीं कर रही? यदि कहीं इन दोनों में से किसी को गिरफ़्तार कर लिया जाता है, तो निश्चित की कांग्रेस को एक बहुत बड़ा मुद्दा मिल जाएगा। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार ने सन् 1979 में कुछ ऐसा ही इंदिरा गाँधी के साथ किया था। तब एक साल बाद ही मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गाँधी सहयोगी दलों से मिलकर 373 सीटों के जबरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में लौट आयी थीं।

बिहार में जिस तरह सत्ता परिवर्तन हुआ है और नीतीश कुमार भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए से अलग हुए हैं, उससे कांग्रेस को निश्चित ही बिहार की राजनीतिक तस्वीर में आने का अवसर मिला है, भले ही उसके कम मंत्री बने हों। राष्ट्रीय राजनीतिक फ़लक पर भी कांग्रेस को इसका लाभ मिलेगा, क्योंकि नीतीश की पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेगी। यह माना जाता है कि नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होने से पहले सोनिया गाँधी से बात की थी, जिसमें उन्होंने कांग्रेस नेता से कहा था कि आपका साथ हमारे लिए ज़रूरी है; क्योंकि उनकी पार्टी यानी जद(यू) यह मानती है कि कांग्रेस के बिना भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। निश्चित ही जद(यू) का कांग्रेस के साथ आना उसके लिए सुखद ही होगा, भले ख़ुद नीतीश कुमार को भविष्य में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना जाता है। कांग्रेस को लगता है कि यदि बड़े दल भाजपा से दूर जाना शुरू करते हैं, तो देश की राजनीति में यह एक सुखद संकेत होगा।
कांग्रेस लगातार चुनाव हारने से चिन्तित है। लिहाज़ा अब सड़कों पर दिखने लगी है। यह पहली बार दिख रहा है कि चिन्तन शिविर में उसने जो फ़ैसले किये थे, उन पर वह अमल कर रही है। नहीं तो सत्ता में रहते हुए इस तरह के शिविरों पर हुए फ़ैसलों पर वह कम ही अमल करती रही थी। यहाँ तक की सन् 2014 में सत्ता बे बाहर होने के बाद जब कांग्रेस ने कई विधानसभा चुनाव हारे और उनको लेकर सीडब्ल्यूसी और अन्य बैठकों में जो फ़ैसले हुए, वह काग़ज़ी ही साबित हुए।

विपक्ष के जो दल कांग्रेस का साथ देते रहे हैं, वह भी कांग्रेस की निष्क्रियता से नाराज़ रहे हैं। उनका कहना था कि क्योंकि कांग्रेस का देशव्यापी आधार है, उसे मुद्दों को लेकर आगे आना चाहिए। लेकिन देश में सन् 2019 में दोबारा भाजपा की सरकार बनने के बाद जब काफ़ी बड़े मुद्दे सामने आये, तब भी कांग्रेस ने कोई देशव्यापी आन्दोलन शुरू नहीं किया। देश भर के सभी राज्यों में उसका थोड़ा बहुत ही सही, पर आधार है। राहुल गाँधी ने निश्चित ही देश से जुड़े गम्भीर मुद्दों को बार-बार उठाया है। लेकिन यदि राहुल गाँधी जनता के बीच जाकर आन्दोलन करते, तो आज नतीजा कुछ और ही होता।
देश में इस दौरान कांग्रेस के लिए ऐसे बड़े मुद्दे थे, जो सीधे जनता से जुड़े थे। महँगाई, बेरोज़गारी और सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का विरोध ख़ुद राहुल गाँधी के प्रिय विषय रहे हैं। वह कोई सामजिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि देश की सबसे पुरानी और अब दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं। उन्हें कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा होने के कारण जनता के बीच जाना चाहिए था। लेकिन महत्त्वपूर्ण मुद्दे सोशल मीडिया में ताक़त से उठाने के बावजूद जनता के बीच न जाकर राहुल गाँधी ने एक बेहतर अवसर गँवा दिया।

अध्यक्ष चुनने की चुनौती
कांग्रेस के सामने अब अध्यक्ष चुनने की बड़ी चुनौती है। अगस्त के दूसरे पखवाड़े जब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू होगी, विपक्ष ही नहीं भाजपा की भी उस पर नज़र रहेगी। राहुल गाँधी के समर्थन में पार्टी का एक बड़ा वर्ग है; लेकिन वो ख़ामोश बैठे हैं। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता कहते हैं कि सोनिया गाँधी को पार्टी का फिर अध्यक्ष बन जाना चाहिए। पार्टी का ही एक वर्ग कहता है कि प्रियंका गाँधी को बाग़डोर सौंप देनी चाहिए।