आक्रमण

रूस के यूक्रेन पर हमले से विश्व के शान्तिप्रिय देश नाराज़

युद्ध कभी मानवता का भला नहीं करते। रूस के यूक्रेन पर आक्रमण को कोई भी मानवतावादी गले से नहीं उतार सकता; क्योंकि इसमें हज़ारों बेक़ुसूर जानें चली जाती हैं। इस युद्ध से भविष्य में दुनिया में उभरने वाले शक्ति केंद्रों में बदलाव सम्भव है। निश्चित ही रूस ने ख़ून-ख़राबे के ज़रिये ख़ुद को विश्व शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित करने का तरीक़ा अपनाया है। लेकिन इसमें अमेरिका जैसी महाशक्ति की नाकामी को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कोशिश होती, तो शायद युद्ध रोका भी जा सकता था। लेकिन अमेरिका जैसा ही बेलगाम रास्ता रूस ने भी अपनाया और मनमानी की। युद्ध से पैदा होने वाले हालात पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

अमेरिका ने एक बार फिर दग़ाबाज़ी की, और उसके इशारों पर नाचने वाले नाटो ने भी। यूक्रेन अकेला खड़ा रह गया। वैसे नाटो का सदस्य नहीं होने के कारण यूक्रेन की सैन्य मदद नाटो नहीं कर सकता था; लेकिन उसने यूक्रेन को अकेला ही छोड़ दिया। रूस के आक्रमण से पहले तक अमेरिका और नाटो पर आँख मूँदकर भरोसा कर रहे यूक्रेन को अपना सब कुछ गँवाकर आख़िर रूस से ही बात करनी पड़ी। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को कहना पड़ा कि सब डरते हैं और उन्हें अकेला छोड़ दिया गया है। रूस के अपने देश पर बरस रहे बमों के बीच जेलेंस्की ने अमेरिका और नाटो पर सख़्त नाराज़गी ज़ाहिर की। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोल्डीमिर जेलेंस्की भी तनाव को पढऩे में नाकाम रहे। युद्ध को सही नहीं ठहराया जा सकता हैं। लेकिन यूक्रेन से युद्ध के बहाने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दुनिया में नये विश्व शक्ति केंद्र के रूप में उभरे हैं। संकेत हैं कि इस युद्ध ने एक नयी विश्व व्यवस्था (न्यू वल्र्ड आर्डर) का रास्ता खोल दिया है। हालात बताते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन इस जंग में रूस के अपने समकक्ष पुतिन के मुक़ाबले हल्के साबित हुए हैं; क्योंकि वह यूक्रेन की बर्बादी बचाने के लिए बातचीत के ज़रिये दबाव का रास्ता भी नहीं बना पाये। इस हमले और उससे उपजे हालात ने बताया है कि सोवियत संघ के बाद आज का रूस दुनिया में नये शक्ति केंद्र के रूप में उभरा है और चीन  से उसका गठजोड़ आने वाले वर्षों में अमेरिका से किसी भी टकराव की सूरत में विश्व में बड़े तनाव का कारण बन सकता है।

सभी यूरोपीय देशों की ऊर्जा के लिए जैसी निर्भरता रूस पर है, वह भी अमेरिका के चुप बैठे रहने की बड़ी बजह रही। इस युद्ध से जो दूसरी बड़ी चीज़ सामने आयी है, वह है- रूस-चीन गठजोड़ का उदय। दुनिया में यह गठजोड़ नये शक्ति केंद्र (सुपर पॉवर्स) के रूप में उभरा है। चीन ने भले सैन्य रूप से यूक्रेन युद्ध में रूस के साथ मिलकर शिरकत नहीं की, भविष्य के युद्धों या ट्रेड में दोनों का साथ जाना अब बहुत बड़े पैमाने पर हो सकता है। यह स्थिति निश्चित ही अमेरिका जैसी महाशक्ति के लिए बड़ी चुनौती होगी और अब वह शायद ही उस स्तर मनमर्ज़ी कर पाये। कहते हैं कि व्लादिमीर पुतिन तत्कालीन सोवियत संघ की टूट से हमेशा नाख़ुश रहे; क्योंकि अमेरिका की भी इसमें भूमिका थी। तो क्या यूक्रेन में शक्ति दिखाकर पुतिन अपने भीतर दबी सोवियत संघ के फिर एक होने की अपनी इच्छा की पूर्ति की तरफ़ बढ़ रहे हैं?

यूरोप की इस जंग में रूस सिर्फ़ अपने क्षेत्र में ही नहीं, वैश्विक स्तर पर अमेरिका के सामने एक अलग और ज़्यादा मज़बूत शक्ति केंद्र के रूप में उभरा है। चीन के इस मसले पर खुलकर उसके साथ आने से विश्व में नया और मज़बूत केंद्र बना है। रूस-चीन का यह गठजोड़ भविष्य में अमेरिका की शक्ति को ज़्यादा बड़ी चुनौती दे सकता है, जिससे किसे बड़े स्तर के युद्ध का रास्ता भी खुल सकता है। युद्ध से पहले अमेरिकी समर्थन वाला यूक्रेन इस जंग में अचानक अलग-थलग पड़ गया। नाटो सदस्य देश और अमेरिका सीधे तौर पर रूस से टकराने से डर गये और यूक्रेन युद्ध भूमि पर अकेला छोडक़र पीछे हट गये। बयानबाज़ी और कथित प्रतिबंधों की घोषणाओं के अलावा अमेरिका कुछ नहीं कर पाया। तो क्या अमेरिका या किसी भी देश को रूस से टकराना आसान नहीं? कम-से-कम इस युद्ध से तो यही संकेत गया है।

अमेरिका ने साफ़ कह दिया कि वह अपनी सेना यूक्रेन में नहीं भेजेगा। उसके इशारों पर नाचने वाले नाटो के भी हाथ खड़े दिखे। जबकि इससे पहले जब रूस यूक्रेन पर हमले की तैयारी में जुटा था और उसकी सीमाओं पर सैनिक तैनात कर रहा था। शुरू में अमेरिका के तेवर देखकर लगता था कि नाटो के सदस्य देश मिलकर रूस पर ही हमला कर देंगे। पुतिन ने अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन की धमकियों की परवाह नहीं और युद्ध के अंजाम की परवाह किये बगैर रूस ने यूक्रेन पर जबरदस्त हमला करके उसे तहस-नहश कर दिया। अमेरिका और नाटो सदस्य देश रूस से टकराने की हिम्मत नहीं दिखा पाये।

यूरोपीय देशों की जैसी निर्भरता रूस पर है, वह उससे न टकराने का सबसे बड़ा कारण है। कमोवेश सभी यूरोपीय देश ऊर्जा के लिए रूस पर काफ़ी हद तक निर्भर हैं। यूरोपीय संघ के नाटो सदस्य देश अपनी प्राकृतिक गैस आपूर्ति का 40 फ़ीसदी हिस्सा रूस से लेते हैं। यदि यूक्रेन के समर्थन के लिए अमेरिका सैन्य स्तर पर कार्रवाई करता, तो निश्चित ही रूस उनके लिए गैस और कच्चे तेल का निर्यात रोक देता। इससे यूरोप एक भीषण ऊर्जा संकट में फँस जाता। यहाँ यह ज़िक्र करना ज़रूरी है कि इन देशों को यहाँ पता है कि बिजली और पेट्रोलियम उत्पादों से भयंकर महँगाई का रास्ता खुल जाता। इसका नतीजा है कि यूरोपीय देश सीधे रूस से टकराने से किनारा कर गये। उन्होंने अपने हितों को प्राथमिकता दी और यूक्रेन को भगवान भरोसे छोड़ दिया।

अमेरिका की इस युद्ध में रूस को दबाव में लाने की कोशिश बचकाना साबित हुई हैं। अमेरिका और उसकी साथी देशों ने रूस पर जो प्रतिबंध लगाये उसका रूस पर कोई असर नहीं हुआ। रूस ने ख़ुद को इतना शक्तिशाली कर लिया है कि यह प्रतिबंध उसके लिए मायने ही नहीं रखते। हालात से ज़ाहिर होता है कि यूक्रेन से युद्ध से पहले रूस और पुतिन ने हर क्षेत्र में पूरी तरह तैयारी कर रखी थी। यह सब अचानक नहीं हुआ। रूस को पता था कि अमेरिका और नाटो सदस्य देश उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे, क्योंकि उनकी बहुत सारी मजबूरियाँ हैं।

अंतरराष्ट्रीय रिपोट्र्स से ज़ाहिर होता है कि इसी साल जनवरी में रूस का अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भण्डार 630 अरब डॉलर था। रूस इस भण्डार का सिर्फ़ 16 फ़ीसदी ही डॉलर के रूप में रखता है। चूँकि पाँच साल पहले यह 40 फ़ीसदी था, इससे ज़ाहिर होता है कि रूस ने ख़ुद को मज़बूत रखने के लिए पहले से अपनी रणनीति तैयार की। उधर चीन, जो एशिया के सबसे शक्तिशाली देशों में से एक है; ने रूस के साथ हाल के वर्षों में नज़दीकी बढ़ायी है। डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल से ही अमेरिका और चीन के रिश्ते ख़राब हो गये थे। जानकार यह भी कहते हैं कि चीन के भारत के साथ ख़राब रिश्ते की शुरुआत वास्तव में ट्रंप के समय से ही हुई; क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ट्रंप से निजी स्तर की मित्रता चीन को कभी रास नहीं आयी।

यहाँ तक कि भारत में कांग्रेस सहित विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी की इस मित्रता को देश के अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के लिए अलाभकारी बताते रहे हैं। मोदी ने ट्रंप के चुनाव अभियान के समय दो कार्यक्रमों हाउदी मोदी और नमस्ते ट्रंप में जब हिस्सेदारी की थी, तो देश में विदेशी मामलों के काफ़ी जानकारों ने इसे जोखिम भरा बताया था। वैसे भी यह पहला मौक़ा था, जब भारत के किसी प्रधानमंत्री ने ऐसे किसी देश के प्रमुख के लिए चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया। आज स्थिति यह है कि अमेरिका और चीन के रिश्ते अब तक के सबसे ख़राब दौर में हैं। यह माना जाता है कि यदि अमेरिका और नाटो ने रूस के ख़िलाफ़ सैन्य स्तर की कार्रवाई की होती, तो चीन भी उस युद्ध में कूद सकता था। और ऐसा टकराव निश्चित ही बड़े टकराव का रास्ता खोल सकता था।

रूस की ताक़त

यह माना जाता है कि रूस के पास घोषित-अघोषित ऐसे हथियार हैं, जो किसी भी देश के लिए घातक साबित हो सकते हैं। वैसे भी रूस परमाणु शक्ति से सम्पन्न है। उसके पास हथियारों का जो ज़ख़ीरा है। दुनिया उसके बारे में पूरी तरह जानती तक नहीं। दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक रूस के पास है। उसकी मिसाइल तकनीक (टेक्नोलॉजी) ऐसी है, जो किसी भी देश को पल भर में तवाह करने की क़ुव्वत रखती है।

पुतिन ने जब यह कहा था कि यूक्रेन मसले में किसी भी देश ने हस्तक्षेप की कोशिश की, तो उसे इतिहास का सबसे बुरा अंजाम झेलना पड़ेगा। उनके शब्दों से साफ़ ज़ाहिर होता था कि वह महज़ खोखली धमकी नहीं दे रहे हैं। अमेरिका और नाटो सदस्य देशों ने यदि पुतिन से टकराव मोल लेने से बचने के रास्ते को तरजीह दी, तो इसका यही कारण रहा है। उन्हें पता था कि इस टकराव की क़ीमत बड़ी और ख़तरनाक हो सकती है। रूस ने यूक्रेन पर हमले की कितने पहले तैयारी कर ली थी, यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि राष्‍ट्रपति व्‍लादिमीर पुतिन के यूक्रेन के ख़िलाफ़ जंग के ऐलान के साथ ही रूस ने यूक्रेन पर मिसाइलों, रॉकेट और लड़ाकू विमानों से हमला करना शुरू कर दिया। यदि अमेरिकी वैज्ञानिकों के दावों पर भरोसा किया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि रूस के परमाणु हथियारों के आधुनिक ज़ख़ीरे की संख्या 4,477 है। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि रूस के पास कुल 4,477 परमाणु बमों में 2,565 स्‍ट्रेटजिक और 1,912 नॉन स्‍ट्रेजिक हैं। रिपोर्ट से पता चलता है कि रूस लगातार अपनी परमाणु ताक़त और उसके आधारभूत ढाँचे का आधुनिकीकरण करता रहा है। रूस ने यूक्रेन सीमा पर ऐसे कई लॉन्‍चर पहले ही तैनात कर दिये थे, जिनकी मदद से परमाणु बम को गिराया जा सकता है। इनमें परमाणु बम लोड किये गये थे, इसकी कोई पुख़्ता जानकारी सामने नहीं आयी।

इस रिपोर्ट में अमेरिकी वैज्ञानिकों का दावा है कि रूस पिछले एक दशक से परमाणु हथियारों का आधुनिकीकरण कर रहा है। सोवियत संघ काल के परमाणु हथियारों की जगह नये हथियारों ने ले ली है। दिसंबर, 2021 में रूस के रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगू ने ख़ुद कहा था कि उनके देश के कुल परमाणु ज़खीरे में आधुनिक हथियारों और उपकरणों की संख्या 89.1 फ़ीसदी पहुँच गयी है। एक साल पहले 2020 तह यह 86 फ़ीसदी थी, जिससे वहाँ आधुनिकीकरण के काम की गति का सहज ही अंदाज़ा हो जाता है। राष्ट्रपति पुतिन ने भी कुछ महीने पहले कहा था कि रूस परमाणु सेना को अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले में आगे रखना चाहता है, ताकि किसी चीज़ में पिछड़े न।

देखा जाए, तो पुतिन ने समय-समय पर यह कहा है कि उन्हें यह बिल्कुल स्वीकार्य नहीं कि उनका देश अलग-थलग रहे। पुतिन आधुनिक काल में सशस्त्र बलों के लिए हर क्षेत्र में बदलाव के प्रबल समर्थक रहे हैं। पुतिन ने एक भाषण में कहा था- ‘यह फार्मूला वन की रेस नहीं, बल्कि सुपरसोनिक रफ़्तार से तेज़ है। आप एक सेकेंड थम जाते हैं, तो आप तत्काल दूसरे से पीछे छूट जाते हैं।’

पुत‍नि काफ़ी समय से रूस के आसपास वैश्विक मिसाइल डिफेंस सिस्‍टम तैनात किये जाने का विरोध कर रहे थे। पुतिन ने कहा था कि अमेरिका हवाई रक्षा उपकरण तैनात करने के नाम पर हमला करने में सक्षम हथियार तैनात कर रहा है, जिसके निशाने पर रूस है। यूक्रेन पर हमले को रूस ने अपने लिए इस ख़तरे को सबसे बड़ी बजह बताया है। हालाँकि रिपोर्ट लिखे जाने के वक़्त ख़बरें आने लगी थीं कि यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने युद्ध न करने की इच्छा जतायी और कहा कि वह शान्ति चाहते हैं।

जंग का असर

रूस के यूक्रेन पर हमले का व्यापक असर होगा। भविष्य में यदि यह युद्ध पश्चिम के हिस्सों तक फैलता है, तो इसका पूरी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था से लेकर अन्य क्षेत्रों में पर बड़ा असर होगा। सबसे बड़ा असर तेल और प्राकृतिक गैस की क़ीमतों पर होगा। युद्ध का तात्कालिक और वृहद् असर तेल और नेचुरल गैस की क़ीमतों पर पड़ेगा। यूरोप के ज़्यादातर इन दोनों चीज़ें के लिए कमोवेश पूरी तरह रूस पर निर्भर हैं। युद्ध होने के बाद रूस के तेल की सप्लाई रुक गयी है और इसका पश्चिमी यूरोप देशों पर असर दिखने लगा है। सप्लाई नहीं भी रुकती, तो भी क़ीमतें तो बढऩी ही थीं। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय तक कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) प्रति बैरल 100 डॉलर तक पहुँच चुका था।