सियासत भी ग़ज़ब की चीज़ होती है। इसमें जब तक किसी के हित सधते रहते हैं, तब तक तो सब ठीक रहता है; लेकिन जैसे ही अहित होने की सम्भावना जगती है, आदेशों की अनदेखी, विरोध परोक्ष / अपरोक्ष रूप से होने लगते हैं। फिर चाहे कोई कितने भी बड़े संवैधानिक पद पर ही क्यों न बैठा हो। मामला सत्ता के गलियारों में गूँजने लगता है। और मीडिया की सुर्ख़ियाँ बनने लगता है। ऐसा ही मामला आजकल केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को लेकर चल रहा है। उन्होंने अपने निजी स्टाफ में अपने परिचित को नियुक्त कर लिया, तो परिचित की नियुक्ति का विरोध किसी और ने नहीं, बल्कि उन्हीं के एक वरिष्ठ अधिकारी ने राज्यपाल को पत्र लिखकर जता दिया। जब विरोध एक अधिकारी द्वारा राज्यपाल के आदेश का किया गया, तो मामला निश्चित तौर पर भूचाल लाने वाला बनना ही था। इस नियुक्ति को लेकर सरकार राज्यपाल की क्या राजनीति मंशा है?
इसी मामले को लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता को राजनीतिक चिन्तक और दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के प्रोफेसर हरीश खन्ना ने बताया कि राज्यपाल की नियुक्ति देश का राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इस लिहाज़ से संवैधानिक तौर पर राज्यपाल का पद मुख्यमंत्री से ऊँचा होता है। इसलिए किसी भी राज्य की चुनी हुई सरकार अगर किसी मामले में राज्यपाल से असहमत है, तो उसका विरोध उसे एक मर्यादा के भीतर शिष्टतापूर्वक करना चाहिए। राज्यपाल के पास कुछ विशेष शक्तियाँ भी हैं, तो सीमित अधिकार भी हैं। जो कि लोकतंत्र के लिए ज़रूरी हैं। मगर मौज़ूदा दौर में सियासत में कुछ ज़्यादा ही उग्रता देखी जा रही है। इसके कारण संवैधानिक पदों पर बैठे राजनीतिज्ञों और अधिकारियों की अवहेलना अक्सर देखने, सुनने को मिल रही है।
राजनीति विश्लेषक प्रो. हंसराज का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वहाँ टकराव होता है, जहाँ पर अलग-अलग चुनी हुई सरकारें होती हैं। उनका कहना है कि केरल में कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) की सरकार है, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सरकार है, यही कारण है कि दोनों राज्यों में राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों की बीच वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर टकराव होता रहता है। यही हाल दिल्ली का है। यहाँ आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार और उप राज्यपाल में आये दिन टकराव होता रहा है।
प्रो. हंसराज कहते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन है, जिसकी छवि एक मंजे हुए राजनीतिक की तरह है। वह अक्सर राजनीति में अपनी बात रखने के लिए अधिकारियों को दाँव-पेच के खेल में उलझाकर काम कराया करते हैं। क्योंकि जब राज्यपाल ने एक व्यक्ति की नियुक्ति की और उन्हीं के एक अधिकारी ने विरोध कर दिया। यह हिम्मत तो अधिकारी की हो ही नहीं सकती है। इसके पीछे ज़रूर मुख्यमंत्री का हाथ हो सकता है। क्योंकि राजनीति में प्रलोभन और राजनीतिक चालें छिपी हुई होती हैं, जिसका ख़ुलासा देर-सबेर होता है। लेकिन तब तक सियासी खेल बन-बिगड़ जाते हैं।
जब एक अधिकारी ने राज्यपाल के आदेश का पालन नहीं किया, तो राज्यपाल को ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है। राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने बाक़ायदा तर्क देते हुए कहा है कि केरल सरकार के मंत्री अपने लोगों को व्यक्तिगत तौर पर अमला (स्टाफ) की नियुक्ति करने के लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन राज्यपाल को अपना निजी सहायक रखने के लिए कोई अधिकार और स्वतंत्रता नहीं है! यह तो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का मज़ाक़ है।