अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर केंद्र विफल
दीपक बल्यूटिया
आईएमएफ और वल्र्ड बैंक जैसे संस्थान विश्व भर के देशों के लिए वित्तीय वर्ष की शुरुआत में ‘कंट्री आउटलुक’ जारी करते हैं। इसी व्यवस्था के तहत वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए आईएमएफ और विश्व बैंक द्वारा जो कंट्री आउटलुक जारी किये गये हैं, उसको लेकर भाजपा द्वारा ढोल पीटा जा रहा है कि मोदी सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रबंधन बहुत अच्छे तरीक़े से कर रही है। लेकिन अगर बिना किसी वैमनस्य के भ्रम की परत उठाकर देखा जाए, तो वास्तविकता काफ़ी जटिल नज़र आती है। इसलिए सच्चाई को समझने के लिए हमें अन्य महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर भी नज़र डालनी होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व में भाजपा सरकार के पास एक लम्बा कार्यकाल है, इस पहलू को देखकर भी विश्लेषण करने की ज़रूरत है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार मई, 2014 में सत्ता में आयी थी, और अगले साल (2024 में) सत्ता में एक दशक पूरा कर लेगी। मोदी सरकार के पास अपने दोनों कार्यकाल में लोकसभा में पूर्ण बहुमत रहा है। अगर देखा जाए, तो मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल में राजनीतिक रूप से कोई बाधा नहीं थी। जब एक दशक तक कोई पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्तासीन है, तब देश की अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का आकलन करने का उचित समय है। यह तब और ज़रूरी हो जाता है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सत्ता पर मज़बूत नियंत्रण रहा है, और उन्होंने अपने एकतरफ़ा फ़ैसलों से इसे साबित भी कर दिया है। ऐसे में देश की अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
वित्त वर्ष 2022-23 के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ोतरी के पहले अधिकारिक अग्रिम अनुमान को इस वर्ष के लिए सही आँकड़ा मानकर और अगले वर्ष सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर 6 प्रतिशत (वैश्विक सहमति इसी आँकड़े के आस-पास हैं) मान लें, तो मोदी सरकार की औसत विकास दर मात्र 5.5 प्रतिशत प्रति वर्ष होगी। जब सन् 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आयी थी, तब मोदी से लेकर सरकार में तमाम मंत्री और नेता बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे कि देश की विकास दर जल्द ही 10 प्रतिशत के पार होगी। लेकिन ऐसा कहीं देखने को नहीं मिला; बल्कि इसके उलट हो रहा है।
सरकार की ग़लत आर्थिक नीतियों का बचाव करने वाले कहते हैं कि कोरोना महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। इस तर्क से सरकार के आर्थिक नीतियों का बचाव करने वाले लोगों को याद दिलाने की आवश्यकता है कि 2019-20 में जब भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना से अछूती थी, तब भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 3.74 प्रतिशत पर आ गयी थी। मोदी सरकार अपनी नाकामी छुपाने के लिए घरेलू आर्थिक चुनौतियों के लिए वैश्विक कारकों को दोष देती है। सरकार को ईमानदार होने की ज़रूरत है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के पहले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन का मुख्य कारण कच्चे तेल के दामों में भारी गिरावट से सरकार को अप्रत्याशित लाभ हासिल हुए थे। कच्चे तेल के दाम अत्यधिक कम होने के बावजूद भी इसके लाभ जनता को नहीं दिये गये थे; बल्कि पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ा सरकार ने अपने ख़ज़ाने भर लिये थे।
हमें यहाँ भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आँकड़ों पर नज़र डाल लेनी चाहिए, भारत ने कांग्रेस नीत यूपीए दो के शासनकाल 2013-14 में 314.41 बिलियन अमरीकी डॉलर का निर्यात किया था। वहीं 2021-22 भारत का निर्यात 422 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था, जो पिछले आठ वर्षों में 3.75 प्रतिशत प्रति वर्ष की बेहद कम विकास दर है। इसकी तुलना वियतनाम के साथ की जा सकती है। यदि हम सन् 2014 और सन् 2021 के लिए भारत और वियतनाम से व्यापारिक वस्तुओं के निर्यात पर विश्व बैंक के आँकड़ों को देखें, तो हमें पता चलता है कि वियतनाम के वैश्विक निर्यात को प्रति वर्ष 12.18 प्रतिशत बढ़ोतरी हो रही थी। वहीं भारत केवल 2.95 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से अपने निर्यात को बढ़ा पा रहा था।
इसके अलावा देश में बेरोज़गारी एक विकराल समस्या है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज के सामने एक बड़ी चुनौती है। मोदी सरकार किसी भी सार्थक तरीक़े से रोज़गार पैदा करने में विफल रही है और सरकार की बिना सिर-पैर वाली नीतियों की कारण से भारतीय जनसांख्यिकीय लाभांश को बर्बाद किया जा रहा है और मोदी सरकार भारत के युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल देश के विकास और अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में नहीं कर पा रही है। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही स्पष्ट कर दिया था कि वह मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) के ख़िलाफ़ है; लेकिन अब कई देशों से मुक्त व्यापार समझौतों के लेकर बात चल रही है।