‘अनिवासी’ सारंडावासी!

फोटोः  जसिन्ता केरकेट्टा
फोटोः जसिन्ता केरकेट्टा

जुलाई-अगस्त, 2011 में सरकार ने औपचारिक रूप से माना था कि झारखंड का नक्सल प्रभावित क्षेत्र सारंडा माओवादियों के कब्जे से मुक्त करा लिया गया है. उससे पहले पश्चिम सिंहभूम जिले का यह इलाका तकरीबन 11 साल से माओवादियों के नियंत्रण में था. इसके बाद अक्टूबर के महीने से ही यहां विकास कार्यक्रम बनने लगे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सारंडा सुर्खियों तब आना शुरू हुआ जब जुलाई, 2012 में जयराम रमेश केंद्रीय ग्रामीण मंत्री बने. उन्होंने मंत्री बनते ही इस इलाके के विकास के लिए योजनाएं बनाने के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर नए सिरे से कवायद शुरू की. इसके बाद सारंडा विकास योजना बनी और उसके तहत कुछ काम भी हुए. साल 2013 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर जयराम ने सारंडा जंगल के दीघा गांव में विकास की बात कही थी. इसके बाद एकीकृत विकास योजना के अंतर्गत दीघा में कुछ काम शुरू हुए हैं. इस योजना में 56  और गांवों को भी शामिल किया गया है जो वनग्राम या राजस्व ग्राम घोषित हैं.

लेकिन इस सबके बीच आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इसी सारंडा में जंगल के बीच तकरीबन सौ गांव ऐसे हैं जिनके बारे में औपचारिक रूप से राज्य या केंद्र सरकार को कोई जानकारी नहीं है. जाहिर है कि तब यहां के निवासियों की गिनती भी राज्य के बाशिंदों में नहीं होती. ये न वनग्राम हैं, न राजस्वग्राम. इस ‘प्रोटेक्टेड फोरेस्ट’ में रहने वाले करीब 25 हजार आदिवासी व अन्य वन निवासी बिना किसी ‘पता’ के हैं. पहचान पत्र नहीं होने के कारण उन्हें वोट देने का अधिकार भी नहीं. इस क्षेत्र में वनविभाग की अनुमति के बिना प्रवेश निषिद्ध है. विभाग से अनुमति मिलने के बाद जब हम घने जंगलों के बीच बसे इन गांवों तक पहुंचे तो हमें पता चला कि पहचान या कागजों पर ‘पता’ न होने से इतर इन लोगों की पीड़ा कहीं ज्यादा है.

सारंडा के ऐसे ही गुमनाम गांवों में से एक जंबईबुरू गांव की सुकुरमुनी तोरकोद अपनी पीड़ा बयान करते हुए बताती हैं कि उनके बड़े बेटे बिरसा तोरकोद, जो स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) में काम करता था, को पुलिस ने दो साल पहले नक्सली होने के आरोप में पकड़ लिया था. बुरी तरह प्रताड़ित करने के बाद ही उसे छोड़ा गया. यह सिर्फ सुकुरमुनी के बेटे की बात नहीं है. यहां के आम युवकों को पुलिस के इस दुराग्रह से अक्सर जूझना पड़ता है. पुलिस माओवाद उन्मूलन के नाम पर इन गांवों के युवाओं को पकड़ लेती है. सरकारी पहचान न होने की वजह से वे तब ही पुलिस के चंगुल से छूट पाते हैं जब पुलिस ऐसा चाहे. सुकुरमनी जानकारी देती हैं, ‘ सालों पहले 17 किलोमीटर दूर कुंदलीबाग गांव से 250 लोगों का समूह वहां आकर बस गया था. लेकिन सरकारी अधिकारी इस पहचानते नहीं.’

जंबईबुरू की सुकुरमुनी नदी का गंदा पानी देखाते हुए जो वे खाने-पीने में उपयोग करती हैं
जंबईबुरू की सुकुरमुनी नदी का गंदा पानी देखाते हुए जो वे खाने-पीने में उपयोग करती हैं. फोटोः जसिन्ता केरकेट्टा

इस क्षेत्र में एक नदी है जो इन लोगों के लिए जीवनरेखा सरीखी है. लेकिन इस क्षेत्र में सेल सहित खनन करने वाली अन्य कंपनियां खनिजों की धुलाई के बाद निकला गंदा पानी इसमें बहाती हैं. इसकी वजह से नदी का पानी पूरी तरह लाल हो गया है. अपने घर के बर्तन में रखे पीने के पानी को दिखाती हुई सुकुरमुनी बताती हैं कि घर के लोग उसी लाल पानी को कई बार छान कर पीते हैं. इसी गांव के सरगिया तोरकोद जानकारी देते हैं, ‘ नदी की मछलियां और केकड़े तक इस पानी में मर चुके हैं. लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. सभी गांववाले इसी को इस्तेमाल करते हैं. हम इसकी शिकायत कंपनी के लोगों से कर चुके हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.’

सरकार गरीब लोगों को खाने के अनाज पर भारी रियायत देती है, लेकिन यहां के लोगों को यह भी मयस्सर नहीं है. इन लोगों में किसी के पास भी राशन कार्ड नहीं है. इसी गांव के 33 वर्षीय तुरपा सुरीन की उम्र 33 साल है. उनकी दो बेटियां हैं जो चार किलोमीटर दूर कलईता गांव के आंगनबाड़ी केंद्र में पढ़ने जाती हैं. चूंकि सरकार जंबईबुरू को गांव का दर्जा नहीं देती तो वहां कोई स्कूल या आंगनबाड़ी भी नहीं है. तुरपा बताते हैं, ‘ गांव के हालात के बारे में  बीडीओ को जानकारी दी थी पर बीडीओ ने कोई कदम नहीं उठाया.’

जंबईबुरू से जंगल के और अंदर करीब चार किलोमीटर की दूरी पर बालेहातु गांव है. इस गांव की 69 वर्षीया सोमारी जानकारी देती हैं कि उनके गांव में 26 परिवार रहते हैं. यहां के कुछ बच्चे पढ़ने के लिए थोलकोबाद जाते हैं. बालेहातु के ही खोतो होनहागा बताते हैं कि इस गांव में कोई मुखिया या बीडीओ कभी नहीं आया. इस गांव के आगे चेरवांलोर, कादोडीह, धरनादिरी गांवों की भी ऐसी ही स्थिति है.

सारंडा में करमपदा एक बड़ा गांव है जिसका तमाम सरकारी दस्तावेजों में नाम आता है लेकिन इसी के पास कई और गांव हैं जो अपना नाम अब तक इनमें दर्ज नहीं करवा पाए हैं. करमपदा के बिमल होनहागा का दावा है कि इस इलाके में करीब चालीस ऐसे गांव हैं जिन्हें अब तक वनग्राम घोषित नहीं किया गया है और जो हर तरह की सुविधा से वंचित हंै. उनके मुताबिक यहां चेरवांलोर, धरनादिरी, कादोडीह, टोपकोय, कलमकुली, ओकेतबा, कुलातुपु, सरचीकुदर, तोगबो, जोजोबा, बनरेड़ा आदि गांव बसे हैं.

संरक्षित वन, असंरक्षित लोग

ह्यूमन राइट्स एेंड लॉ नेटवर्क नाम की संस्था से जुड़े चाईबासा हाई कोर्ट के अधिवक्ता अली हैदर इसे विडंबना मानते हैं कि आजादी के 64 साल बाद भी सारंडा के अंदर कई गांवों को वनग्राम का दर्जा नहीं मिला है और वे सरकारी, गैरसरकारी सुविधाओं से पूरी तरह वंचित हैं. वे इस बात को व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं, ‘ जबकि इसी बीच जंगलों को संरक्षित वन घोषित कर दिया गया है.’  रांची हाई कोर्ट के अधिवक्ता अनूप अग्रवाल कहते हैं, ‘ यहां कोई कम आबादी नहीं है. 25,000 लोग रहते हैं जंगल के बीच. ऐसे में सरकारी जिम्मेदारी बनती है कि वह सर्वे के माध्यम से ऐसे गुमनाम गांवों का पता लगाए और उन्हें वनग्राम व राजस्व ग्राम घोषित करे.’

सरकार इन गांवों से पूरी तरह अनजान नहीं है लेकिन वह जिस कछुआ गति से आगे बढ़ रही है उससे इन गांवों को सरकारी पहचान मिलने में सालों लग सकते हैं. जगन्नाथपुर अनुमंडल एसडीओ जयकिशोर प्रसाद कहते हैं कि ऐसे गांवों का सर्वे होकर उन्हें बहुत पहले ही वनग्राम घोषित किया जाना चाहिए था. लेकिन अब इसकी जानकारी धीरे-धीरे मिल रही है. फिर भी काम प्रक्रिया के तहत होगा. सर्वे होने, वनग्राम घोषित करने, मतदाता सूची में नाम जाने में अभी लंबा समय लग सकता है. नोवामुंडी प्रखंड भाग-एक की जिला परिषद सदस्य देवकी कुमारी के अनुसार इस समय पांच गांवों को चिह्नित किया गया है. इनमें जंबईबुरू, बालेहातु, धरनादिरी, चेरवांलोर व कादोडीह शामिल हैं. ये पांचों नोवामुंडी प्रखंड भाग-एक के अंतर्गत आते हैं. चाईबासा के डिप्टी कलेक्टर अबुबकर सिद्दीकी ने नोटिफिकेशन पेपर दे दिया है. इसमें इन गांवों को राजस्व ग्राम घोषित करने की बात कही गई है. अब इन गांवों में ग्रामसभा कराना बाकी है. देवकी कुमारी खुद बताती हंै, ‘अभी लगभग सौ और ऐसे गांव हैं, जिन्हें ढूंढ कर राजस्व ग्राम घोषित करना है.’

फिलहाल सारंडा के अंदर दीघा गांव को छोड़कर और कहीं विकास की कोई रोशनी नहीं पहुंच रही है. दरअसल सारंडा के जंगल को ‘ प्रोटेक्टेड फोरेस्ट’ घोषित करने के पहले पूरे क्षेत्र का गहन सर्वे जरूरी था. जंगल के अंदर के अचिह्नित गांवों की पहचान करके  उन्हें वनग्राम और राजस्व ग्राम घोषित करना था. ग्रामीणों को वनभूमि का पट्टा देना था. पर सरकार ने बिना सर्वे कराए ही पूरे वनक्षेत्र को संरक्षित कर दिया. ऐसे में सरकार वहां पहुंची नहीं और उस एक चूक ने इन हजारों लोगों की जिंदगी कई और महीनों के लिए पीछे धकेल दी.