बड़ी त्रासदियां छोटी त्रासदियों को ढक लेती हैं. पिछले एक पखवाड़े की सारी खबरें उत्तराखंड की बाढ़ और तबाही पर केंद्रित रहीं. यह होना भी चाहिए था. लेकिन क्या इस बड़ी त्रासदी का शोक भी हमारे भीतर उतना ही बड़ा है? क्या ऐसी कोई राष्ट्रीय हूक दिख रही है जो जैसे सब कुछ स्थगित कर दे? शोक का शोर नहीं होता, शोक में चुप्पी होती है. शोक में हम अपने भीतर टटोलते हैं.
फिर यह तो हिमालय जैसी विराट त्रासदी है. इस पर तो जैसे पूरे राष्ट्र को-उसके राजनीतिक नहीं, सामुदायिक आशयों में- एक बार चुप और मौन हो जाना चाहिए था, सोचना चाहिए था कि क्या अघटित घटित हुआ है, क्यों हुआ है, हम क्या न करें कि अगर जीवन देने वाली नदियां कभी उमड़ें, भरोसा दिलाने वाले पहाड़ कभी उखड़ें, कभी बादल फट जाए तो भी उन्हें सहेजने-समेटने और उनकी त्रासदी को कम करने लायक जगह बची रहे.
लेकिन जिस तरह का जीवन हम जीने लगे हैं, जिस तरह की मनुष्यता हम ओढ़ने लगे हैं, उसमें ऐसी चुप्पी की, और उससे निकलने वाले ऐसे प्रश्नों की जगह नहीं है. इस तबाही ने जिन परिवारों को बर्बाद कर दिया, उनके अलावा शायद बाकी सबके लिए उसका ज्यादा मोल नहीं है. निश्चय ही इस संकट में उन बचाव एजेंसियों ने बेमिसाल काम किया जिन्होंने खतरा उठाकर, मुसीबत मोल लेकर, भूख और बीमारी झेलते हुए और कभी-कभी जान देते हुए भी, रास्ते पर पड़े पहाड़ हटाए, नदियों पर कामचलाऊ पुल बनाए और ऐसे हजारों लोगों को निकाला जो बिल्कुल मौत के जबड़ों या दड़बों में बंद थे.
इसके बावजूद कहीं कुछ रुका नहीं. राजनीतिक दलों की सियासत चलती रही, टीवी चैनल त्रासदी को तमाशा बनाकर बेचते रहे, ब्रेकिंग न्यूज की न खत्म होने वाली पट्टियों के बीच मौत और तबाही को ज्यादा से ज्यादा सनसनीखेज बनाकर, संवेदना को भावुक लिजलिजेपन की पन्नी में लपेट कर पेश करने का काम चलता रहा. बेशक, मीडिया के कई रिपोर्टरों ने बिल्कुल सैनिकों की तरह तबाही के छोरों को छूने-समझने की कोशिश की, कई बार बेहद संवेदनशील पत्रकारिता की मिसाल भी पेश की, लेकिन इन सबके बावजूद सूचना के इस युग में एक बड़ा दायित्व भी जैसे तमाशे या कारोबार में बदल गया.