अच्छी नहीं है महिला क़ैदियों की दशा

आधी आबादी यानी महिलाओं की स्थिति पर गाहे-ब-गाहे चर्चा होती रहती है; लेकिन क्या जेलों में बन्द महिलाओं के हालात पर नेता व समाज अक्सर अपनी चिन्ता ज़ाहिर करता नज़र आता है। दुर्भाग्य से जबाव नहीं में ही बनता है। बहरहाल इन दिनों देश की सर्वोच्च न्यायालय भारत भर की जेलों में व्याप्त कथित अमानवीय स्थितियों से सम्बन्धित मामले की सुनवाई कर रहा है। ग़ौरतलब है कि देश में जेलों में सुधार और महिला क़ैदियों को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए कई समितियों का गठन किया गया; लेकिन उनकी सिफ़ारिशों पर अमल पूरी शिद्दत से नहीं किया गया। इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर, 2018 में देश भर में जेल सुधारों पर ग़ौर करने और निगरानी के उपाय सुझाने के लिए अपने पूर्व न्यायमूर्ति अमिताव रॉय की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया। जिस समय सर्वोच्च न्यायालय ने यह समिति गठन करने का आदेश दिया था, उस समय सर्वोच्च न्यायालय देश भर की 1,381 जेलों में अमानवीय स्थितियों से सम्बन्धित मामले की सुनवाई कर रही थी। इस न्यायालय ने देश भर की जेलों में क़ैदियों की भीड़ पर आपत्ति जतायी थी और कहा था कि क़ैदियों के भी मानवाधिकार हैं और उन्हें जानवर की तरह नहीं रखा जा सकता। न्यायालय ने न्यायमूर्ति अमिताव रॉय समिति को जेलों में भीड़भाड़ और महिला क़ैदियों से सम्बन्धित मुद्दों सहित विभिन्न मामलों पर ग़ौर करने को कहा था। भारत में जेल सुधारों पर गठित सर्वोच्च न्यायालय की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को सौंप दी है। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश भर की जेलों में रहने की व्यवस्था दयनीय है। यह भी कहा है कि जेलों में रहने की स्थिति मॉडल जेल मैनुअल-2016 के तहत परिकल्पित स्थिातियों जैसी नहीं है। इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि जेलों में भीड़भाड़ की समस्या के हल के लिए त्वरित सुनवाई एक प्रभावी उपकरण बन सकती है। ग़ौर करने वाली बात इस रिपोर्ट में यह भी है कि जेलों में 75 फ़ीसदी महिला वार्डों को पुरुष वार्डों के साथ रसोई और सामान्य सुविधाएँ साझा करनी पड़ती हैं। जेल सुधार समिति की इस रिपोर्ट के अनुसार, महिला क़ैदियों को विशेष तौर पर चिकित्सा देखभाल, क़ानूनी सहायता और परामर्श से लेकर सवैतानिक श्रम और मनोरंजक सुविधाओं जैसी बुनियादी ज़रूरतों तक पहुँच बनाने के लिए अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक बदतर स्थितियों का सामना करना पड़ता है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विशेष महिला जेल में मिलने वाली सुविधाओं के विपरीत बड़ी जेलों में क़ैद महिलाओं को इन बुनियादी सुविधाओं को देने से इनकार कर दिया जाता है। इस रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि देश की सुधारात्मक न्याय प्रणाली स्पष्ट रूप से लिंग भेदभावकारी है। आँकड़े भी महिला क़ैदियों के हालात के बारे में बहुत कुछ बयाँ करते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार देश में विशेष महिला जेलों की संख्या-32 है। ऐसी जेलों में सिर्फ़ महिला क़ैदी ही होती हैं और अधिकांश स्टाफ भी महिलाओं का होता है। एनसीआरबी के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2021 के अन्त तक देश के सिर्फ़ 15 राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों में ख़ासतौर पर महिलाओं के लिए 32 जेल हैं। राजस्थान, तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश, गुजरात, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मिजोरम, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तेलगांना इस सूची में आते हैं। इन जेलों की कुल क्षमता 6,767 क़ैदियों की हैं; लेकिन 2021 के अन्त तक इन जेलों में महिला क़ैदियों की तादाद 22,918 थी।
हैरत होती है कि देश के 21 राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों में कोई अलग महिला जेल नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित जेल सुधार समिति की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 40 फ़ीसदी से कम जेलें ही ऐसी हैं, जो महिला क़ैदियों को सैनिटरी पैड मुहैया कराती हैं। यह जानकारी इस लिए भी हैरत मे डालती है और परेशान भी करती है; क्योंकि देश में लड़कियों / महिलाओं को माहमारी के दौरान अतिरिक्त रूप से स्वच्छता बरतने वाले परामर्श पर अमल करने के वास्ते अभियान चलाया जा रहा है। कई राज्यों में स्कूली लड़कियों को स्कूलों में क़िफ़ायती दाम पर सेनिटरी पैड मुहैया कराये जाते हैं। और महिला के प्रजनन स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए ऐसी सुविधा मुहैया कराना सरकारों का काम है। महिला क़ैदियों को भी यह सुविधा मिलनी चाहिए पर राज्य सरकारों, महिला व बाल विकास और स्वास्थ्य मंत्रालय को इसकी सुध क्यों नहीं है? इसे एक निजी ज़रूरत कहकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। एक महिला की ज़िन्दगी में इसके महत्त्व को दर्शाने वाली पैडमैन फ़िल्म भी बनी, जिसमें नायक की भूमिका में अक्षय कुमार थे। इस रिपोर्ट में यह भी ख़ुलासा किया गया है कि सिर्फ़ गोवा, दिल्ली और पुदुचेरी की जेलें ही महिला क़ैदियों को अपने बच्चों से सलाखों या काँच की दीवार के बिना मिलने की इजाज़त देती हैं।