
27 अप्रैल की बात है. बिहार के सहरसा में एक चुनावी सभा निबटाकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मधेपुरा के लिए उड़ान भरी ही थी कि अचानक तेज आंधी चलने लगी. चारों तरफ धूल छा गई. हेलीकॉप्टर डगमगाने लगा. मजबूरी में पायलट को वहीं इमरजेंसी लैंडिंग करनी पड़ी जहां से वह थोड़ी ही देर पहले उड़ा था. इसके बाद नीतीश कुमार को सड़क के रास्ते जाना पड़ा.
परेशान करने वाली कुछ ऐसी ही धूल और आंधी इन दिनों नीतीश कुमार के लिए चुनावी सर्वेक्षणों में छाई हुई है. कई सर्वेक्षण और विश्लेषण बिहार में उनकी पार्टी जदयू को चुका हुआ मान चुके हैं. उनके मुताबिक राज्य में भाजपा की लहर है और जदयू, राजद-कांग्रेस गठबंधन से भी पीछे रहने वाला है.
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या सच में नीतीश कुमार और जदयू को चुका हुआ मान लिया जाए? इसी से यह सवाल भी उठता है कि अगर इस लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को करारी शिकस्त मिलती है तो क्या बिहार की राजनीति में भी उनका पराभव शुरू हो जाएगा? क्या अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी वे हाशिये के नेता बन जाएंगे?
इस सवाल को हम कइयों के सामने उछालते हैं. मुख्यतौर पर जदयू, भाजपा और राजद के नेताओं के सामने. जदयू, राजद और भाजपा नेताओं से बात करने का कोई खास मतलब नहीं निकलता. सब रटा-रटाया जवाब देते हैं. एक पंक्ति वाले सवाल का दो-तीन पंक्तियों में संक्षिप्त जवाब. भाजपा खेमे के वाक्य अलग-अलग होते हैं, लेकिन मतलब कुछ ऐसा होता है-‘ अगर-मगर लगाकर काहे पूछ रहे हैं कि अगर नीतीश कुमार की करारी हार हो जाए! वे बुरी तरह हार चुके हैं.’ राजद के नेताओं का जवाब भी कुछ वैसा ही होता है लेकिन वे एक-दो कदम और आगे बढ़कर कहते हैं, ‘ नीतीश कुमार की कहानी खत्म हो चुकी है बिहार में. एक बार फिर राजद की सरकार आने वाली है.’ और इन दोनों के बाद जब जदयू के नेताओं से बात होती है तो वे गुस्से में आ जाते हैं और कहते हैं कि ‘भविष्यवक्ता नहीं बनिए, रिजल्ट आने दीजिए, सब सच सामने आएगा. देख लीजिएगा कि जदयू सबसे बड़ी पार्टी रहेगी.’
चुनाव परिणाम से पहले इस सवाल का जवाब ऐसा ही मिलेगा, इसकी पूरी उम्मीद भी थी. लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद से ही राजनीतिक पंडितों के विश्लेषणों, मीडिया हाउसों के सर्वेक्षणों और शहरी चौक-चौराहों पर जमने वाली चौपालों ने जिस तरह का माहौल बना दिया है, उसमें यह सवाल काल्पनिक होते हुए भी राजनीतिक गलियारों में तैर रहा है कि क्या लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार विधानसभा चुनाव में भी हाशिये के नेता बन जाएंगे.
इसका जवाब मुश्किल भी है और आसान भी. आसान उनके लिए, जो एकांगी भाव से पॉपुलर मीडिया और एक मुखर वर्ग द्वारा बनाए गए माहौल के आधार पर बिहार की राजनीति का आकलन कर रहे हैं. वे सीधे कह देते हैं कि बिल्कुल, लोकसभा में हार के बाद नीतीश को बिहार की सत्ता से भी बेदखल होना पड़ेगा और अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में भी उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. जो विश्लेषक पॉपुलर मीडिया की बनाई राय और मुखर वर्ग द्वारा बनाए गए माहौल से अलग अपनी राजनीतिक समझ भी रखते हैं और उस आधार पर गहराई से अध्ययन कर पड़ताल करते हैं, वे कहते हैं कि ऐसा कहना अभी संभव नहीं. उनकी मानें तो लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी की हार का मतलब बिहार की राजनीति में भी उनका अंत कतई नहीं माना जाना चाहिए.
दोनों ही तरह के विश्लेषकों की राय को एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम का बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ सकता है, नीतीश कुमार की राजनीति पर कितना प्रतिकूल असर पड़ सकता है, इसके बारे में फटाफट राय बनाने की बजाय बिहार की राजनीति में फिलहाल बने समीकरण देखने होंगे, इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे और साथ ही इस बार के लोकसभा चुनाव में तीन प्रमुख दलों जदयू, भाजपा और राजद द्वारा अपनाई गई चुनावी रणनीति को भी देखना-समझना होगा.
कैसी-कैसी मुश्किलें
लोकसभा चुनाव में अगर सच में जदयू को बुरी हार मिली तो क्यों नीतीश कुमार के लिए बिहार में सत्ता को बनाए-बचाए रखना भी मुश्किल हो जाएगा और क्यों वे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में हाशिये की तरफ जा सकते हैं, इसके पीछे कई तर्क एक साथ दिये जाते हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में तो अभी देर है, लेकिन उसके पहले ही कई ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिनसे नीतीश चक्रव्यूह में घिरते नेता जैसे दिखे और कई बार बेहद कमजोर भी. इस लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी अनुमानों-आकलनों के विपरीत जाकर दहाई में भी सीटें लाती है तो भी कुछ चीजें हैं जो उसके लिए विधानसभा चुनाव में परेशानी का सबब होंगी. जैसे हालिया दिनों में पहली बार ऐसा हुआ जब जदयू के भीतर ही नीतीश के खिलाफ बोलने वाले कई नेताओं का उभार हुआ. शिवानंद तिवारी को तो नीतीश ने बाहर का रास्ता दिया दिया, लेकिन कई नेता हैं जो जदयू में रहते हुए ही नीतीश पर निशाना साधते रहे हैं. नीतीश के खासमखास मित्र व राज्य में मंत्री नरेंद्र सिंह से लेकर वृषण पटेल तक उनके खिलाफ बोलते रहे.

दूसरी अहम घटना पार्टी से निकलनेवाले नेताओं के रूप में हुई. नीतीश ने अपने दल से जितने लोगों को मजबूरी में बाहर निकाला, लगभग उतने ही महत्वपूर्ण नेताओं ने उनका साथ भी छोड़ा. उनकी कैबिनेट में महत्वपूर्ण सहयोगी रहीं दो महिला मंत्रियों का चुनाव के पहले ही साथ छोड़ देना प्रतिकूल संदेश देनेवाला रहा. इनमें एक रेणु कुशवाहा थीं और दूसरी परवीन अमानुल्लाह. नीतीश महिलाओं के मजबूत नेता माने जाते रहे हैं. इस हिसाब से कैबिनेट से दो महिलाओं के एक-एक कर निकल जाने से गलत संदेश गए. उसके बाद नीतीश के खास सिपहसालार रहे रणवीर यादव, जिन्होंने बीते साल एक सभा में हवा में कार्बाइन लहराकर सुर्खियां बटोरी थीं, की पत्नी और जदयू विधायक कृष्णा यादव भी पलटी मारकर राजद के टिकट पर चुनाव लड़ने मैदान में आ गईं. बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी व जदयू विधायक अन्नु शुक्ला ने पिछले लोकसभा चुनाव में वैशाली से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़कर राजद के रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को कड़ी चुनौती दी थी. उन्होंने भी इस बार टिकट नहीं मिलने पर वैशाली से निर्दलीय लड़ने का फैसला कर नीतीश कुमार को झटका ही दिया.
इन्हें फुटकर बातें भी कह सकते हैं जिनका चुनाव के पहले होना संभावित भी था. लेकिन बड़े नुकसान के भी कुछ संकेत मिले जिनका असर नीतीश कुमार की राजनीति पर अगले कुछ समय में पड़ेगा. परवीन अमानुल्लाह ने साथ छोड़ा तो इसकी धमक राजधानी पटना और परवीन के विधानसभा क्षेत्र साहेबपुर कमाल तक ही सुनाई पड़ी. (हालांकि एक वर्ग है जो मानता है कि इसका थोड़ा बहुत असर मुस्लिम मतदाताओं पर भी पड़ेगा क्योंकि परवीन अमानुल्ला की एक पहचान सैयद शहाबुद्दीन की बेटी के रूप में भी रही है), लेकिन इससे भी बड़ा नुकसान लोकसभा चुनाव शुरू होने के बाद हुआ जिसका असर पूरे बिहार में माना गया और जिसकी भरपाई करने में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को वक्त लग सकता है. यह घटना मुस्लिम बहुल किशनगंज संसदीय सीट से जदयू उम्मीदवार अख्तरुल ईमान द्वारा अचानक ही मैदान से हट जाने के रूप में घटित हुई. अख्तरुल हालिया वर्षों में तेज-तर्रार और वाचाल मुस्लिम नेता के तौर पर बिहार में उभरे हैं. वे कुछ माह पहले ही राजद से पलटी मारकर नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हुए थे. लेकिन किशनगंज से टिकट लेकर उन्होंने ऐन वक्त पर चुनाव न लड़ने का फैसला कर डाला. उन्होंने कांग्रेस-राजद गठजोड़ का समर्थन करके संकेत दे दिया कि भाजपा से लड़ने में और दूसरे शब्दों में कहें तो नरेंद्र मोदी को रोकने में लालू यादव और कांग्रेस ही सक्षम पार्टी है, जदयू नहीं. नीतीश कुमार की पार्टी मंे कई लोग हैं जो ऐसा मानते हैं. जदयू के एक राज्यसभा सांसद कहते भी हैं, ‘ईमान प्रकरण से चुनाव में हमें एक बड़ा झटका लगा और बड़े नुकसान की भी गुंजाइश है.’
जानकार मानते हैं कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार जिस वोट बैंक के सहारे चुनावी मैदान में उतरे हैं उसमें एक अहम फैक्टर मुस्लिम मतदाताओं का ही है. जदयू को पता है कि अगर इस समूह को उनकी पार्टी नहीं संभाल पाएगी तो फिर लालू प्रसाद को मजबूत होने से रोकना आसान नहीं होगा. कारण यह कि लालू प्रसाद कांग्रेस के साथ मिलकर सांप्रदायिकता से लड़ने वाले और भाजपा को रोकन ेवाले नेता के तौर पर फिर से स्थापित होंगे और इसका असर बिहार की राजनीति पर भी पड़ेगा. बिहार में आगे की राजनीति जारी रखने के लिए भी नीतीश को मुस्लिमों का वोट सहेजना जरूरी होगा क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में अचानक ही सवर्णों का एक बड़ा खेमा और विशेषकर भूमिहार जाति उनसे बहुत दूरी बना चुकी है. भूमिहारों का अचानक ही नीतीश से खिसक जाना उनके लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है. इसलिए नहीं, क्योंकि भूमिहारों की आबादी बड़ी है बल्कि इसलिए क्योंकि भूमिहारों और यादवों को बिहार की राजनीति में सबसे मुखर जाति माना जाता है. धारणा रही है कि एक राजनीतिक माहौल बनाने में इन दोनों जातियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. भूमिहारों और उसके जरिये सवर्णों के एक बड़े समूह का नीतीश से मुंह मोड़ना इसलिए भी बुरा साबित हो सकता है, क्योंकि नीतीश कुमार पर अपने आठ-नौ सालों के कार्यकाल में इस जाति विशेष को तरजीह देने का आरोप भी लगता रहा है. कुरमी को ताज, भूमिहारों को राज जैसे नारे उछाले जाते रहे हैं.
इस तरह देखें तो अगर सच में मुस्लिम मतदाताओं ने इस लोकसभा चुनाव में नीतीश से मुंह मोड़ लिया होगा और सवर्णों का एक खेमा यही पैटर्न अपनाए रखेगा तो आगे के दिनों में जदयू की राह बेहद मुश्किल होती जाएगी. इसकी दूसरी वजह यह भी है कि भाजपा बहुत ही चतुराई से नीतीश के कोर वोट बैंक यानी कोईरी-कुरमी गठजोड़ में से कोईरी मतदाताओं के एक बड़े समूह को भी तोड़ने में एक हद तक सफल रही है. ऐसा उसने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से चुनावी गठजोड़ के जरिये किया है.
भाजपा सिर्फ इस समीकरण को तोड़ने में ही सफल नहीं रही बल्कि यह हवा फैलाने में भी कामयाब रही कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में लालू 12-14 प्रतिशत की आबादी वाली यादव जाति के नेता हैं, जबकि नीतीश कुमार 3-4 प्रतिशत की आबादी वाली जाति कुरमी के नेता रह गए हैं. भाजपा इस कोशिश में रही कि लड़ाई राजद और भाजपा के बीच शिफ्ट हो ताकि आगे बिहार की राजनीति करने में आसानी हो. दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव इस संदेश को बार-बार फैलाते रहे कि सांप्रदायिकता से लड़ने में वे और उनकी पार्टी ही सक्षम हैं. नीतीश कुमार इन दोनों अफवाहों के बीच फंसे नेता की तरह दिखे और रोजाना चुनावी सभाओं में मंचों से सफाई देते रहे कि प्रोपेगेंडा वार चल रहा है. साथ ही यह भी कहते रहे कि वे लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी हाल में भाजपा के साथ नहीं जा सकते. नीतीश इसलिए यह संदेश देते रहे, क्योंकि वे जानते हैं कि भाजपा और राजद यह अफवाह फैलाने में सफल रहे हैं कि नीतीश इस चुनाव के बाद स्थितियों की दुहाई देकर कभी भी भाजपा के साथ जा सकते हैं.
नीतीश कुमार के पुराने सहयोगी रहे पूर्व राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘मैं खुद आश्चर्यचकित हूं. इस तरह का ट्रेंड विकसित होगा बिहार में, ऐसा माहौल बनेगा और नीतीश कुमार की पार्टी की ऐसी हालत होगी…इतना नहीं सोचा था.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘लालू यादव कांग्रेस के साथ जाकर एक बार फिर नए किस्म का सामाजिक समीकरण बनाने में सफल रहे और भाजपा ने घेरेबंदी करके नीतीश के अपने ही वोट बैंक में संेधमारी कर दी. अगर भाजपा और राजद को बड़ी जीत हासिल होती है, जिसकी पूरी संभावना है तो फिर बिहार में नीतीश कुमार के लिए विधानसभा चुनाव में भी बड़ी मुश्किलें होंगी.’ तिवारी समेत कई लोग यह मानते हैं कि इससे एक किस्म का मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ेगा और भाजपा-राजद मतदाताओं के मनोविज्ञान को बदलने की कोशिश करेंगे. अगर संयोग से केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं या भाजपा की सरकार बन जाती है तो भाजपा के नेता बिहार में यही माहौल बनाएंगे कि केंद्र में जिसकी सरकार है, अगर उसकी ही सरकार राज्य भी में हो तो यह विकास के लिए महत्वपूर्ण होगा. उसके पहले ही नरेंद्र मोदी जैसे नेता यह एलान करके कि अगर वे पीएम बनते हैं तो बिहार पर विशेष ध्यान रखेंगे, नीतीश को उनकी ही बिसात पर मात देने की कोशिश कर चुके हैं. दूसरी ओर लालू प्रसाद यह बताने की कोशिश करेंगे कि जैसे लोकसभा चुनाव में भाजपा से लड़ने में वे और कांग्रेस ही सक्षम रहे, उसी तरह बिहार में भाजपा को रोकना है तो वे ही सक्षम हो सकते हैं. तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश सबसे कड़ी चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं और सवर्णों का विशेषकर एक जाति विशेष का उनका अचानक साथ छोड़कर जाना यह भी संदेश देगा कि नीतीश का कोई ठोस सामाजिक समीकरण नहीं था.’