चार साल की उम्र में अपना पहला सांप पकड़ने वाले वन्य जीव संरक्षणकर्ता और सरीसृप विज्ञानी रोमूलस वीटेकर, भारत के रेप्टाइल मैन के नाम से मशहूर हैं. रोमूलस भारत में मगरमच्छ, घड़ियाल, सांप और कछुओं के संरक्षण के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम है. पहला सांप पकड़ने वाली बात 1940 के दशक में न्यूयार्क की है जहां रोमूलस, जो रोम के नाम से जाने जाते हैं, अपनी मां और बहन के साथ रहते थे. मां ने रोम को सांप पकड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और देखते ही देखते रोम ने विभिन्न प्रजातियों के सांपों को घर में पालना शुरू कर दिया. इसके बाद रोम के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उनकी मां ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले राम चट्टोपाध्याय से शादी की और पूरा परिवार मुंबई आ गया. इसके बाद उन्होंने अगले 10 साल दक्षिण के पहाड़ों में ऊटी और कोडैकनाल के बोर्डिंग स्कूलों में बिताए जो भारत के मशहूर जैव विविधता हॉटस्पॉट, पश्चिमी घाट के ठीक मध्य में स्थित थे. रोम के सप्ताहांत आसपास के जंगलों में सांपों की तलाश और स्थानीय शिकारियों से जंगलों के बारे में दिलचस्प किस्से सुनने में गुजरते थे और सप्ताह के बाकी दिन आठ फुट लंबे अजगर की तलाश में जो ज्यादातर मौकों पर उन्हें हॉस्टल में अपने पलंग के नीचे छिपा मिलता था.
18 साल की उम्र में रोम अपनी आगे की पढ़ाई के लिए वापस अमेरिका आ गए. मगर पढ़ाई में मन नहीं रमा और एक साल बाद ही कॉलेज छोड़ भविष्य की तलाश में अपनी मंजिल मियामी की तरफ निकल पड़े जहां पहुंचकर उन्होंने दिग्गज स्नेक मैन विलियम हास्ट द्वारा चलाए जा रहे मियामी स्नेक पार्क में काम करना शुरू किया. अगले कुछ साल रोम के लिए बहुत सुखद रहे. इस दौरान वे अपना काफी समय विभिन्न प्रजातियों के सांपों के बीच रहते हुए बिता रहे थे. उन्होंने अपने गुरु विलियम से कई गुर सीखे, दूसरे स्नेक हंटरों के साथ घूमे-फिरे, आसपास के जंगलों की खाक छानी और स्थानीय कॉफी शाप में बाब डेलान के गानों पर खूब झूमे.
मगर अच्छा वक्त जल्दी चला जाता है. वियतनाम युद्ध शुरू हो चुका था और अमेरिकी आदेश था कि या तो दो साल आर्मी में बिताओ या तीन साल जेल में. रोम आर्मी में चले गए. मगर वहां अधिकारियों को संगठित हिंसा के प्रति रोम की स्वाभाविक नफरत को समझते देर न लगी और उन्हें टेक्सस और जापान में ब्लड बैंक संभालने की जिम्मेदारी दे दी गई. अपने अनिवार्य दो साल खत्म होते ही रोम एक यूनानी मालवाहक जहाज में बैठ सीधे हिंदुस्तान लौट आए.
1967 में मुंबई वापस आने के कुछ वक्त बाद ही रोम ने सांपों का विष निकालने वाले उपक्रम की शुरुआत की. ‘वापस लौटने के बाद मेरा एकमात्र मकसद भारत में उसी तरह के स्नेक पार्क की स्थापना करना था जैसा मियामी में मेरे गुरु विलियम हास्ट चलाते थे. इसी दौरान मुझे सांप पकड़ने वाली इरुला नाम की एक असाधारण जनजाति के बारे में पता चला जो सांपों की खाल के लिए उनका शिकार करती थी. जब मद्रास जाकर मैंने उनका कला-कौशल देखा तो मैं दंग रह गया. मैंने फैसला किया कि अब चाहे जो भी हो मैं इन लोगों के साथ काम करूंगा, इनसे सीखूंगा और इनको अपने सपने में भागीदार बनाऊंगा. इसीलिए मैंने अपना पूरा काम मद्रास शिफ्ट कर लिया और इस तरह भारत के पहले स्नेक पार्क की शुरुआत हुई.’ मद्रास स्नेक पार्क रातों-रात मशहूर हो गया और रोम रुढ़िवादी शहर मद्रास में एक जाना-पहचाना नाम बन गए. बिखरे सफेद बालों में रोम जब तीन फुट लंबे सैंड बोआ नाम के अजगर को लपेट भड़कीले हिप्पी कपड़ों में अपनी मोटरसाइकिल पर निकलते तो लोग उनको ताज्जुब से घूरते रहते. लोगों को और ज्यादा आश्चर्य होता जब वे रोम को स्थानीय भाषा तमिल में गालियां देते सुनते. स्थानीय संस्कृति और लोगों के बीच में खुद को स्थापित करने के लिए यह काफी था.
इसके बाद रोम ने मद्रास क्रोकोडाइल बैंक की स्थापना की. इसी दौरान उन्हें अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह के बारे में भी पता चला. लेकिन यहां किसी भी विदेशी को काम करने की इजाजत नहीं थी. लेकिन रोम वहीं काम करना चाहते थे और उस काम की कीमत थी अमेरिकी नागरिकता छोड़ भारतीय नागरिक बनना. रोम के लिए यह एक तीर से दो निशाने वाली बात थी. वे भारत का नागरिक तो बन ही रहे थे साथ में उन्हें ऐसी जगह काम करने का मौका मिल रहा था जो बकौल रोम, ‘मूंगा चट्टानों, जंगलों से ढके हुए सैंकड़ों द्वीपों, ऐसे कबीले जिनका बाहरी दुनिया से अभी तक कोई संपर्क नहीं था और जानवरों की कई दुर्लभ प्रजातियों से पटी पड़ी हुई थी. एक प्रकृतिवादी के लिए इससे ज्यादा दिलचस्प और रहस्यमय आखिर और क्या हो सकता है?’
रोम ने अपने सारे अनुभवों और जानकारी के आधार पर तकरीबन आठ किताबें, 150 से अधिक लेख लिखे और साथ ही महत्वपूर्ण मंचों से लोगों को संबोधित भी किया. लेकिन जब इसके बाद भी लोगों को जागरूक होते नहीं देखा तब उन्होंने फिल्मों का रुख किया. उन्होंने ‘बाय एंड द क्रोकोडाइल’ नामक तमिल फिल्म बनाई जिसे 1989 में यूनिसेफ का सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला और फिर ‘किंग कोबरा’ जिसे ऐमी अवार्ड मिला. इस फिल्म में किंग कोबरा के कई ऐसे दृश्य थे जो इससे पहले कभी फिल्माए नहीं गए थे. कुछ हद तक रोम के काम करने का तरीका आस्ट्रेलिया के मशहूर दिवंगत क्रोकोडाइल हंटर स्टीव इरविन जैसा ही है. खुद खतरे से भरे जंगलों में जाना, खतरनाक जानवरों का सामना करना, उन्हें नियंत्रण में रखना, खुद को खतरे में डालना और यह सब सिर्फ इसलिए कि आप और हम अपने टीवी सेटों के सामने बैठ प्रकृति को बेहद नजदीक से देख-जान सकें. लेकिन रोम इरविन की तरह अपने तरीकों और तकनीकों में आक्रामक नहीं हैं. वे मनोरंजन के साथ शिक्षा देने की भी कोशिश करते हैं. रोम अपने आपको एक ऐसा संरक्षणकर्ता मानते हैं जो शिक्षाविद ज्यादा है.
अब तक तकरीबन 23 चर्चित डाक्यूमेंटरी फिल्में बना चुके रोम ने हाल के वर्षों में बीबीसी, एनीमल प्लेनेट और नेशनल जियोग्राफिक के लिए कई फिल्मों का निर्माण भी किया है जिसमें ‘क्रोकोडाइल ब्लूज’ उल्लेखनीय है. ‘क्रोकोडाइल ब्लूज’ विलुप्ति की कगार पर खड़े भारत के घड़ियालों की दुर्दशा के बारे में है. इसके लिए 2010 में जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली चंबल नदी के मुहाने पर स्थित राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य में घड़ियाल संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय कमेटी के गठन की घोषणा की थी. रोम काफी समय से इस परियोजना की वकालत कर रहे थे ताकि भारत में 200 से भी कम बचे वयस्क घड़ियालों की संख्या को बढ़ाने और इन्हें विलुप्त होने से बचाने के लिए सरकार कुछ ठोस कदम उठाए.
रोम ने कर्नाटक में अगुंबे रेनफॉरेस्ट रिसर्च स्टेशन की स्थापना भी की है जिसका उद्देश्य भारत के मशहूर जैव विविधता हॉटस्पॉट पश्चिमी घाट के बारे में अनुसंधान, संरक्षण और पर्यावरण संबंधी शिक्षा देना और किंग कोबरा के व्यवहार और उसके पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन करना है. वे बताते हैं, ‘किंग कोबरा ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, पूर्वी हिमालय में भी पाए जाते हैं लेकिन मेरी जानकारी वेस्टर्न घाट के बारे में ज्यादा थी क्योंकि मेरा बचपन यहीं ऊटी और कोडैकनाल में बीता था. जब पहली बार मैं अगुंबे गया तो मैंने दो वयस्क 12 फीट लंबे किंग कोबराओं को अकेले पकड़ा. उस घटना ने मेरे उस विश्वास को और मजबूत किया कि पूरे भारत में सबसे ज्यादा किंग कोबरा अगुंबे में ही पाए जाते हैं और मुझे यहां कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए.’
प्रकृति और वन्य जीव-जंतुओं के बीच हंसी-खुशी से जीवन बिताने वाले रोम कहते हैं, ‘मैंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी नौ से पांच वाली नौकरी नहीं की और अगर आपको जंगल बेहद पसंद है तो आप ऐसा कुछ कर भी नहीं सकते हैं. मेरे लिए जिंदगी एक नदी की तरह है जो आपको अपने साथ बहा ले जाती है और इसीलिए मैं वही काम करता हूं जो मेरी तरफ आते जाते हैं.’ आप इसी तरह संरक्षणकर्ता, सरीसृप विज्ञानी, वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट और फिल्मकार रोम के लंबे, दिलचस्प अनुभवों और घटनाओं से भरे पड़े जीवन को परिभाषित कर सकते हैं. भारत से प्रकृति और वन्य जीव-जंतुओं जितना ही प्यार करने वाले रोम हमारे लिए चलते-चलते अपने घर को परिभाषित भी करते हैं, ‘भारत मेरा घर है. जब मैं यहां आया था तब आठ साल का था और आज मैं किसी और देश को इतना बेहतर नहीं जानता-समझता. यह स्वाभाविक भी है कि जहां आप पले-बढ़े होते हैं उस जगह से आप सबसे ज्यादा प्यार करते हैं.’