– क्या सहयोगी दलों के ज़रिये की जा रही है योगी को कमज़ोर करने की साज़िश ?
के.पी. मलिक
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी नुक़सान हुआ है। उत्तर प्रदेश का कंट्रोल दिल्ली अपने हाथ में रखकर चुनाव लड़ रही थी, जिसका ख़ामियाज़ा उसको 37 सीटें हारकर उठाना पड़ा है। बाबा ने इस चुनाव में शीर्ष नेतृत्व के इशारे पर काम किया। लेकिन अब दिल्ली अपने सहयोगियों के ज़रिये हार का ठीकरा बाबा पर फोड़ते हुए दबाव बनाने की कोशिश कर रही है। लेकिन बाबा ने अब पूरा कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया है, जिसकी बानगी नये मुख्य सचिव की नियुक्ति के रूप में देखी है। कहा तो यह भी जा रहा है कि उपचुनाव में वह अपने हिसाब से उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की कोशिश में हैं।
जानकारों का कथित आरोप है कि योगी आदित्यनाथ लंबे समय से गुजराती जोड़ी के निशाने पर हैं; लेकिन लोकसभा चुनाव का रिजल्ट अच्छा न आने के बाद हार का सारा ठीकरा उनके सिर पर फोड़ने की कोशिश की जा रही है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा के टिकट वितरण में भाजपा के नेतृत्व में उनकी दी हुई उम्मीदवारों की लिस्ट पर ग़ौर नहीं किया गया। यह ऐसे ही आरोप नहीं लग रहा है, बल्कि इस बात की बाक़ायदा चर्चा चल रही है कि उत्तर प्रदेश में टिकट बाँटने का काम देश के गृह मंत्री अमित शाह ने अपने हिसाब से किया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति तो होगी ही। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उससे ख़ुश नहीं थे; क्योंकि वह जानते थे कि कहाँ से किस उम्मीदवार की जीत आसानी से हो सकती है। लेकिन अब हार का ठीकरा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के सिर पर फोड़ने की कोशिशें की जा रही हैं। और ये दबाव भाजपा के नेताओं से ज़्यादा सहयोगी दलों के नेताओं के ज़रिये बनाया जा रहा है, जिससे योगी पर आसानी से दबाव बन सके और वह कमज़ोर हो सकें। यानी उन्हें धीरे-धीरे घेरा जा रहा है।
सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोगी दलों को क्यों एकाएक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कमियाँ नज़र आने लगी हैं? केंद्र की एनडीए सरकार में पिछले 10 वर्षों से शामिल अपना दल (एस) की अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को अब लगता है कि प्रदेश में आरक्षण का दुरुपयोग हो रहा है। पिछले दिनों उन्होंने मुख्यमंत्री योगी को एक पत्र लिखकर उनकी सरकार की ख़ामियों की ओर इशारा किया था। एनडीए की सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) की प्रमुख अनुप्रिया पटेल को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री की कुर्सी मिलते ही अचानक पिछड़ों की याद कैसे आ गयी? क्या अनुप्रिया पटेल को उत्तर प्रदेश में अपना पिछड़ा जनाधार खिसकता हुआ नज़र आ रहा है? और वह उसे बचाने के लिए भर्तियों में आरक्षण के मुद्दे को हवा देने की कोशिश कर रही हैं। अनुप्रिया पटेल के पत्र लिखने के साथ ही उनके पति आशीष पटेल, जो कि योगी सरकार में मंत्री हैं; भी मिज़ार्पुर में ख़राब प्रदर्शन के लिए प्रदेश में पिछड़ों की समस्याएँ गिना रहे हैं और कह रहे हैं कि पिछड़ों की समस्याएँ हल नहीं हो रही हैं।
हालाँकि केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया के आरोप को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि उन्होंने 69,000 अध्यापकों की जिस भर्ती में आरक्षण देने में अनियमितता का आरोप लगाया है, उस पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग पहले ही आपत्ति जता चुका है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की एक छ: पन्नों की अंतरिम रिपोर्ट में कहा गया है कि इस भर्ती में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित 5,844 सीटें सामान्य वर्ग को दे दी गयीं। शिक्षक भर्ती में इस अनियमितता को विपक्ष ने लोकसभा चुनाव में मुद्दा भी बनाया था। विपक्ष ने इसे आरक्षण पर हमले के रूप में पेश किया था और वह आरक्षित वर्ग के लोगों में यह भावना पैदा करने में सफल हो गया था कि भाजपा फिर अगर सरकार में आयी, तो वह आरक्षण ख़त्म कर देगी। यही कारण है कि भाजपा को लोकसभा चुनाव में भारी नुक़सान उठाना पड़ा। हालाँकि प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल को पत्र के जवाब में कहा है कि भर्तियों में पूरी तरह आरक्षण लागू करने को लेकर पालन हो रहा है।
दूसरी तरफ़ एनडीए में ही शामिल निषाद पार्टी के प्रमुख और योगी कैबिनेट में मंत्री संजय निषाद ने भी योगी सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। संजय निषाद कह रहे हैं कि आरक्षण के मुद्दे पर सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दल ख़त्म हो गये। आरक्षण संविधान का दिया हुआ हक़ है, जिसमें कई विसंगतियाँ हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। अगर ये कमियाँ दूर हो जाएँ, तो कई मुद्दों का हल हो जाएगा। उनकी माँग है कि पिछड़ों के साथ-साथ निषादों के आरक्षण पर भी सरकार को चर्चा करनी चाहिए। वह प्रदेश में 10 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अपने लिए दो सीटें भी माँग रहे हैं।
कुछ राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि इस प्रकार से योगी सरकार पर आरोपों से ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ पिछड़ों को भड़काया जा रहा है और ऐसा नहीं है कि यह उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोगी दल ही कर रहे हैं। कहीं-न-कहीं भाजपा में कई विधायक और मंत्री भी ऐसे हैं, जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर हमलावर हैं। आरक्षण में घपला करने के आरोप कहाँ तक सही हैं और कितने ग़लत? यह तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन इसका कुछ असर योगी के ऊपर ज़रूर पड़ रहा होगा, क्योंकि अभी वह दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और उन्हें अपने समर्थकों की संख्या घटने का डर तो रहेगा ही। तो क्या माना जाए कि सहयोगी दलों के इस प्रकार के वाद-विवाद और पत्राचार से मुख्यमंत्री योगी को कमज़ोर करने की साज़िशें और कोशिशें केवल बाहर से नहीं, बल्कि अंदर भी हो रही हैं? लेकिन भाजपा के सहयोगी दलों के नेताओं के अलावा भाजपा के नेताओं को यह समझ होनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को कमज़ोर करने से भाजपा ही कमज़ोर होगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश में भाजपा के समर्थकों की आज जो भी संख्या है, उसमें सबसे ज़्यादा समर्थक योगी आदित्यनाथ के ही हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह भी सोचना चाहिए कि विपक्ष जानता है कि जब तक दिल्ली और लखनऊ के रिश्ते तल्ख़ नहीं होंगे, तब तक उत्तर प्रदेश में भाजपा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। इसलिए अगर भाजपा में या उसके सहयोगी दलों वाले एनडीए में योगी आदित्यनाथ की अगर ख़िलाफ़त रहेगी, तो आगामी चुनावों में भाजपा को प्रदेश में बड़ा नुक़सान होगा। हालाँकि योगी ने पिछले दिनों 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव की कमान अपने हाथ में लेते हुए पिछले दिनों 15 मंत्रियों की बैठक बुलाकर उनको इन 10 विधानसभा क्षेत्रों का प्रभारी बनाया और कहा कि इन विधानसभाओं पर कौन उपयुक्त उम्मीदवार हो? कहाँ किस वजह से नाराज़गी है? उसको कैसे ठीक किया जाए? इसकी रिपोर्ट वे जल्द ही उन्हें (मुख्यमंत्री को) सौंपें। योगी का 15 मंत्रियों का टीम बनाकर क्षेत्र की रिपोर्ट माँगना जताता है कि वह किसी भी हाल में यह उपचुनाव हारना नहीं चाहते; क्योंकि यह उपचुनाव भाजपा और योगी के लिए भी एक परीक्षा है, जो उत्तर प्रदेश में इस पार्टी और मुख्यमंत्री योगी का भविष्य तय करेगा।
बहरहाल सहयोगियों के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वो पाला कभी भी बदल सकते हैं और सरकार किसी और दल की बनते ही या बनने के आसार दिखते ही उन्हें ऐसा करने में समय नहीं लगेगा। लेकिन भाजपा के नेताओं को विचार करना होगा कि कोई भी पार्टी को सिर्फ़ बाहरी सहयोगियों के विरोध से नहीं, बल्कि भीतरघात से भी बचाया जाना ज़रूरी होता है। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ भाजपा नेताओं की कथित शिकायते हैं कि सरकार में उनकी सुनी ही नहीं जाती है।