04 जून के बाद से विपक्ष मज़बूत और आक्रामक मूड में नज़र आ रहा है। इसकी वजह यह भी है कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों, जहाँ भारतीय जनता पार्टी की सरकारें थीं; वहाँ भी भाजपा की सीटें घटना भाजपा के लिए एक बुरे सपने जैसा है। अब भाजपा को कहीं-न-कहीं यह अहसास हो चुका है कि विपक्षी पार्टियों को ज़्यादा-से-ज़्यादा कमज़ोर किये बिना राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसके लिए अपनी सरकारों को बरक़रार रखना मुश्किल होगा। लेकिन कठिन परिस्थितियों के बावजूद हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत उन पार्टी नेताओं के लिए संजीवनी का काम कर गयी, जिन्हें चुनाव में हार होने पर किनारे किया जा सकता था।
हालाँकि संकट अभी टला नहीं है। भले ही इस जीत से भाजपा नेता उत्साहित नज़र आ रहे हैं। क्योंकि हरियाणा जीतने पर भी केंद्र में टिके रहने की चुनौती भाजपा के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है। क्योंकि जिन बैसाखियों के सहारे एनडीए गठबंधन के सहारे केंद्र में जो मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनी हुई है, उसकी बैसाखियाँ भरोसेमंद नज़र नहीं आ रही हैं, ख़ासतौर पर जदयू नाम की बैसाखी। इंडिया गठबंधन में शामिल पार्टियों ने भी सियासी रूप से कांग्रेस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वह अपनी सहयोगी पार्टियों को राज्यों में अनदेखा न करे। क्योंकि विधानसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश में सपा को, हरियाणा में आम आदमी पार्टी को और दूसरे राज्यों में अन्य स्थानीय सहयोगी पार्टियों को नज़रअंदाज़ करना और यह कहना कि गठबंधन तो लोकसभा चुनाव के लिए हुआ है, कांग्रेस को भी नुक़सान पहुँचा रहा है और इंडिया गठबंधन की दूसरी पार्टियों को भी। हालाँकि उत्तर प्रदेश में लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन करने और हरियाणा में कांग्रेस की हार के बाद अखिलेश यादव ने कांग्रेस पर दबाव बनाने का दाँव चलते हुए उत्तर प्रदेश की 10 सीटों में से छ: सीटों पर अपने उम्मीदवारों का नाम घोषित कर दिया है। अन्य सहयोगी पार्टियाँ भी मानती हैं कि कांग्रेस राज्यों में उनकी उपेक्षा करती है और जहाँ कांग्रेस मज़बूत स्थिति में है, वहाँ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सौतेला व्यवहार करती है। सहयोगी पार्टियाँ इसको कांग्रेस की हठधर्मिता और दादागीरी मान रही हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस सहयोगियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं कर रही है। ऐसे में कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं का विचार है कि कांग्रेस को एक बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
कांग्रेस की एक वरिष्ठ नेता ने कहा है कि राहुल गाँधी को उनके सुझाव पर काम करना चाहिए। उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव के बाद हुए पहले विधानसभा चुनावों में हरियाणा के विधानसभा के अप्रत्याशित नतीजों ने कांग्रेस समेत सारे इंडिया गठबंधन को भीतर तक झकझोर कर रख दिया है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि हरियाणा में जनता की केंद्र और राज्य सरकारों के प्रति भारी नाराज़गी और बड़े पैमाने पर भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान करने के बावजूद भाजपा का जीतना चुनाव नतीजों में भारी हेर-फेर की पुष्टि कर रहा है। अब इंडिया गठबंधन महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों और इसके बाद कुछ ही महीनों में होने वाले दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भी धाँधली होने की पूरी संभावना देख रहा है। कांग्रेस नेता के मुताबिक, जब तक मोदी प्रधानमंत्री हैं, तब तक चुनाव आयोग, उसकी ईवीएम और इनके साथ-साथ ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स आदि जाँच एजेंसियाँ, सब-की-सब मोदी के हाथ में हैं। ऐसे में कोई कुछ भी कर ले, कितना भी चिल्ला ले और जनता किसी को भी ज़्यादा वोट दे दे; लेकिन चुनाव परिणाम मोदी ही तय करेंगे। क्योंकि मोदी जानते हैं कि यह उनका अंतिम दौर है और इसलिए वह सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जाकर तमाम हथकंडे अपनाते हुए राजनीतिक पैंतरेबाज़ी करेंगे। ज़ाहिर है कि उन्हें अपने अंतिम दौर में लोकतंत्र की कोई चिन्ता उन्हें बिलकुल भी नहीं है।
वरिष्ठ कांग्रेस नेता आगे कहते हैं कि अब महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस को राहुल गाँधी के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन के साथ मिलकर मोदी को केंद्र की सत्ता से बेदख़ल करना ही होगा, वरना कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि मेरा विचार है कि इसके लिए कांग्रेस को किसी भी क़ुर्बानी से पीछे नहीं हटना चाहिए। कांग्रेस के लिए यह करो या मरो की स्थिति है, जिसमें नीतीश कुमार को तत्काल प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव दे देना चाहिए। क्योंकि नीतीश भी जानते हैं कि भाजपा उनको कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बना सकती और अगले साल उनसे मुख्यमंत्री पद भी जाने ही वाला है। उनकी पार्टी भी टूटने के क़गार पर है। ऐसे में नीतीश के लिए यह ऑफर फ़ायदे का सौदा ही होगा। उधर दूसरी तरफ़ वह तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाकर बिहार को भी अपने क़ब्ज़े में रख सकते हैं। नीतीश अगर साथ आ गये, तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को आंध्र प्रदेश के लिए विशेष राज्य का दर्जा या विशेष पैकेज देकर मनाया जा सकता है। अब व$क्त आ गया है कि राहुल गाँधी इस ब्रह्मास्त्र का खुलकर उपयोग करें। क्योंकि यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि चंद्रबाबू नायडू जब जेल में थे, तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी कोई मदद नहीं की थी। इसलिए चंद्रबाबू नायडू के दिल के किसी कोने में वह टीस भी है, जिसकी वजह से वह अंदरख़ाने प्रधानमंत्री मोदी भी क़तई सहज नहीं हैं।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का मानना है कि ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, मायावती, लालू यादव आदि सारे विपक्षी नेताओं को मोदी ने एजेंसियों के माध्यम से दबाव में लेकर परेशान किया हुआ है। नीतीश के आने से तमाम दबाव समाप्त हो जाएँगे। इसके अलावा ऐसा करने से नीतीश कुमार का जातीय जनगणना का वादा और राहुल गाँधी का किसानों का एमएसपी देने और कर्ज माफ़ी का वादा भी पूरा हो सकेगा, जिससे देश के किसान भी नयी सरकार आने से आन्दोलन छोड़कर शान्त बैठ जाएँगे। इसके अलावा कई राज्यों के राज्यपाल भी बदले जा सकेंगे, जो विपक्षी पार्टियों के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के ऊपर लगातार दबाव बनाये रहते हैं और उनके कामों में टाँग अड़ाते रहते हैं। जिस प्रकार से ममता बनर्जी की सरकार के ऊपर राज्यपाल की दख़लअंदाज़ी रहती है और दिल्ली में केजरीवाल सरकार के ऊपर उप राज्यपाल के दख़लअंदाज़ी सर्वविदित है ही, उससे भी निजात मिल सकेगी। चिराग पासवान भी कहीं-न-कहीं भाजपा और मोदी से त्रस्त हैं, क्योंकि मोदी-शाह उनकी पार्टी को तोड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उनके चाचा पशुपति पारस को बढ़ावा देकर चिराग के लिए भी ख़तरे की घंटी बजाते रहते हैं। इस प्रकार से चिराग का ख़तरा भी सरकार बदलने से टल जाएगा और वह भी इंडिया गठबंधन का हिस्सा होंगे। क्योंकि इस बात से तमाम सियासी पार्टियाँ त्रस्त हैं कि मोदी जिसका जिससे चाहें गठबंधन करवा देते हैं, पार्टी तुड़वाकर सरकार गिरवा देते हैं। तो नीतीश को चाहिए कि तेजस्वी यादव को तत्काल बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर ख़ुद इंडिया गठबंधन के साथ मिलकर केंद्र में बैठें। क्योंकि कुछ ही दिनों में महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनाव हैं। इसके बाद अगले साल दिल्ली, बिहार के विधानसभा चुनाव और 2026 के मध्य में पश्चिम बंगाल में भी चुनाव हैं। अखिलेश यादव को भी समझना होगा कि उत्तर प्रदेश में 2027 में विधानसभा के चुनावों में भी कुछ भी होना है। अत: इन स्थितियों में जीत की कोई गारंटी नहीं है। इसलिए राहुल गाँधी के नीतीश कुमार को इस ब्रह्मास्त्र के तहत प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव करने के इस फ़ैसले को अखिलेश यादव को भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। अगर इन राज्यों में भाजपा किसी भी तरह तिकड़म भिड़ाकर जीत गयी, तो फिर किसी भी हाल में विपक्ष की राज्यों और केंद्र में वापसी आसानी से नहीं होने वाली है। और जिस प्रकार से दिल्ली की मुख्यमंत्री का सामान मुख्यमंत्री आवास से बाहर निकलवाकर मुख्यमंत्री आवास में साज़िशन ताला जड़ दिया गया है। ऐसा फिर दूसरे उन राज्यों में भी हो सकता है, जहाँ भाजपा की सरकार नहीं बन सकेगी। और भविष्य में एक गुंडागर्दी के तहत केंद्र से लेकर राज्यों की सत्ताओं तक पर क़ब्ज़ा किया जा सकता है।
बहरहाल अगर किसी भी तरह से केंद्र में सरकार बदलती है, तो आगामी तमाम विधानसभा चुनाव निष्पक्ष हो सकेंगे और नौकरशाहों, अधिकारियों, कर्मचारियों के साथ-साथ मीडिया और व्यापारी आदि सब पलट जाएँगे। तमाम विपक्षी नेताओं की प्रताड़ना भी ख़त्म हो जाएगी। 2027 में राष्ट्रपति के भी चुनाव होने हैं, जिसमें केंद्र सरकार बदलने से इंडिया गठबंधन को बहुत बड़ी मदद मिलेगी। लिहाज़ा लोकतंत्र को मज़बूत करना है, तो कुछ अलग और कुछ बड़ा सोचना ही होगा। अगर विपक्ष को भाजपा की हरियाणा की तरह दूसरे राज्यों में हारकर भी चौंकाने वाली जीत से बचना है या फिर निष्पक्ष होकर मुक़ाबला करना है, तो उसे तत्काल महाराष्ट्र और झारखण्ड के चुनावों से पहले ही नीतीश कुमार को अपने पाले में लाकर भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी की इस जीती हुई बाज़ी को पलटते हुए बैसाखियों वाली सरकार को गिराना होगा, वरना 2029 तक ऐसे ही परिणाम भाजपा के पक्ष में आते रहेंगे और विपक्ष इतना कमज़ोर हो जाएगा कि उसमें आपसी बयानबाज़ी की नूराकुश्ती चलने के सिवाय और कुछ मुश्किल से ही बचेगा। और जाहिर है कि अगर विपक्ष इससे भी ज़्यादा कमज़ोर हो गया, तो विपक्षी नेताओं को हमेशा के लिए जेल में जाने और विपक्षी पार्टियों को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकेगा। क्योंकि 50 साल तक शासन करने की जिस रणनीति के तहत मोदी-शाह की जोड़ी काम कर रही है, उसमें जनता की मज़ीर् न भी हो, तो भी सत्ता में आने से इस जोड़ी को कोई नहीं रोक सकेगा। समझने वाली बात है कि जो लोग सत्ता में आने के बाद अपनी मातृसत्ता संघ के बारे में ऐसा बोल सकते हैं कि अब भाजपा को संघ की ज़रूरत नहीं हैं, उनके लिए विरोधी पार्टियाँ क्या मायने रखती हैं? जबकि संघ के लोग हर चुनाव में भाजपा की जीत के लिए ज़मीनी स्तर पर जो मेहनत करते हैं, उसकी वजह से भाजपा का मत प्रतिशत काफ़ी बढ़ जाता है। अगर किसी चुनाव में संघ बिलकुल भी भाजपा के लिए मैदान में न उतरे, तो भाजपा को चौंकाने वाली हार का मुँह भी देखना पड़ सकता है। लेकिन पता नहीं किस बात का अहंकार है कि भाजपा के कुछ बड़े नेता संघ को भी आँख दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। हालाँकि अब संघ ने शिकंजा कसना शुरू कर दिया है और कोई बड़ी बात नहीं कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर एक ऐसा चेहरा लाया जाए, जो इन नेताओं का अहंकार तोड़ सके।
कुछ लोगों का दावा है कि नागपुर में इसके लिए कई बैठकें हो चुकी हैं, जिसमें कई भाजपा नेता भी शामिल हुए हैं और उनका भी यही मानना है कि कुछ बेलगाम लोगों की नकेल इसलिए भी कसी जानी चाहिए, क्योंकि वे किसी को भी कुछ नहीं समझ रहे हैं। बहरहाल, भविष्य में क्या होगा? यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। अभी इंतज़ार के अलावा कुछ और नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)