करीब दो साल पहले की बात है. लालू प्रसाद यादव ‘तहलका’ से बातचीत कर रहे थे. इस दौरान शराब पर बात होने लगती है. लालू कहते हैं, ‘देखिए नीतीश को, उसका लोग शराबबंदी की बात को हवा में उड़ाता है. गरीबों का ‘लाल पानी’ बंद करवा देगा. बताइए गरीबों का लाल पानी बंद होगा तो उसका असर पड़ेगा न ! गरीबों को लाल पानी जरूर चाहिए. शराब की चेकिंग हो, उस पर नियंत्रण हो लेकिन उसकी बंदी तो कभी नहीं होने देंगे. बंद ही करना हो तो अमीरों का लाल पानी बंद होना चाहिए या उनके लिए शराब महंगी हो जानी चाहिए.’
लालू प्रसाद से हुई इस बातचीत से दो बातें साफ होती हैं. एक यह कि लालू प्रसाद यादव पूर्णतः शराबबंदी और उसमें भी देसी शराब की बंदी के पक्ष में कभी नहीं रहे. दूसरी बात यह कि नीतीश कुमार की यह बेचैनी बहुत दिनों से थी कि वे शराबबंदी कर दें. सत्ता संभालने के ठीक छठे दिन 26 नवंबर को मद्य निषेध दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में नीतीश कुमार ने यह घोषणा भी कर दी.
नीतीश कुमार के दस वर्षों के कार्यकाल में हर गांव में या पंचायत स्तर पर शराब की दुकान खुलवाने वाला काम ही ऐसा रहा, जिससे न सिर्फ उनकी बदनामी होती रही बल्कि उसका नुकसान राज्य को भी उठाना पड़ा. घरेलू कलह से लेकर सामाजिक तनाव तक बढ़ा. इसका नुकसान सबसे ज्यादा उन महिलाओं को ही उठाना पड़ा, जो नीतीश की वोट बैंक मानी जाती रही हैं. स्थिति यह हुई कि नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल देकर और पंचायत चुनाव में आरक्षण देकर महिलाओं के बीच जो पैठ बनाई थी, वह भी दांव पर लगती गई. कई इलाकों में प्रायोजित तौर पर ही सही, ऐसी रैलियां भी निकलने लगी थीं, जिसमें लड़कियां हाथों में तख्तियां लेकर यह कहतीं कि ‘नीतीश अंकल आप अपनी साइकिल वापस ले लीजिए लेकिन शराब की दुकान बंद करवा दीजिए.’ बच्चियों के इस अभियान को तो फिर भी राजनीतिक तौर पर प्रायोजित अभियान माना गया लेकिन पिछले एक साल में राज्य में जिस तरह से अलग-अलग हिस्सों में महिलाओं ने शराब के खिलाफ छोटे-छोटे समूहों में मोर्चा संभाला था और शराबबंदी की कोशिश में लगी हुई थीं, उसके बाद नीतीश कुमार या किसी की भी सरकार आने पर कोई रास्ता नहीं बचता था. ऐसे में शराबबंदी की घोषणा करना ही एकमात्र विकल्प बच गया था.
महिलाओं ने राज्य में शराबबंदी के खिलाफ किस तरह से कमान संभाली, उसकी बानगी बिहार चुनाव के दौरान भी देखने को मिली थी. रोहतास जिले में महिलाओं ने शराबबंदी के लिए नोटा का प्रचार शुरू कर दिया था. पांच सितंबर को एक बड़ी खबर छपरा के शोभेपुर गांव से आई कि वहां शराबबंदी के लिए समूह में पहुंचीं महिलाओं ने शराब के अड्डों पर धावा बोला, अड्डे को ध्वस्त किया और कारोबारी देखते ही रह गए. ऐसी ही खबरें पटना से सटे मनेर हल्दी, छपरा, सादिकपुर, शेरपुर, छितनावां जैसे गांवों से आई थीं कि वहां महिलाओं ने शराब के अड्डों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है. बरबीघा जैसे इलाके से तो यहां तक खबर आई कि महिलाओं ने समूह बनाकर पीनेवाले और पिलानेवाले, दोनों पर भारी जुर्माना और सार्वजनिक तौर पर डंडे से पिटाई जैसे दंड की व्यवस्था की न सिर्फ घोषणा की थी बल्कि उस पर अमल भी किया.
बिहार में पहली बार पूर्ण शराबबंदी की घोषणा 1977-78 में हुई थी लेकिन यह कारगर नहीं हो सकी थी. कुछ लोगों का मानना है कि इस बार भी यही होगा
शराबबंदी के इन तमाम अभियानों में एक बात समान रही कि ये बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के महिलाओं ने खुद ही चलाए. नीतीश कुमार यह बात बहुत पहले से जान गए थे कि अगर शराबबंदी नहीं की गई तो उन्हें राजनीतिक तौर पर इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. इसलिए नीतीश ने चुनाव से पहले जुलाई में ही महिलाओं के एक कार्यक्रम में कह दिया था कि अगर उनकी सरकार आई तो वे शराबबंदी करेंगे. जानकार मानते हैं कि नीतीश के उसी आश्वासन का असर था कि महिलाओं ने फिर से उनके पक्ष में वोट किया. सरकार बनते ही शराबबंदी के फैसले का एेलान करने के पीछे भी कारण यह बताया जा रहा है कि नीतीश किसी भी कीमत पर महिला वोट बैंक को कहीं और नहीं जाने देना चाहते.
हालांकि इस ऐलान के बाद से ही कई सवाल खड़े हो गए हैं. पहला सवाल तो यही उठाया जा रहा है कि खुद नीतीश कुमार के ही कार्यकाल में शराब गांव-गांव तक व्यवस्थित रूप में पहुंची है तो क्या शराबबंदी कर देने से वर्षों की लगी हुई लत अचानक खत्म हो जाएगी या फिर शराबखोरी दूसरे रूप में देखने को मिलेगी.
अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की रामपरी देवी कहती हैं, ‘सिर्फ सरकारी स्तर पर शराबबंदी का मामला नहीं है. हमारा आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक गांव-गांव में अवैध शराब की बिक्री बंद नहीं हो जाती है.’ रामपरी जैसी महिलाएं जानती हैं कि शराबबंदी के महज ऐलान कर देने से कुछ नहीं होने वाला उसका स्वरूप बदलेगा और उसका प्रकोप भी, क्योंकि चुलाई वाली शराब (महुवे से बनने वाली खतरनाक देसी शराब) से स्थितियां और बदतर होगी. लोजपा नेता व सांसद चिराग पासवान भी इसी बात को दोहराते हैं. चिराग कहते हैं, ‘नीतीश कुमार की इस घोषणा का स्वागत है लेकिन उनके ही राजकाज में शराब गांव-गांव तक पहुंची है. ऐसे में वे अपने इस फैसले को लागू कैसे करवाएंगे, यह देखना होगा.’ हालांकि भाजपा नेता गिरिराज सिंह जैसे लोग इस फैसले के बारे में दूसरे किस्म की बात करते हैं. गिरिराज कहते हैं, ‘नीतीश कुमार के इस फैसले का लागू होना इस बात पर निर्भर करेगा कि इसमें लालू प्रसाद यादव की कितनी सहमति है. अगर लालू की सहमति है तो बेहतर होता कि यह ऐलान नीतीश कुमार उनसे ही करवाते.’
गिरिराज जैसे नेता जानते हैं कि लालू यादव इतनी आसानी से सरेआम शराबबंदी का ऐलान नहीं करने वाले हैं. बिहार में शराब का सीधा रिश्ता वोट से है. चुनाव के वक्त शराब बांटे जाने के मामले तो होते ही हैं. देसी शराब की बंदी से एक बड़ा समूह है जो बिदक सकता है. जबकि दूसरी ओर नीतीश जानते हैं कि शराबबंदी के ऐलान से उन्हें देर-सबेर राजनीतिक तौर पर भी फायदा होगा. महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने जितने काम किए हैं और जिस वजह से महिलाएं राजनीतिक तौर पर उनकी मुरीद हुई हैं, उसमें बस शराब ही एक ऐसा पेंच रहा है, जिसके कारण वे नीतीश से अलग हो सकती थीं.
खैर यह तो राजनीतिक दांव-पेंच है. दूसरा सवाल राजस्व का खड़ा हुआ है. बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां राजस्व का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत शराब ही रहा है. 2012 से अब तक देखें तो हर साल शराब से राजस्व में लगातार बढ़ोतरी होती रही है. वित्तीय वर्ष 2012-13 में जहां शराब से 2,600 करोड़ रुपये राजस्व प्राप्ति हुई थी, वह 2013-14 में बढ़कर 3,100 करोड़ रुपये हुई, उसके अगले साल 3,250 करोड़ और फिर 2015-16 में अब तक बढ़कर 4,000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है. शराब से बिहार में प्राप्त होने वाले राजस्व का एक गणित यह भी है कि इससे उत्पाद विभाग के अलावा वाणिज्य कर विभाग भी राजस्व वसूलता है.
इस आधार पर देखें तो चालू वित्तीय वर्ष में यह 5,300 करोड़ रुपये तक पहुंच जाने का अनुमान है. इससे अधिक राजस्व बिहार को सिर्फ वाणिज्य कर से मिल रहा है, जिससे वित्त वर्ष 2014-15 में 21,375 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई.
अगर बिहार जैसे राज्य के आर्थिक हित को ध्यान में रखकर देखें तो यह एक बड़े नुकसान की ओर संकेत देता है लेकिन इसको भी झेलने को तैयार होकर शराबबंदी की घोषणा करना नीतीश कुमार के राजनीतिक व्यक्तित्व को और बड़े रूप में स्थापित करने वाला फैसला साबित होगा, इसकी उम्मीद की जा रही है. नीतीश कुमार खुद कहते हैं, ‘उन्हें मालूम है कि शराब से करोड़ों के राजस्व की प्राप्ति होती है. यह राजस्व इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि हमने उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग में राजस्व की चोरी रोकने का उपाय किया. इसी वजह से यह पांच सालों में एक हजार करोड़ से बढ़कर चार हजार करोड़ रुपये तक पहुंचा.’ नीतीश कुमार के मुताबिक राजस्व की इस क्षति को वह दूसरे तरीके से प्राप्त करने की कोशिश करेंगे लेकिन महिलाओं के हित को ध्यान में रखकर इस फैसले को जरूर लागू करेंगे. नीतीश कुमार जितने दृढ़ संकल्प के साथ इस बात को दोहरा रहे हैं, उससे यह भरोसा मिलता है कि बिहार में अप्रैल से शराबबंदी लागू होगी. हालांकि कुछ लोगों को आशंका है कि इसका भी 1977-78 वाला ही हाल होगा. बिहार में पहली बार पूर्णतः शराबबंदी की घोषणा 1977-78 में हुई थी लेकिन वह कारगर साबित नहीं हो सकी थी. फिलहाल शराबबंदी की घोषणा के बाद बिहार में 4,939 शराब दुकानों की ओर रोज देखा जा रहा है और उन्हें कहा जा रहा है कि आपके दिन जाने वाले हैं. दूसरी ओर कई जगह से यह सूचनाएं भी मिल रही हैं कि शराबबंदी की घोषणा के बाद शराब के कारोबारी तेजी से शिक्षा के धंधे में आने की तैयारी में हैं. वे स्कूल और कॉलेज आदि खोलने में लग गए हैं.