हिसार के पश्चिमी छोर पर स्थित एक विशाल फॉर्महाउस विरोधाभासों की जमीन है. इसके आधे हिस्से में एक शानदार कोठी, लॉन और पोर्टिको बने हैं जबकि बाकी का आधा हिस्सा बेतरतीब काली पॉलीथीन से ढंकी करीब 60-70 झुग्गियों से पटा हुआ है. जहां-तहां पानी के गड्ढे हैं जिनमें मच्छर और मक्खियां बहुतायत में पल-बढ़ रहे हैं. इसी झुग्गी बस्ती में अपनी कुछ मुर्गियों और दो सुअरों के साथ 80 साल के सूबे सिंह एक आम के पेड़ के नीचे अपनी खटिया डाले मिलते हैं. पिछले साढ़े तीन साल से यही उनका ठिकाना है. यहां आने से पहले वे हिसार से लगभग 60 किलोमीटर दूर मिर्चपुर गांव में रहते थे. वहां इनका पैतृक आवास था, आज भी है, लेकिन अब वहां कोई रहता नहीं. मिर्चपुर के पैतृक आवास से हिसार के फार्महाउस तक आने की कहानी बताते हुए 80 साल के इस बुजुर्ग की लिजलिजी आंखों में भय और आतंक का एक पूरा दौर गुजर जाता है.
21 अप्रैल 2010 की बात है. सुबह सात बजे ही मिर्चपुर गांव में स्थित वाल्मीकि बस्ती को गांव के ताकतवर जाटों ने घेर लिया था. सूबे सिंह उस रात अपने एक मंजिला घर की छत पर सोए थे. सुबह जब उन्होंने इस घेरेबंदी को देखा तो छत से नीचे उतरने की बजाय सीढ़ी की कुंडी बंद करके छत पर ही एकांत में दुबक गए. बाहर हजारों की संख्या में मौजूद जाटों की भीड़ आक्रामक होती जा रही थी. बूढ़े सूबे सिंह दुबक कर छत के एक कोने में अपने भगवान को याद कर रहे थे. साढ़े दस बजते-बजते इस उन्मादी भीड़ ने घरों के ऊपर मिट्टी का तेल और डीजल छिड़क कर उनमें आग लगाना शुरू कर दिया. आग में घिरा एक घर सूबे सिंह का भी था. जब लपटें ऊपर उठने लगीं तब सूबे सिंह जान बचाने के लिए चिल्लाने लगे. उनकी आवाज सुनकर उन्मादी भीड़ के कुछ लोग छत से उन्हें घसीटते हुए नीचे ले आए और उनके ऊपर भी मिट्टी के तेल से भरा कनस्तर उड़ेल दिया. यह सब गांव के सामने हो रहा था. सूबे सिंह की जान खतरे में देखकर कुछ वाल्मीकि युवकों ने हिम्मत कर भीड़ से लोहा लिया और किसी तरह उन्हें भीड़ से छुड़ाकर सुरक्षित स्थान पर ले गए.
इस दौरान बस्ती के बाकी दूसरे घर भी धू-धू कर जलने लगे थे. इन्हीं में एक घर बजुर्ग ताराचंद का था जो अपनी 18 साल की विकलांग बेटी सुमन के साथ घर पर ही छूट गए थे. ताराचंद के तीन बेटों समेत गांव के ज्यादातर लोगों ने एक सुरक्षित घर में शरण ले रखी थी. 42 वर्षीय रमेश कुमार बताते हैं, ‘भीड़ जब घरों में आग लगाकर छंटने लगी तब हम लोग वापस अपने घरों की तरफ गए. तारांचद और उनकी बेटी सुमन की जली हुई लाश उनके घर में ही पड़ी हुई थी. भीड़ ने उन्हें जलाकर मार दिया था.’
इस घटना के बाद मिर्चपुर के लगभग डेढ़ सौ दलित परिवारों ने गांव छोड़ दिया. कुछ अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए कुछ हिसार आ गए. हिसार में बसपा नेता वेदपाल तंवर ने इन परिवारों को अपने फॉर्म हाउस में रहने के लिए जगह दी. शुरुआत के दिनों में उन्होंने इनके खाने-पीने का भी इंतजाम किया. इसी फार्महाउस का जिक्र ऊपर आया है. आज भी इस फार्महाउस में मिर्चपुर के 80 दलित परिवार रह रहे हैं. लगभग 35 परिवारों ने अपने रिश्तेदारों और दूसरे शहरों में शरण ले रखी है. कोई भी वापस मिर्चपुर नहीं जाना चाहता. सूबेसिंह के शब्दों में, ‘मेरे जीने और मरने के बीच माचिस की एक तीली का अंतर था. आप मुझसे उनके बीच वापस जाने के लिए कह रहे हैं. वे न तो हमसे बोलते हैं, न हमारे साथ उठते-बैठते हैं. वे धमकियां भी देते रहते हैं. तो हम गांव में जाकर क्या करेंगे. हम सरकार से चाहते हैं कि हमें अलग से कहीं जमीन देकर बसा दिया जाए.’
मिर्चपुर की घटना ने हरियाणा से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मचा दिया था. कह सकते हैं कि यह घटना सदियों से दलित समाज के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का ही एक और नमूना थी लेकिन इसके कुछ और भी संदेश थे. पहले से ही गांवों में दलित-बस्तियां अलग-थलग होती थीं लेकिन इस घटना ने बताया कि वहां के सवर्ण, दलितों को रहने के लिए अलग-थलग जगह भी देने को तैयार नहीं थे.
घटना से दो दिन पहले 19 अप्रैल 2010 को रात में आठ बजे के करीब जाट बिरादरी के कुछ लड़के वाल्मीकि बस्ती से गुजर रहे थे. उन्हें देखकर करण सिंह वाल्मीकि के कुत्ते ने भोंकना शुरू कर दिया. इससे नाराज होकर जाट लड़कों ने कुत्ते को पत्थर मारना शुरू कर दिया. पत्थर मारने वालों में राजेंदर, ऋषि और सोनू के नाम सामने आए. जाट लड़कों के इस कृत्य का योगेश वाल्मीकि ने विरोध किया. जाट लड़कों ने योगेश को पीटना शुरू कर दिया. करण सिंह ने किसी तरह से जाटों को शांत करके वापस भेजा. जाट संतुष्ट नहीं हुए. अगले दिन उन्होंने दलितों से माफी की मांग की. इस पर करण सिंह और बीरभान जाटों से माफी मांगने के लिए पहुंचे. पर जाट मानने को तैयार नहीं हुए. वहां एक बार फिर से जाटों ने करण सिंह और बीरभान की जमकर पिटाई कर दी. इस मारपीट में बीरभान को इतनी गंभीर चोटें आई कि उसे हिसार के सरकारी अस्पताल में ले जाना पड़ा. इसके बाद अगले दिन यानी 21 अप्रैल को गांव के जाटों ने सुबह से ही दलित बस्ती के ऊपर अपनी ताकत का नंगा नाच शुरू कर दिया. घर लूटे गए, 19 घरों को जलाकर राख कर दिया गया, 20 लोगों को गंभीर चोटें आईं, दो लोगों की मौत हो गई. पर जाटों का गुस्सा और इच्छा अभी पूरी नहीं हुई थी. 24 अप्रैल को अपने तालिबानी फैसलों के लिए बदनाम इलाके की 42 खापों ने मिलकर घोषणा की कि इस मामले में गिरफ्तार 35 जाटों को नहीं छोड़ा गया तो नौ मई को वे सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ेंगे.
इसके बाद यह मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया, देश भर की मीडिया मिर्चपुर की ओर दौड़ पड़ा. मामला अदालत में पहुंच गया. मामले से जुड़े चश्मदीदों को जाटों ने डराना-धमकाना शुरू कर दिया. इस पर दलितों की पैरवी कर रहे वकील रजत कल्सना ने सर्वोच्च न्यायालय से मामले की निष्पक्ष सुनवाई के लिए मामले को हरियाणा से बाहर स्थानांतरित करने की मांग की. सर्वोच्च न्यायालय ने मामला दिल्ली में शिफ्ट कर दिया. दिल्ली की रोहिणी अदालत ने 24 सितंबर 2011 को इस मामले का निर्णय सुना दिया. इस मामले में कुल 97 अभियुक्त थे. कोर्ट ने 15 को दोषी करार दिया, बाकी 82 अभियुक्तों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया. इन 15 दोषियों में से तीन आरोपियों को आजीवन कारावास की, पांच को पांच साल की और सात आरोपियों को दो-दो साल की सजा हुई है.
कानूनी तौर पर एक कदम आगे बढ़ जाने के बावजूद इस मामले की कई गिरहें अभी खुलनी बाकी हैं. रजत कल्सन जिन्हें इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए एक सु्रक्षा गार्ड मिला हुआ है, बताते हैं, ‘हमने मामले की अपील उच्च न्यायालय में की है. उच्च न्यायालय ने बरी कर दिए गए 82 में से 57 अभियुक्तों को दोबारा से नोटिस जारी किया है. इतने बड़े पैमाने पर हुई घटना को सिर्फ 15 लोग अंजाम नहीं दे सकते हैं.’
इस आपराधिक मामले के अलावा मिर्चपुर कांड से जुड़ा एक और मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है. यह पीड़ितों के पुनर्वास और मुआवजे से जुड़ा है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर राज्य सरकार ने कुछ पीड़ितों को नौकरी और नकद मुआवजा देने जैसी औपचारिकताएं पूरी कर दी हैं. जो घर फूंक दिए गए थे उनका भी निर्माण कर दिया गया है. लेकिन उनमें रहने को कोई तैयार नहीं. चूंकि इस घटना में एक ही परिवार के दो लोगों की मौत हुई थी इसलिए मृतक ताराचंद के तीनों बेटों को तो सरकारी नौकरियां मिल चुकी हैं. लेकिन बाकियों के रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. जिन 4-6 और लोगों को नौकरियां मिली हैं वे अस्थायी हैं. यह एक बड़ी वजह है जिसके चलते वेदपाल तंवर के फार्म हाउस और अपने रिश्तेदारों के यहां रह रहे लोग वापस अपने घरों में लौटने के लिए तैयार नहीं हैं.
वेदपाल तंवर बताते हैं, ‘हरियाणा के गांवों का मिजाज देश के बाकी हिस्सों से अलग है. यहां एक तबका बहुत ज्यादा संपंन और सक्षम है तो दूसरा बिल्कुल भूमिहीन और हाशिए पर है. ये दलित हैं जिनकी आजीविका पूरी तरह से जाटों के ऊपर निर्भर है. जब जाट इन्हें कोई काम नहीं देगें अपने खेतों पर तो ये लोग गांव में खाएंगे क्या. इनकी आजीविका का संकट है. जाटों की खापें इतनी प्रभावशाली हैं कि उनके खिलाफ कोई जा नहीं सकता. खापों ने इनके बहिष्कार की घोषणा कर रखी है. इसलिए इनकी मांग है कि इन्हें हिसार के आस-पास कहीं बसा दिया जाय. पर राज्य सरकार इसके लिए तैयार नहीं है.’
हरियाणा की सरकार दलितों को किसी भी कीमत पर अलग से बसाने के लिए तैयार नहीं है. उसका दबाव है कि दलित एक बार फिर से मिर्चपुर के अपने पैतृक गांव वापस लौट जाएं. रजत कल्सन बताते हैं, ‘हरियाणा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा है कि उसने मिर्चपुर के पीड़ितों के पुनर्वास पर 19 करोड़ खर्च किए हैं. इसकी सच्चाई यह है कि इनमें से 15 करोड़ रुपया सीआरपीएफ और पुलिस की तैनाती पर खर्च किए गए हैं. एक करोड़ कानून व्यवस्था से जुड़े दूसरे एहतियाती उपायों पर खर्च हुए हैं. बाकी तीन करोड़ दलितों के पुनर्वास और मुआवजे पर खर्च हुए हैं. इनमें भी मोटी रकम उन अस्थायी सुविधाओं के ऊपर खर्च हुई है जिनका आदेश कोर्ट ने शुरुआत में विस्थापितों की स्थायी व्यवस्था होने तक के लिए दिया था. हरियाणा सरकार ने पांच लाख रुपये प्रति सुनवाई पर अभिषेक मनु सिंघवी को इस मामले में वकील नियुक्त कर रखा है. जितना समय और पैसा हरियाणा सरकार केस लड़ने पर व्यय कर रही है उतने में इन दलितों का अच्छे से पुनर्वास हो जाता.’
कांग्रेस की स्थिति इस मामले में विचित्र और विरोधाभासी है. अभिषेक मनु सिंघवी इस मामले में कोर्ट में हरियाणा सरकार की तरफ से लड़ रहे हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी मिर्चपुर जाकर वहां के पीड़ितों को हर संभव सहायता करने का आश्वासन दे चुके हैं. हालांकि राहुल गांधी के दौरे का नतीजा उनके बाकी दौरों की तरह ही बेनतीजा रहा है. इससे ज्यादा विचित्र स्थिति हरियाणा के मुख्यमंत्री भुपेंदर सिंह हुड्डा की है. मुख्यमंत्री स्वयं जाट बिरादरी से आते हैं लिहाजा जातिगत समीकरणों के मद्देनजर इतनी बड़ी अमानवीय घटना के बावजूद उन्होंने मिर्चपुर का दौरा करना तक मुनासिब नहीं समझा. साथ ही वे ऐसा कोई कदम उठाते हुए भी दिखना नहीं चाहते जिससे जाटों में उनके प्रति कोई नाराजगी पैदा हो.
मिर्चपुर वापस न लौटने की एक वजह दलितों में असुरक्षा की जबर्दस्त भावना भी है. पिछले साल भर के दौरान दो घटनाएं ऐसी हुई हैं जिसने मिर्चपुर के दलितों में भय का माहौल और बढ़ा दिया है. इस मामले में अभियोजन पक्ष के दो गवाहों की संदिग्ध हालत में मौत हो चुकी है. 23 वर्षीय विक्की पुत्र धूप सिंह की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई. विक्की ने इस मामले के कुल चालीस अभियुक्तों की शिनाख्त कोर्ट में की थी. इसी मामले के एक अन्य गवाह संजय पुत्र राजा की भी संदिग्ध हालात में मौत हो चुकी है. संजय अच्छा-भला रात में सोया और सुबह उसकी लाश मिली. इतने संदेनशील मामले में गवाह होने और मौत की परिस्थितियां संदिग्ध होने के बावजूद संजय का पोस्टमार्टम करवाए बिना अंतिम संस्कार कर दिया गया.
प्रसिद्ध जनवादी कवि अदम गोंडवी ने लखनऊ में एक मुलाकात के दौरान कहा था- ‘हिंदुस्तान के गांवों की जात उनकी सड़कों पर लिखी होती है, बस पढ़ने वाली नजर चाहिए.’ मिर्चपुर गांव उनकी बात पर सौ टका खरा उतरता है. हिसार-जींद मार्ग पर स्थिति मिर्चपुर गांव में जाने के दो रास्ते हैं. एक रास्ता सीधा वाल्मीकि बस्ती को जाता है और दूसरा जाटों की बस्ती से होकर जाता है. गांव के आखिरी सिरे पर दोनों मिल जाते हैं. इन दोनों सड़कों पर दलित और सवर्ण का अंतर पूरी नग्नता से मौजूद है. दलित बस्ती से होकर जाने वाली सड़क कच्ची, धूलभरी है. इस सड़क पर जगह-जगह कीचड़ भरा है, नाला मुख्य सड़क पर बह रहा है, दुर्गंध का भभका उठ रहा है. जाटों के मुहल्ले से जाती सड़क कंक्रीट की बनी है. नालियां व्यवस्थित हैं, सड़क साफ-सुथरी है. एक और बात पूरे गांव के नाले दलित बस्ती के किनारे मौजूद एक पोखरे में गिरते हैं, जहां से दुर्गंध लगातार उठती रहती है.
इसी गांव में चार साल पहले एक तूफान आया था जिसकी कई निशानियां यहां आज भी मौजूद हैं. पलायन के कारण ऐसे तमाम घर हैं जिनके घरों के दरवाजे बंद पड़े हैं. सीआरपीएफ के जवान यहां किसी दुश्मन के इंतजार में अपने बंकरों में हथियार ताने तैनात हैं. घटना के बाद से ही गांव में सीआरपीएफ तैनात कर दी गई थी जो अब तक जारी है. गांव में करीब चालीस परिवार या तो रह गए थे या सरकार के भरोसा दिलाने पर वापस लौट आए हैं. पर सबका कहना यही है कि जब तक सीआरपीएफ यहां है तभी तक हम लोग यहां रहेंगे. 28 वर्षीय कुलदीप कहते हैं, ‘हमें जाटों पर कोई भरोसा नहीं है. अगर सीआरपीएफ यहां से जाएगी तो हम भी चले जाएंगे.’ ऐसा पहले हो भी चुका है. साल भर पहले तत्कालीन एसपी ने सीआरपीएफ को हटाने की घोषणा कर दी थी. पीछे-पीछे सारे परिवार भी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर चल पड़े थे. बड़ी मुश्किल से एसपी ने उन्हें मनाया और सीआरपीएफ को वापस तैनात करना पड़ा. पूरी दलित बस्ती के चारों तरफ सीआरपीएफ ने अपने बंकर बनाकर उसे घेर रखा है.
मिर्चपुर के जाटों का पक्ष बिल्कुल अलहदा है. गांव की सरपंच कमलेश कुमारी के पति प्रेम ढांडा जो एक दिन पहले ही किसी मामले में जेल से छूटकर आए हैं, बताते हैं, ‘हमें दलितों से कोई दिक्कत नहीं है. जो लोग गांव से बाहर रह रहे हैं वे अपनी इच्छा से रह रहे हैं. जैसे आप रोजी-रोटी के लिए अपना घर छोड़कर इतनी दूर दिल्ली आए हो उसी तरह यहां के दलित भी हिसार में रोजी-रोटी के लिए रहते हैं.’
सरपंच के आवास पर ही मौजूद कुछ दूसरे जाट युवकों से बातचीत में एक ही कहानी सामने आती है कि वाल्मीकि टोले के लोगों ने खुद ही अपने घरों में आग लगा दी. पैसे के लालच में उन्होंने ऐसा किया. इसी लालच में घर छोड़कर हिसार में रह रहे हैं. हमारे लोगों को फर्जी फंसा दिया गया है. हमारा गांव सबसे पढ़ा-लिखा गांव है. मिर्चपुर गांव से सबसे ज्यादा शिक्षक हरियाणा के स्कूलों में हैं. ये कहानियां घटना के चार साल बाद घटना के सभी कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई हैं. जब गांव वालों से पूछा जाता है कि अगर आग खुद लगाई गई थी तो उसमें दो लोग मर क्यों गए तो वे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते. हम गांव में जहां भी जाते हैं हमारे सभी सवालों के एक जैसे रटे-रटाए जवाबों से सामना होता है.
गांव वालों का एक आरोप यह भी है कि वहां हिसार में उनका एक नेता है वेदपाल तंवर. उसने राजनीति के लिए वाल्मीकियों को अपने पास रख छोड़ा है. वेदपाल तंवर इस आरोप के जवाब में कहते हैं, ‘मेरा इसमें कोई हित नहीं है. मैं तो इस इलाके से चुनाव भी नहीं लड़ता हूं. मेरा तो इसमें सिर्फ नुकसान ही हुआ है. जिस जमीन पर लाखों की खेती होती थी उस पर अब इन लोगों के घर हैं. मुझे तो एक भी चवन्नी नहीं मिलती किसी से.’
एक फौरी मुआयना करने पर हम पाते हैं कि हिसार और जींद के आस-पास का इलाका दलितों के खिलाफ अत्याचार का केंद्र बनकर उभरा है. कुछ दिन पहले ही हिसार के भगाणा गांव की चार दलित युवतियों को अगवा करके उनके साथ सामूहिक बलात्कार की भयावह घटना सामने आई थी. ये लड़कियां न्याय की आस में फिलहाल दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रही हैं. कुछ माह पहले हिसार के ही एक गांव की एक दलित लड़की अपनी भैंस लेकर जाटों के घर के सामने से गुजर रही थी. इस बात पर एक जाट युवक को गुस्सा आ गया और उसने लड़की को तालाब में धक्का दे दिया जिससे लड़की की पानी में डूबकर मृत्यु हो गई.
गुड़गांव स्थित गुरू द्रोणाचार्य कॉलेज में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर भूप सिंह इन घटनाओं के मनोविज्ञान और उनकी सामाजिकता को दिलचस्प अंदाज में सामने रखते हैं, ‘यह हरियाणा की राजनीति के जाटाइजेशन और जाटों के हनुमानाइजेशन का नतीजा है. भजन लाल और बंसीलाल के अवसान के बाद हरियाणा की राजनीति में जाट प्रभुत्व बढ़ा है. जाटों के दबाव में राजनीतिक पार्टियां दूसरे सभी तबकों को नजंरअंदाज करती जा रही हैं. समस्या पिछले दो-ढाई दशकों में और भी गंभीर हुई है. परंपरागत रूप से दलित भूमिहीन थे और जाटों के ऊपर निर्भर थे. दो-तीन दशकों के दरम्यान दलित वर्ग संपंन और शिक्षित हुआ है, सरकारी नौकरियों से उनमें आत्मनिर्भरता भी बढ़ी है और दलितों ने गांव छोड़कर शहरों की तरफ बड़ी संख्या में पलायन भी किया है. इसके परिणामस्वरूप युवा दलितों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो किसी भी तरह के अपमान या दुर्व्यवहार का पलट कर जवाब दे देता है. रूढ़िवादी जाट समाज इस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पा रहा है. फलस्वरूप वो इस तरह की अमानवीय प्रतिक्रिया कर रहा है.’
इन्हीं वर्षों के दौरान जाटों में धार्मिकता का प्रभाव भी काफी बढ़ा है. परंपरागत रूप से जाट पहले कभी अपनी धार्मिकता को लेकर इतने सजग नहीं थे. लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में आर्य समाज और संघ की लगातार कोशिशों ने जाटों में भी हिंदूवादी भावनाएं भरी हैं. प्रो भूपसिंह के शब्दों में, ‘संघ ने व्यवस्थित तरीके से जाटों के बीच में हनुमान को जाटों के देवता के रूप में स्थापित किया है.’ हिंदूवादी भावनाओं के बढ़ने के साथ ही जाटों में वर्णव्यवस्था की खामियां भी बढ़ीं हैं.
जाटों की राजनीति पर कब्जा करने के लिए हरियाणा की दो राजनीतिक पार्टियों के बीच होड़ मची हुई है. मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुडा, जिन्होंने अपनी एक चुनावी सभा के दौरान घोषणा की थी कि उन्हें जाट होने पर गर्व है, ने एक अलिखित नियम बना रखा है. वे दलितों पर हुए किसी भी अत्याचार के मामले में पीड़ितों से मिलने की भी जहमत नहीं उठाते. जाहिर है कोर्ट के दबाव में जो करना है वह सरकार करती है. लेकिन खुद मुख्यमंत्री अपने लोगों (जाटों) के बीच ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहते कि वे जात के खिलाफ काम कर रहे हैं.
दूसरी तरफ इंडियन नेशनल लोकदल है. इसके दो शीर्ष नेता ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला इस समय जेल में हैं. इनकी पूरी राजनीति ही जाटों के इर्द-गिर्द घूमती है. हिसार से इस चुनाव में ओमप्रकाश चौटाला के पौत्र दुष्यंत चौटाला चुनाव लड़ रहे हैं. यह पूरा निर्वाचन क्षेत्र जाट बहुल है. मिर्चपुर लौट आए कुछ दलित परिवारों में एक 35 वर्षीय दलशेर का भी है. दलशेर इस समय एक अदृश्य खतरे से डरे हुए हैं. वे कहते हैं, ’16 मई के बाद हमारे लिए स्थितियां खराब हो सकती हैं. अगर दुष्यंत चौटाला चुनाव हार जाता है तो जाट हमारा जीना मुहाल कर देंगे.’ इस अतिशय जाटवादी राजनीति का साइड इफेक्ट भी राजनीतिक पार्टियों पर पड़ रहा है. फिलहाल कांग्रेस की स्थिति ज्यादा सोचनीय है. जाट से इतर जातियों के कई नेता पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं क्योंकि उन्हें अपने लोगों के बीच जवाब देना दुष्कर सिद्ध हो रहा था. इनमें राव इंद्रजीत सिंह, विनोद शर्मा, धर्मवीर और गोपाल कांडा जैसे तमाम नेता शामिल हैं.
कुछ बातें हमारे संविधान में लिखी हुई है और हमने उन बातों को संविधान के पन्नों तक ही सीमित कर दिया है. जाति, धर्म-संप्रदाय के लिए हमारे संविधान में भले ही कोई जगह नहीं हो लेकिन समाज में इसके लिए भरपूर उपजाऊ जमीन मौजूद है. जाति आज भी भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है. इसकी एक वजह यह भी है कि राजनीतिक स्तर पर जातिगत व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने का कोई ईमानदार प्रयास हो ही नहीं रहा है. जाति तोड़ने का मुद्दा इस देश में कभी महंगाई, भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों की तरह राष्ट्रीय चुनावी मुद्दा नहीं बना. मिर्चपुर के मसले को ही देखें तो हम पाते हैं कि किसी भी बड़े राजनेता ने इस मुद्दे पर हरियाणा की विधानसभा या संसद भवन में सवाल तक
नहीं पूछा. चुनाव का मौसम है लेकिन अपनी जड़ों से उखड़े हुए 80 परिवारों के पास किसी भी राजनीतिक दल का प्रतिनिधि उनका पुरसाहाल लेने के लिए नहीं पहुंचा है. रमेश कुमार कहते हैं,
‘तब से पंचायत का चुनाव हो चुका है, लोकसभा का चुनाव हो चुका है लेकिन कोई नेता हमारे पास नहीं आता. जो हमारे पास आएगा उसे जाट वोट नहीं देंगे.’
समाज के अछूत अब राजनीति के भी अछूत हो गए हैं.