राजनीतिक विश्लेषक इस बात से हैरान हैं कि मायावती अपनी ही पार्टी को मरणासन बनाकर उसका मृत्युलेख क्यों लिख रही हैं? वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मायावती बहुजन समाज पार्टी को इसलिए खत्म कर रही हैं क्योंकि उनके भाई आनंद कुमार और पार्टी पर प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के केस चल रहे हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मायावती बहुत दबाव में हैं क्योंकि उन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही ईडी और अन्य केंद्रीय सरकारी एजेंसियों द्वारा कार्रवाई का डर है। लेकिन मायावती के भाई के खिलाफ मामला 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए के शासनकाल में दर्ज किया गया था।
तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और यह हमेशा की तरह अदालतों में उलझा हुआ है, कई सालों तक किसी ने उनके बारे में सुना तक नहीं। यह भी एक रहस्य है कि 2007 में अपने दम पर यूपी जीतने के बाद, 2012 से बसपा का पतन कैसे शुरू हो गया और आज पार्टी के पास लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है तथा यूपी में मात्र एक विधायक है, जो योगी आदित्यनाथ की आभा में कहीं नजर तक नहीं आता।
यह तर्क दिया जाता है कि वर्ष 2014 से 30 से अधिक विपक्षी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच की जा रही हैं और कई के भाजपा में शामिल होने के बाद मामले ‘सुलझ गए’, कुछ को राहत मिल गई और बाकी अदालतों में अटके हुए हैं। इन 30 राजनेताओं में से 10 कांग्रेस से हैं; एनसीपी और शिवसेना से 4-4; तृणमूल कांग्रेस से 3; तेदेपा से 2; और सपा, वाईएसआरसीपी और अन्य से एक-एक।
फिर भी, यह समझना मुश्किल है कि आनंद कुमार के खिलाफ ईडी के केस के कारण, मायावती अपनी पार्टी को निष्क्रियता की ओर बढ़ा रही हैं, दलित मतदाताओं में आ रही गिरावट को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही हैं और जानबूझकर इस वोट बैंक को भाजपा के हाथों में जाने दे रही हैं।
जल्दबाजी में निष्कासन और फिर वापसी से उन्होंने यह धारणा और मजबूत कर दी है कि वह पार्टी को पुनर्जीवित करने की इच्छुक नहीं हैं। हालांकि उन्होंने नेताओं को बैठकों में धन इकट्ठा करने से रोक दिया है और रिश्तेदारों को पद देने से मना कर दिया है, फिर भी बसपा की गिरावट जारी है। वह हाशिये पर एक मामूली खिलाड़ी क्यों बनी रहना चाहती हैं? रहस्य बरकरार है!