भाजपा में विरोध के स्वर क्यों होने लगे मुखर ?

इस बार जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा अल्पमत में आयी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का न सिर्फ़ जलवा कम हो गया, बल्कि भाजपा में ही उनका विरोध शुरू हो गया है। पिछले 10 वर्षों में या यह कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्र सरकार में पिछले दो कार्यकालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि भाजपा में किसी नेता या मंत्री ने दबी ज़ुबान से भी उनकी पीठ के पीछे भी उनके ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने, यहाँ तक कि उनके ख़िलाफ़ सोचने की भी कोशिश की हो। बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जलवा यह रहा है कि उनका फोन भी किसी मंत्री या नेता को चला जाता था, तो कुर्सी से उठ खड़ा होता था और ऐसे बात करता था, जैसे एक डरा हुआ बच्चा अपने हेड मास्टर के सामने बड़े अदब से सोच-समझकर बोलता है। प्रधानमंत्री मोदी का ही क्या, गृह मंत्री अमित शाह का भी अमूमन यही जलवा रहा है। लेकिन जैसे ही केंद्र में बैसाखियों के सहारे मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनी और भाजपा बहुमत से 32 सीटें कम 240 सीटों पर सिमटी, तबसे कई राज्यों से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री के ख़िलाफ़ भाजपा के ही कई नेता, मंत्री, सांसद और विधायक बोलने लगे हैं। बोलने के अलावा बाक़ायदा वो चिट्ठियाँ लिखकर उनकी ख़िलाफ़त कर रहे हैं। इस्तीफ़ों का दौर शुरू हो गया है। झारखण्ड में गुणानंद महतो ने भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता पद से इस्तीफ़ा दे दिया, तो वहीं राजस्थान में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सी.पी. जोशी का इस्तीफ़ा हो सकता है।

दरअसल जब सरसंघचालक मोहन भागवत ने केंद्र की मोदी सरकार को, या यह कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जब कई मामलों को लेकर नसीहत दी, तभी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाराज़ चल रहे उन्हीं की पार्टी के नेता उनके ख़िलाफ़ दबी ज़ुबान से बोलने लगे थे। लेकिन जैसे ही भाजपा केंद्र में पूर्ण बहुमत न लाकर कमज़ोर हुई और प्रधानमंत्री को अपने बलबूते पर कुछ बाहरी पार्टियों को एनडीए का हिस्सा बनाकर सरकार बनाने के लिए सहयोग लेना पड़ा, तो इस विरोध के दबे स्वर मुखर होकर बाहर तक सुनायी देने लगे। अब स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री मोदी उत्तर प्रदेश में करारी हार को पचा नहीं पा रहे हैं और चाहकर भी अपने चेहरे पर लड़े गये और अपने ख़ासमख़ास गृहमंत्री अमित शाह द्वारा टिकट बँटवारे के चलते लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिछड़ने, जिसमें ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश से उम्मीदों के मुताबिक परिणाम नहीं आया, इसका ठीकरा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सिर पर नहीं फोड़ पा रहे हैं। और न ही उन्हें इस हार का ज़िम्मेदार ठहराते हुए हटा पा रहे हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटाने की ख़बरों को केंद्र में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनते ही ख़ूब हवा मिली और यह हवा यूँ ही नहीं चली। कथित रूप से चर्चा तो यहाँ तक है कि इसके पीछे भाजपा के तथाकथित चाणक्य के इशारे के तहत बाक़ायदा उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह और दूसरे दलों से आयातित तमाम नेताओं, विधायकों और मंत्रियों की लॉबिंग शुरू हुई थी। इनमें से उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से लगातार मिल रहे थे, तो वहीं उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष को बुलाकर ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैठक की।

ज़ाहिर है कि अगर मुख्यमंत्री योगी की आज हिंदुत्ववादी छवि और राष्ट्रीय पहचान नहीं होती और उनके समर्थकों की संख्या करोड़ों में नहीं होती, तो उनका आज मुख्यमंत्री पद पर बने रहना भी नामुमकिन ही था। लेकिन जब उत्तर प्रदेश से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ विरोध की आवाज़ें आने लगीं, तो फिर केशव प्रसाद मौर्य को वापस उत्तर प्रदेश भेज दिया गया और पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की तरफ़ से सफ़ाई दी गयी कि उत्तर प्रदेश में कोई बदलाव नहीं हो रहा है। विपक्ष इस तरह की अफ़वाहें फैलाकर भाजपा को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उससे पहले केशव प्रसाद मौर्य ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम लिए बग़ैर यह तक कह दिया कि सरकार से संगठन बड़ा होता है।

बहरहाल, इस अंदरूनी ख़िलाफ़त और वाद-विवाद को बढ़ता देख नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि आलाकमान को उत्तर प्रदेश के नेताओं को यह हिदायत देनी पड़ी कि वे सार्वजनिक मंचों पर पार्टी और नेताओं के ख़िलाफ़ न बोलें और अगर कुछ कहना ही है, तो पार्टी के भीतर ही अपनी समस्याओं को रखें। उत्तर प्रदेश में मुख़ालिफ़त के चलते यह भी नौबत आ गयी कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को उत्तर प्रदेश में भाजपा की कोर कमेटी की बैठक में ख़ुद शामिल होकर नाराज़ पार्टी नेताओं को शान्त करने की कोशिश करनी पड़ी। लेकिन इसके बावजूद भी केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ यानी उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच रिश्ते अच्छे नहीं हो सके। अंदर की ख़बरें तो यहाँ तक हैं कि उत्तर प्रदेश में हार की समीक्षा के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जितनी भी बैठकें बुलायीं, उनमें केशव प्रसाद मौर्य नदारद रहे। न ही उन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार की हार की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ली। अब वह कह रहे हैं कि पूरा प्रदेश उनका है और उप चुनाव में फूलपुर सीट की ज़िम्मेदारी शायद उन्हें सौंपी जाए। माना जा रहा है कि अगर उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर उप चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहता है, तब तो उत्तर प्रदेश में बदलाव नहीं होगा; लेकिन अगर इसमें भी भाजपा पिछड़ी, तो उत्तर प्रदेश में मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कुछ फेरबदल करेंगे। हालाँकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में अच्छा परिणाम न आने के बाद उत्तर प्रदेश में आगामी चुनावों में जीत के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कमर कस ली है और कोई बड़ी बात नहीं कि आगामी चुनावों में टिकट वितरण में उनकी बात पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को माननी पड़े। इसके संकेत यहीं से मिल रहे हैं कि हाल ही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने 30 मंत्रियों को बुलाकर बैठक करके 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को लेकर गुप्त रणनीति बनायी है। हालाँकि इस बैठक में भी उत्तर प्रदेश के दोनों उपमुख्यमंत्री यानी केशव प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक ने हिस्सा नहीं लिया।

बहरहाल, फ़िलहाल तो भाजपा के उत्तर प्रदेश नेतृत्व में बदलाव के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं; लेकिन कहा जा रहा है कि आने वाले समय में संगठनात्मक स्तर पर बड़े फेरबदल हो सकते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी भी उत्तर प्रदेश में मिली बड़ी हार को पचा नहीं पा रहे हैं। कथित सूत्रों ने बताया कि पिछले दिनों पाँच राज्यों की 13 विधानसभा सीटों में से 11 सीटें हारने के बाद वह और भी बेचैन हो गये हैं और अपने स्तर पर उत्तर प्रदेश में होने वाले उपचुनाव पर नज़र रखे हुए हैं। हो सकता है कि उपचुनाव की तारीख़ चुनाव आयोग के घोषित करने के बाद वह इस उपचुनाव में अपने दिशा-निर्देश जारी करें या उनकी मज़ीर् के हिसाब से गृह मंत्री अमित शाह या पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा दिशा-निर्देश जारी करें। और अगर उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, तो यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी यहाँ कुछ फेरबदल करने की कोशिश करें। कुछ लोगों का मानना यह है कि लोकसभा में ज़्यादातर सीटें हारने की ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री योगी की ही क्यों हो? जब उनके हिसाब से टिकट तक नहीं बाँटे गये और चुनाव भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया।

इतना ही नहीं, ख़ुद उत्तर प्रदेश के बनारस से तीसरी बार चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा पहुँचे हैं। इस प्रकार से उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी उत्तर प्रदेश में जनाधार बनाये रखने की भी बनती है। दूसरी बात, ख़ाली उत्तर प्रदेश को लोकसभा में हार के लिए ज़िम्मेदार ही क्यों माना जाए? क्योंकि हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र समेत कई दूसरे राज्यों में भी भाजपा का प्रदर्शन कौन-सा अच्छा रहा? रही विरोध की बात, तो उत्तर प्रदेश ही नहीं, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तराखण्ड और हिमाचल से भी पार्टी के भीतर से ही मुख़ालिफ़त होने लगी है। उसका क्या? यह मुख़ालिफ़त सिर्फ़ लोकसभा चुनाव में मनचाहा परिणाम न आने की वजह से नहीं है, बल्कि पिछले कुछ ही वर्षों में कई भाजपा नेताओं को उनके ओहदों से हटाने से लेकर बाहरियों को पार्टी में लाकर अचानक बड़े पदों पर बैठाने और कार्यकर्ताओं की अनदेखी करने से भी विरोध हो रहा है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह समेत कई प्रमुख नेता एक्शन मोड में आ गये हैं और विधायकों, सांसदों, मंत्रियों को आदेश हुआ है कि वे कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद करें। इससे शायद स्थिति सुधर जाए; लेकिन पार्टी के भीतर उठने वाले विरोध को कैसे शान्त किया जाएगा।

मसलन, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बात भले ही दोनों ही उप मुख्यमंत्री नहीं सुन रहे हो; लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता योगी को आज भी सिर-माथे पर बिठाये हुए है। मुख्यमंत्री योगी का सात साल का बेदाग़ चेहरा और प्रदेश की क़ानून व्यवस्था ही उनकी असली ताक़त है। हालाँकि भाजपा में लगातार उठ रही मुख़ालिफ़त और फूट से प्रधानमंत्री मोदी ज़रूर चिन्तित होंगे; लेकिन उन्हें इसका समाधान ढूँढना होगा और सभी को मिलकर काम करने के लिए प्रेरित करना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)