योगेश
हमारे कृषि प्रधान देश में किसानों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, जिसके कई कारण किसान-आत्महत्या के मामले बढ़ने के साथ-साथ बड़ी संख्या में वे खेती छोड़ते जा रहे हैं। केंद्र सरकार के वादे के मुताबिक सन् 2022 तक किसानों की आय भी दोगुनी नहीं हुई। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के हिसाब से फ़सलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और इसके लिए गारंटी क़ानून भी वह नहीं बना रही है। फ़सलों की लागत बढ़ती जा रही है। कृषि यंत्रों, कीटनाशकों, बीजों, डीजल पर जीएसटी लग रही है और मंडी का आढ़त शुल्क, महँगी ढुलाई जैसे ख़र्चे अलग से हैं। अभी कृषि यंत्रों पर 28 प्रतिशत, कीटनाशक दवाओं पर 18 प्रतिशत, बीजों पर 12 प्रतिशत, डीजल पर सीधे जीएसटी तो नहीं है; लेकिन वैट और दूसरे कर लागू हैं। इससे किसानों की जेब पर अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है, जो उन्हें क़र्ज़ में डुबोने के लिए काफ़ी है। नाबार्ड ने अपनी कुछ महीने पहले की रिपोर्ट में बताया था कि देश के 55.4 प्रतिशत किसान परिवार क़र्ज़ में डूबे हैं, जिनमें हर किसान परिवार पर औसतन 91,231 रुपये का क़र्ज़ है। 23.4 प्रतिशत किसान परिवार निजी कम्पनियों और लोगों के क़र्ज़ में दबे हैं।

31 जनवरी को संसद में केंद्रीय वित्त और कॉरपोरेट कार्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक समीक्षा 2024-25 की रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि वित्त वर्ष 2024-25 में वास्तविक मूल्य वर्धन 6.4 प्रतिशत की दर से और कृषि क्षेत्र में 3.8 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी होने का अनुमान है। लेकिन किसान परिवारों की आर्थिक स्थिति और कृषि में कम होते जा रहे रोज़गार के अवसरों से लगता है कि सिर्फ़ कृषि क्षेत्र का बाज़ार लाभ में हैं, किसान नहीं। कृषि क्षेत्र में कम उत्पादन, किसानों की कम होती आय, किसानों की कृषि में अरुचि, महँगी होती कृषि, कृषि यंत्रों के ज़्यादा उपयोग और कृषि साधनों की कमी जैसे कारणों से कृषि क्षेत्र में रोज़गार घटते जा रहे हैं। वित्त वर्ष 2023-24 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया था कि कृषि क्षेत्र में घटते रोज़गारों की पूर्ति और ग़ैर-कृषि क्षेत्रों में हल वर्ष 78.5 लाख नौकरियाँ पैदा करने की ज़रूरत है और ये नौकरियाँ कम-से-कम 2030 तक देनी होंगी। आर्थिक सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2024-25 तक कृषि क्षेत्र में पुरुषों की भागीदारी 3.9 प्रतिशत कम हुई है, जबकि महिलाओं की भागीदारी 7.5 प्रतिशत बड़ी है। लेकिन कृषि क्षेत्र की सर्वे रिपोर्ट ये कह रही हैं कि रोज़गार के मामले में कृषि क्षेत्र 46.2 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ अभी भी अग्रणी बना हुआ है।

इसके अलावा किसानों को उनकी फ़सलों का सही भाव नहीं मिलता, जिसकी माँग को लेकर पंजाब के किसान सड़कों पर हैं। उनका साथ देश भर के जागरूक किसान दे रहे हैं। किसानों के साथ केंद्र सरकार के प्रतिनिधि मंडल की बैठकें नाकाम रही हैं। भारतीय किसान यूनियन (एकता सिद्धूपुर – ग़ैर राजनीतिक) के किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल किसानों की माँगें पूरी न होने तक अनिश्चितकालीन अनशन पर हैं और उन्हें अनशन करते हुए 100 दिन से ज़्यादा हो गये हैं। उनका स्वास्थ अच्छा नहीं है उनकी शरीर बहुत कमज़ोर हो चुका है और पैरों में सूजन आ चुकी है। अब 19 मार्च को किसान नेताओं और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि मंडल के बीच बातचीत होगी। इस बैठक के लिए किसान चंडीगढ़ के लिए कूच कर रहे हैं। किसान नेताओं ने कहा है कि अगर केंद्र सरकार इस बैठक में भी किसानों की माँगें नहीं मानेगी, तो वे दिल्ली जाएँगे। किसानों के चंडीगढ़ में जमा होने के पहले ही सरकार ने चंडीगढ़ में पुलिस की तैनाती बड़ा दी है। केंद्र सरकार ने हर बार किसानों पर बल प्रयोग करके उन्हें रोकने की कोशिश की है, जिसमें किसानों पर अत्याचार की सीमाएँ पार की गयी हैं।
2020 में तीन कृषि क़ानूनों के चलते शुरू हुआ किसान आन्दोलन से अब तक 800 के लगभग किसानों की मौत हो चुकी है। किसानों का कहना है कि उनके कई निर्दोष किसान साथियों की हत्या हुई है। केंद्र सरकार किसानों के साथ धोखा कर रही है और उनकी माँगों की अनदेखी करती जा रही है। किसानों ने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान पर भी केंद्र सरकार के इशारों पर काम करने का आरोप लगाया है।
किसानों की फ़सलों का सही भाव न मिलने की स्थित यह है कि हर साल लाखों किसानों को उनकी फ़सलों को घाटे में बेचना पड़ता है। कई किसान घाटे से आहत होकर फ़सलों को खेत में ही नष्ट कर देते हैं। 2023 में सोलापुर ज़िले के बार्शी तालुका के गाँव कोरेगाँव के किसान राजेंद्र तुकाराम चव्हाण को भाड़ा और दूसरे कर काटकर पाँच कुंतल 12 किलो प्याज के मात्र दो रुपये 49 पैसे की ही रसीद मिली, जिसका किसान को दो रुपये का चेक मिला था। किसान राजेंद्र तुकाराम चव्हाण ने अपने दो एकड़ खेत में प्याज की फ़सल उगायी थी, जिसकी सबसे बाद की खेप के उसे दो रुपये ही मिले। किसान को दो रुपये का चेक कृषि आय बाज़ार समिति के व्यापारी सूर्या ट्रेडर्स ने दिया था और कहा था कि प्याज ख़राब थी। 2023 में प्याज का बाज़ार भाव 30 रुपये से 35 रुपये प्रति किलो था। 2022 में भी मध्य प्रदेश में एक किसान के तीन कुंतल प्याज के भी मंडी में दो रुपये ही मिले थे।
इस वर्ष कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश में इटावा ज़िले के चायत भरथना सरैया क्षेत्र के गाँव नगला हरलाल के किसान प्रभाकर सिंह शाक्य ने अपने खेत में खड़ी छ: बीघा गोभी की फ़सल में ट्रैक्टर चलवाकर उसे मिट्टी में मिला दिया, जिसका कारण गोभी का डेढ़ से दो रुपये किलो का मंडी भाव था। संपर्क करने पर किसान प्रभाकर सिंह शाक्य ने कहा कि उन्होंने तीन महीने की कड़ी मेहनत करके 56,000 रुपये की लागत लगाकर गोभी की फ़सल उगायी थी। अगर गोभी का चार-पाँच रुपये किलो का भाव मिलता, तो भी उनकी फ़सल ढाई से तीन लाख रुपये की होती। लेकिन डेढ़-दो रुपये किलो के भाव से एक लाख रुपये की भी फ़सल नहीं निकल पाती। उसमें कटाई, ढुलाई अलग देनी पड़ती। इस तरह उन्हें घाटा होता। इसलिए उन्होंने पहले अपने और आसपास के गाँवों के लोगों से मुफ्त में खेत से गोभी तोड़कर ले जाने को कहा और फिर बची हुई फ़सल में ट्रैक्टर चलवा दिया।
ख़राब मौसम और आपदा के कारण ख़राब होने वाली फ़सलों का बीमा भी किसानों को नहीं मिल पाता। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2025-26 के लिए 01 फरवरी को बजट पेश करते हुए किसानों के लिए कई योजनाओं की घोषणा की, जिनमें फ़सल बीमा को लेकर उन्होंने कहा कि हवा, आँधी, ओलावृष्टि, कीट-पतंगों से नष्ट फ़सलों के नुक़सान की भरपाई के लिए किसानों को प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के तहत पूरा पैसा मिलेगा। लेकिन किसानों की शिकायत रहती है कि उन्हें फ़सल बीमा ही नहीं मिलता। जिन किसानों को फ़सल बीमा मिलता है, उनकी शिकायत रहती है कि फ़सल बीमा बहुत कम मिलता है। कई राज्यों के किसान फ़सल ख़राब होने पर बीमा न मिलने के लिए संघर्ष भी करते रहते हैं, फिर भी उन्हें फ़सलों के नुक़सान की उचित राशि नहीं मिल पाती।
किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य देने, इस हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य का गारंटी क़ानून बनाने और किसानों की दूसरी माँगें पूरी करने का फ़ैसला केंद्र सरकार कब लेगी, इसका कोई अता-पता नहीं है। केंद्र सरकार इस बारे में किसानों को आश्वासन देती रहती है। लेकिन उसकी टालमटोल और किसानों के प्रति उसका व्यवहार उसके इरादों को साफ़ दर्शाते हैं। किसानों के शान्ति से आन्दोलन करने को केंद्र सरकार उनकी कमज़ोरी समझ रही है। किसान नेताओं ने कहा है कि वे केंद्र सरकार से माँग कर रहे हैं कि किसानों की माँगों को उसे मान लेना चाहिए, नहीं तो एक और देशव्यापी आन्दोलन होगा, जिसकी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की होगी। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा गठित समिति अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँची है। उसने भी किसानों के मामले को गंभीरता से नहीं लिया है। सुप्रीम कोर्ट को किसानों की माँगों को अनसुना करने को लेकर केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। हालाँकि इसमें समस्या उन किसानों की है, जो केंद्र सरकार से कोई शिकायत नहीं रखते। ऐसे किसानों में दो तरह के किसान हैं। एक वे, जो भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को पसंद करते हैं और दूसरे वे, जो किसानों की समस्याओं को लेकर जागरूक ही नहीं हैं। ये किसान अपनी दुर्दशा को अपना भाग्य मानते हैं। किसानों में इसी कारण एकता नहीं है और किसान आन्दोलन मज़बूत नहीं हो पा रहा है।
अगर पूरे देश के किसान एकजुट होकर अपनी माँगों को सरकार के सामने रखने के लिए आगे आएँ, तो केंद्र सरकार को झुकना ही पड़ेगा। अपने क्षेत्र के कई किसानों से किसान आन्दोलन और किसानों की माँगों के बारे में बात करने पर ज़्यादातर किसान इनसे कोई मतलब नहीं रखने वाले ही मिले। उन्हें सरकार से अपनी-अपनी छोटी-छोटी शिकायतें ही हैं। किसान नेताओं को अगर किसान आन्दोलन को बड़ा करना है, तो गाँवों के किसानों को जगाना पड़ेगा। इसके लिए महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेता का होना ज़रूरी है। लेकिन इस समय के किसान नेताओं में ऐसा एक भी किसान नेता नहीं है।