बढ़ती गर्मी के लिए ज़िम्मेदार कौन?

एक तरफ़ मौसम विभाग ने 2025 में भी सामान्य से अधिक गर्मी रहने का अनुमान जताया है, तो दूसरी तरफ़ एक नये अध्ययन में सामने आया है कि भारत बढ़ती गर्मी के ख़तरों के लिए तैयार नहीं है। यह अध्ययन दिल्ली स्थित शोध संगठन ‘सस्टेनेबल फ्यूचर्स कोलैबोरेटिव’ ने किया है। इस अध्ययन में नौ शहर- बेंगलूरु, दिल्ली, फ़रीदाबाद, ग्वालियर, कोटा, लुधियाना, मेरठ, मुंबई और सूरत हैं। इन नौ शहरों में 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की शहरी आबादी का 11 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बसता है। और यह शहर गर्मी के लिहाज़ से देश के सबसे अधिक जोखिम वाले शहरों में से कुछ हैं।

इस अध्ययन का विश्लेषण चरम लू के हालात से निपटने की सरकारी कार्यक्रमों व नज़रिये पर सवाल उठाता है। आम जनता को जागृत करता है कि उनकी सरकारें वास्तव में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए क्या कर रही हैं। विश्लेषण में कहा गया है कि जिन शहरों में सर्वेक्षण किया गया है, वो शहर गर्मी की लहरों के लिए तात्कालिक उपायों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, न कि दीर्घकालिक उपायों पर।

दीर्घकालिक उपायों के नहीं किये जाने से लू से होने वाली मौतों की आशंका अधिक है। सर्वे में भाग लेने वाले 26 प्रतिशत अधिकारियों ने माना कि हीट एक्शन प्लान में आपदा प्रबंधन व अन्य विभागों का तालमेल नहीं बन पाता। 16 प्रतिशत अधिकारियों के लिए लू (हीटवेव) की समस्या प्राथमिकता सूची में ही नहीं है। 14 प्रतिशत अधिकारियों को गर्मी या लू कोई ख़ास समस्या ही नहीं लगती।

ग़ौरतलब है कि 2024 इतिहास का सबसे अधिक लू दिनों वाना साल रहा। इस दौरान देशभर में 41,789 लोगों को लू लगी, जिनमें से 143 की मौत हो गयी। दरअसल अल्पकालिक उपाय जीवन रक्षक उपाय हैं और दीर्घकालिक उपाय स्वास्थ्य प्रणालियों को बेहतर बनाने तथा जलवायु परिवर्तन के मौज़ूदा व भावी दुष्प्रभावों को कम करने के लिए पर्यावरणीय क़दम उठाने पर केंद्रित हैं।

हाल ही में एक संसदीय पैनल ने राज्यसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में केंद्र सरकार को अपनी आपदा प्रबंधन रणनीति का विस्तार करके उसमें हीटवेव जैसे ‘नये और उभरते ख़तरों’ को शामिल करने की सिफ़ारिश की है। इसके अलावा इसने अधिसूचित आपदाओं की सूची की आवधिक समीक्षा और अद्यतन के लिए एक औपचारिक तंत्र स्थापित करने की सिफ़ारिश की है।

वर्तमान में राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (एनडीआरएफ) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (एसडीआरएफ) सहायता के लिए पात्र आपदाओं की अधिसूचित सूची में चक्रवात, सूखा, भूकंप, आग, बाढ़, सुनामी, ओलावृष्टि, भूस्खलन, हिमस्खलन, बादल फटना, कीब हमले, पाला और शीत लहरें शामिल हैं। बेशक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में लू को आपदा प्रबंधन रणनीति में शामिल करने की सिफ़ारिश कर दी है; लेकिन इसके सामानंतर यह सवाल भी उठता है कि पर्यावरण संरक्षण में वन के महत्त्व को देखते हुए हक़ीक़त में सरकार इस मुद्दे पर कितनी संजीदा है।

सरकार की भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2023 के अनुसार, भारत की 25 प्रतिशत भूमि जंगलों या पेड़ों से ढकी हुई है। देश में वर्ष 2021 में अंतिम आकलन के बाद 1,445.81 वर्ग किलोमीटर वन एवं वृक्ष में वृद्धि हुई है।

सरकारी रिपोर्ट्स अक्सर आँकड़े पेश करती हैं, उसके साथ-साथ जनता से बहुत अहम बिंदु छिपाने का भी काम करती हैं। यही इस रिपोर्ट से भी लगता है। विकास के दबाव में वनों का कटना, संरक्षण के लिए संसाधनों की कमी पर चिन्ता नहीं नज़र आती। हाईवे, पहाड़ों को काटकर सुंरगों का निर्माण, आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण संरक्षण नीतियों की अनदेखी का सिलसिला थमता नज़र नहीं आता।

वन संरक्षण अधिनियम-1980 और वन अधिकार अधिनियम-2006 का कार्यान्वयन भी पूरी भावना के साथ नहीं हो रहा है। सरकार को वनों की स्थिरता बनाये रखने के लिए अति गंभीर होने की ज़रूरत है। वनों का कटान से जैव विविधता को भी ख़तरा है।

बढ़ती आबादी के लिए बस्तियों की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पेड़ काटे जाते हैं, आर्थिक तरक़्क़ी के लिए जंगल ख़त्म किये जा रहे हैं। और गर्मी के मौसम में यह मुद्दा एक बार फिर प्रासंगिक हो उठा है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति सरकार को अति सचेत व सक्रिय होने की ज़रूरत है, ताकि चरम लू के प्रकोप से लोगों व धरती को बचाया जा सके।