पिछले दिनों अहमदाबाद में जिस प्रकार से एयर इंडिया की फ्लाइट का भयंकर हादसे के बाद गृहमंत्री अमित शाह ने बड़ी आसानी से कह दिया कि यह एक्सीडेंट है, एक्सीडेंट को कोई रोक नहीं सकता। लेकिन जिस तरह यह हादसा हुआ, उससे कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। सवाल इसलिए भी कि इस प्रकार का हादसा होना नामुमकिन जैसा लगता है और इसलिए भी सवाल उठते हैं कि ऐसे दर्दनाक हादसे जब देश में होते हैं, तो उसकी ज़िम्मेदारी कोई मंत्री या सरकार क्यों नहीं लेती? चाहे वो फ्लाइट हादसा हो, चाहे ट्रेन हादसा हो, चाहे सड़क हादसा हो या फिर चाहे पानी में हुआ कोई बड़ा हादसा हो। सवाल ये भी है कि जब अपनी जेब से एक भी पैसा ख़र्च किये बिना किसी शिलान्यास से लेकर उद्घाटन तक का श्रेय मंत्री और सरकार लेती है, तो किसी हादसे की ज़िम्मेदारी आख़िर मंत्री या सरकार क्यों नहीं लेते?
हद तो तब हो जाती है, जब सरकारी काम को उन पार्टियों के नेता भी चुनावों में भुनाते हैं, जिनकी पार्टी की सरकार में कोई छोटे-से-छोटा भी काम हुआ होता है। जबकि सरकार के पास जो भी पैसा होता है, वो जनता की मेहनत की कमायी में से दिये गये टैक्स का होता है। लेकिन ज़रा-से शिलान्यास पर भी मंत्री, बल्कि आजकल तो सीधे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का नाम लिखा जाता है और फोटो छपवा दिया जाता है। ज़रा-ज़रा से काम के प्रचार के लिए बड़े-बड़े पोस्टर, बैनर और होर्डिंग लगाये जाते हैं। लेकिन जब कोई दर्दनाक हादसा होता है, तो एक चुप्पी साध ली जाती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। जिन कामों का श्रेय लिया जाता है, उन्हीं कामों में कोई ख़राबी या हादसे के बाद कोई सामने नहीं आता। मसलन, कई पुल, सड़कें और निर्माण उद्घाटन के बाद ही ढह जाते हैं, तो उसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली जाती है।
दरअसल, अहमदाबाद के सरदार वल्लभभाई पटेल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ा एयर इंडिया का एआई-171 नंबर का बोइंग 787-8 ड्रीमलाइनर जहाज़ मेघानी नगर में सिविल हॉस्पिटल के मेडिकल हॉस्टल से टकराया, उसकी रोंगटे खड़े कर देने वाले वीडियो केंद्र सरकार को याद दिलाते रहेंगे कि ऐसे हादसे आख़िर कब तक होते रहेंगे और सरकार को सवालों के घेरे में रखेंगे, भले ही केंद्र सरकार इस तरफ़ ध्यान दे या न दे। झकझोरने वाले अहमदाबाद में हुए इस जहाज़ हादसे में उठे सवालों में पहला सवाल तो यह है कि जब जहाज़ तक़रीबन 12 साल पुराना बताया जाता है और उसका इंजन हादसे से तीन महीने पहले ही बदला गया था, फिर यह हादसा कैसे हो गया? और दूसरा सवाल यह है कि दोनों इंजन फेल कैसे हो गये? तीसरा सवाल यह है कि हादसे की जाँच के लिए मुख्य जाँचकर्ता की नियुक्ति में देरी क्यों की गयी? चौथा बड़ा सवाल यह है कि जब ब्लैक बॉक्स मिल गया, तो उसका डेटा निकालने और उसकी जाँच में हीलाहवाली का क्या मतलब है? पाँचवाँ बड़ा सवाल यह है कि जब जहाज़ में ख़राबी आयी और पायलट ने मदद माँगी, तो मदद क्यों नहीं मिल सकी या मदद का मौक़ा क्यों नहीं मिला? सवाल तो और भी हैं; लेकिन यह कहना होगा कि इतनी जल्दी हवाई जहाज़ का हादसा होना किसी के गले नहीं उतर रहा है।
हालाँकि कुछ रिपोर्ट्स से यह पता चला है कि जहाज़ पुराना था और उसमें कई ख़ामियाँ थीं। अगर ऐसा था, तो फिर बिना रिपेयरिंग किये उसकी उड़ान जारी क्यों रखी गयी? कहा जा रहा है कि एयर इंडिया के इस जहाज़ की डिटेल मेंटेनेंस जाँच जून, 2023 में भी की गयी थी और इस साल यानी 2025 के दिसंबर महीने में इसकी अगली डिटेल मेंटेनेंस जाँच होनी थी।
अक्सर देखा जाता है कि जिन मशीनों की क़ीमत ज़्यादा होती है। उनके चलने में रिस्क ज़्यादा होता है और उनकी मेंटेनेंस पर न सिर्फ़ ज़्यादा ख़र्च किया जाता है, बल्कि उनकी निगरानी भी ज़्यादा करनी पड़ती है। फ्लाइट यानी हवाई जहाज़ की यात्रा भी बहुत जोखिम भरी होती है, जिसके चलते उसकी जाँच, मेंटेनेंस, निगरानी और हर ज़रूरी दिशा-निर्देश का ख़याल रखना होता है। जब कोई जहाज़ रनवे से उड़ान भरने वाला होता है, तो उससे दो-ढाई घंटे पहले ही उसकी फिटनेस चेक होती है, जिससे अगर उसमें कोई कमी हो, तो उसे दूर किया जा सके और उसमें यात्रा करने वाले सही सलामत अपने गंतव्य तक पहुँच सकें। अहमदाबाद में भी एयर इंडिया के इस जहाज़ की फिटनेस जाँच ज़रूर हुई होगी, तो फिर ऐसा हादसा क्यों हुआ, जिसमें अभी तक 275 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की गयी है; जबकि अंदेशा है कि मारे गये लोगों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा हो सकती है।
बहरहाल, हमने देखा है कि सरकार डीजल की साल पुरानी और पेट्रोल की 15 साल पुरानी गाड़ियों को हटाने का काम करती है। तो क्या इसी प्रकार जहाज़ों के चलने की भी कोई समय सीमा निर्धारित है? या उन्हें भी पुरानी ट्रेनों की तरह लगातार इस्तेमाल में लाया जाता है? या जिन पेट्रोल और डीजल की गाड़ियों को लोग अपनी मेहनत की कमायी से जैसे-तैसे पैसा जोड़कर ख़रीदते हैं, सिर्फ़ उन्हीं पर ही यह फार्मूला लागू है? यहाँ पर एक बहुत बड़ा सवाल यह है कि पुरानी गाड़ियाँ सड़क पर नहीं चल सकतीं; लेकिन पुराने हवाई जहाज़ों को आकाश में उड़ाया जाता है। पुरानी ट्रेनों और सरकारी बसों को पटरी और सड़कों पर दौड़ाया जाता है। क्या केंद्र सरकार की यह दोहरी नीति नहीं है, जो जताती है कि सरकार किस प्रकार से बड़ी-बड़ी कम्पनियों के फ़ायदे के लिए दबाव में या पार्टी को मिलने वाले चंदे के चक्कर में अपने एजेंडे को साधती है और इस प्रकार के क़ानून बनाती है, जिससे आम आदमी, जिसमें मध्यम वर्ग सबसे ज़्यादा प्रताड़ित है, उसकी जेब से लगातार पैसा निकलता रहे और वहीं अमीर यानी पूँजीपतियों की जेब में और सरकार के ख़ज़ाने में उन्हीं घिसी-पिटी मशीनों या वाहनों से लगातार पैसा आता रहे, वो भी तब जब हवाई जहाज़ से लेकर ट्रेनों और सरकारी बसों का किराया लगातार बढ़ाया जाता है और उस पर भी टैक्स लिया जाता है।
अभी हाल ही में हमारे बीएसएफ के 1,200 जवानों को जिस प्रकार से त्रिपुरा से अमरनाथ में ड्यूटी पर जाने के लिए एकदम ख़राब हालत वाली ट्रेन मुहैया करायी गयी थी, जबकि नेताओं के लिए बेहतर-से-बेहतर ट्रेन में फर्स्ट क्लास यात्रा मुफ़्त दी जाती है। क्या वाहनों के चलने की अवधि और भेदभाव वाले ऐसे क़ानूनों में परिवर्तन करने की गंभीर ज़रूरत नहीं है? और ऊपर से जब कोई हादसा होता है, तो केंद्र सरकार के जवाबदेही वाले मंत्री न सवालों के जवाब देते हैं और न कोई ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं। जबकि एक समय था कि किसी भी हादसे पर मंत्री अपना इस्तीफ़ा खुद दे दिया करते थे। आज कोई नेता या मंत्री इस्तीफ़ा नहीं देता, क्योंकि इस्तीफ़ा अब अपनी ग़लती मानकर शर्मसार होने का प्रतीक नहीं, हार मानने का प्रतीक बना दिया गया है। सत्ताधारी वर्ग छवि प्रबंधन यानी इमेज मैनेजमेंट में माहिर हो गया है। सत्ता अब मीडिया, सोशल मीडिया और पेड नैरेटिव्स से चलती है, जवाबदेही से नहीं। आख़िर जवाबदेही अब सिस्टम का हिस्सा क्यों नहीं रही?
यह केवल एक आलेख नहीं, बल्कि एक आत्मिक दस्तावेज़ है और एक ऐसी सच्चाई का आईना है, जिसे आमतौर पर या तो नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है या फिर सत्ता के शोरगुल या दूसरे बड़े मुद्दे को उठाकर दबा दिया जाता है। अब हर त्रासदी या हादसे के बाद मृतकों के सही और आधिकारिक आँकड़े सामने नहीं आते। या यह कहा जाता है कि हादसे को कौन रोक सकता है। इसका मतलब यह है कि मौतें सिर्फ़ गढ़ी हुई ख़बरों की तरह अख़बारी शब्दों में समेटी या छुपाई गयी मनगढ़ंत संख्या बन चुकी हैं, जिन्हें कहीं ऊपर से मैनेज किया जाता है कि मौतों के आँकड़े कितने देने हैं और धीरे-धीरे देने हैं। और यह चलन बन गया है कि कहीं भी चाहे हादसा किसी भी प्रकार का हो, अगर ग़लती अपनी सरकार में हुई है, तो उस पर बेशर्मी से अपनी ग़लती छुपाने या ज़िम्मेदारी से भागने के लिए लीपापोती करनी है और जनता को गुमराह रखना है।
दरअसल, जब किसी पार्टी और उसके नेताओं का लक्ष्य सिर्फ़ चुनाव जीतना ही हो, तो जवाबदेही एक बोझ लगने लगती है। इसलिए ऐसी पार्टियों की सरकारों में न इस्तीफ़े होते हैं, न माफ़ी माँगी जाती है; सिर्फ़ पीआर कैंपेन्स चलती हैं। क्योंकि हमें भावनाओं से बाँध दिया गया है। अगर सवाल पूछे या सरकार या किसी मंत्री पर उँगली उठायी, तो देशद्रोही का टैग लगा देना अब आम बात हो चुकी है। पार्टियों और सरकारों के लिए यह इसलिए आसान हो चुका है, क्योंकि हम राष्ट्र भक्ति, राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र रक्षा, धर्म, संस्कृति को अपना सर्वस्व मानते हैं और जातीयता की ज़ंजीरों में हमें जकड़कर रखा गया है। और मनोविज्ञान कहता है कि इंसान, ख़ासतौर पर आम इंसान जिन चीज़ों को दिल की गहराइयों से मानता है, जिनकी आड़ में उसे आसानी से भावुक और ब्लैकमेल किया जा सकता है। और अगर कोई फिर भी एक जागरूक नागरिक है और सवाल करता है, तो उसे राष्ट्र, धर्म और संस्कृति जैसे मार्मिक शब्दों के ख़िलाफ़ बताकर देशद्रोही, धर्मद्रोही, असभ्य और दुश्मन देश का नागरिक बता दो, जिससे वह सवाल करने की जगह अपने बचाव में लग जाए।
यही वजह है कि आज ज़्यादातर लोग सवाल नहीं करते और जो सवाल करते हैं, उन्हें देशद्रोही या धर्मद्रोही, पाकिस्तानी या असभ्य बताकर बुनियादी सवालों से दूर होने को मजबूर कर दो। फिर भी कोई न माने, तो उसे पीट दो, उसकी हत्या करा दो या उसके ऊपर संगीन मामलों के तहत रिपोर्ट दर्ज कराकर झूठे मुक़दमों में फँसा दो या जेल भेज दो। आख़िर यह सब हो क्या रहा है? क्या किसी हादसे या कमी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? यह पूछना गुनाह है? नहीं; यह लोकतंत्र की आत्मा है, जिसे ज़िन्दा रखना बहुत ज़रूरी है। वर्ना वो दिन दूर नहीं, जब आम आदमी ग़ुलामी की ज़ंजीरों में उसी तरह जकड़ा नज़र आएगा, जिस तरह अंग्रेजों ने हमें जकड़ा था।
इसलिए मेरा मानना है कि लोग भावनाओं में बहकर नहीं, बल्कि सरकारों और नेताओं के कामकाज पर ध्यान केंद्रित करें। वर्ना हादसे होंगे, अत्याचार होगा, अपराध होंगे और जवाब देने वाला कोई नहीं होगा। क्योंकि लोकतंत्र में जब जनता सो जाती है, तब सत्ता मनमानी करने लगती है। विपक्ष का भी असली काम सरकार से जवाब माँगना है और चुप रहना एक अपराध है और लोकतंत्र की हत्या में एक मूक सहमति है। अगर सरकार विपक्षियों की नहीं सुनती है, तो उन्हें चाहिए कि वे हर समस्या को आन्दोलन में बदल दें, ताकि सरकार किसी भी मामले से भागे नहीं, बल्कि मजबूर होकर सही; लेकिन ज़िम्मेदार बने।
अब सवाल यह है कि अप्रैल में एअर इंडिया ने बोइंग 787-8 ड्रीमलाइनर के लिए बीमा कवर 750 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 850 करोड़ रुपये कर दिया गया था और अहमदाबाद में हुए इस जहाज़ हादसे के बाद टाटा ग्रुप को इस जहाज़ के हादसे में ख़त्म हो जाने के बदले तक़रीबन 3,000 करोड़ रुपये इंश्योरेंस कम्पनी को भरने पड़ सकते हैं, जो कि अब तक का सबसे बड़ा इंश्योरेंस क्लेम होगा। कहा जा रहा है कि इस क्लेम से एविएशन इंश्योरेंस सेक्टर में भूचाल आ सकता है। लेकिन उनका क्या, जिनकी जान चली जाती है या जो किसी हादसे में अपाहिज हो जाते हैं या बुरी तरह चोटिल हो जाते हैं और अपने इलाज में लाखों रुपये ख़र्च करने को मजबूर होते हैं।
अहमदाबाद के जहाज़ हादसे में भी मरने वालों के परिजनों को और उस हॉस्टल में मौज़ूद मरने वालों के परिजनों को कुछ ख़ास नहीं मिलेगा। इसमें तो मिलेगा भी; लेकिन सड़क और रेल हादसों में हमेशा के लिए हैंडीकैप होने या चोटिल होने पर हादसे के शिकार लोगों को और मारे गये ज़्यादातर लोगों के परिजनों को कोई मुआवज़ा तक नहीं मिलता।
आज देश में हर साल तक़रीबन पाँच लाख से ज़्यादा बड़े सड़क हादसे होते हैं, जिनमें तक़रीबन दो लाख लोग मारे जाते हैं और तक़रीबन तीन लाख से ज़्यादा लोग गंभीर रूप से घायल होते हैं। इसी तरह ट्रेन हादसे में मारे गये बहुत से लोगों की गिनती इसलिए नहीं होती, क्योंकि वो जनरल या रिजर्वेशन कंफर्म न होने पर यात्रा करते हैं।
रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ़ केंद्र की मोदी सरकार में साल 2014 से साल 2024 तक देश भर में 641 ट्रेन हादसे हो चुके हैं; लेकिन कोई बड़ी ज़िम्मेदारी अभी तक मौज़ूदा सरकार के ज़िम्मेदार रेल मंत्री या प्रधानमंत्री ने अपने सिर पर लेते हुए इस्तीफ़ा देने की बात तो दूर, माफ़ी तक नहीं माँगी है। इसी तरह देश में कई विमान हादसे भी हो चुके हैं; लेकिन सभी में सिर्फ़ जाँच का दिलासा मिल जाता है, ज़िम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं होता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)