– प्रधानमंत्री मोदी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कह चुके हैं कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने की पद्धति है
एक बार एक इंटरव्यू में देश के प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़-साफ़ कहा था कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है। उन्होंने कहा था कि ‘हिन्दू कोई रिलीजन नहीं, वे ऑफ लाइफ है। सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के अनुसार, हिन्दू कोई धर्म नहीं, जीने की पद्धति है। इस देश में हमारे ही सब लोग हैं। हम सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के हिसाब से चलते हैं। और उसमें न बौद्ध को एतराज़ है, न सिख को एतराज़ है। इतना ही नहीं, आज भी केरल में हमारे ईसाई संप्रदाय से लोग हैं, जो इसी प्रकार से जीवन जीते हैं।’
जब पत्रकार ने सवाल किया कि आपके मेनिफेस्टो में तो हिन्दुओं की बात है? तब नरेंद्र मोदी ने जवाब दिया- ‘वो सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से हम वे ऑफ लाइफ के हिसाब से करते हैं, रिलीजन के हिसाब से नहीं करते। हम मानने को तैयार नहीं हैं कि हिन्दू कोई धर्म है।’ तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और केंद्र की सत्ता में आने की तैयारी कर रहे थे। फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने कनाडा में भी यही कहा था कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक पद्धति है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा था कि मुसलमानों का विरोध करने वाले हिन्दू नहीं हो सकते। हिन्दू तो जीओ और जीने दो के हिसाब से चलते हैं। विश्व को भाईचारे की भावना सिखाते हैं। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी पूरी भाजपा टीम और यहाँ तक कि संघ देश में हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति करके ही आज सत्ता में हैं।
देश के सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी, 2023 में भाजपा के अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा था कि ‘हिन्दू धर्म नहीं, बल्कि यह जीवन जीने का एक तरीक़ा है। इसमें कोई कट्टरता नहीं है। न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने कहा था कि भारत क़ानून के शासन, धर्मनिरपेक्षता और संविधानवाद से बँधा हुआ है। कोई भी देश अतीत का क़ैदी बनकर नहीं रह सकता। न्यायमूर्ति जोसेफ का मानना है कि उपाध्याय की याचिका से और अधिक वैमनस्य पैदा होगा, क्योंकि वह एक ख़ास समुदाय को निशाना बना रहे थे।
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने साफ़ कहा था कि ‘हिन्दू धर्म जीवन जीने का एक तरीक़ा है। इसकी वजह से भारत ने सभी को आत्मसात किया है। इसकी वजह से हम एक साथ रह पा रहे हैं। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति ने विभाजन पैदा किया। हमें उस स्थिति में वापस नहीं आना चाहिए।’ उन्होंने याचिका ख़ारिज करते हुए कहा था कि ‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। कोई भी देश अतीत का क़ैदी नहीं रह सकता किसी भी देश का इतिहास वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों को इस हद तक परेशान नहीं कर सकता कि आने वाली पीढ़ियाँ अतीत की क़ैदी बन जाएँ।’
साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने 1995 के फ़ैसले पर पुनर्विचार न करने का फ़ैसला किया था। पीठ का ध्यान एक अलग मुद्दे पर था कि क्या किसी धार्मिक नेता द्वारा किसी विशेष पार्टी को वोट देने की अपील जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-123 के तहत चुनावी कदाचार के बराबर है, और उसने हिन्दुत्व के अर्थ के बारे में व्यापक बहस में नहीं उलझने का फ़ैसला किया? उस समय हिन्दुत्व को फिर से परिभाषित करने और चुनावों में इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की याचिका को भी ख़ारिज कर दिया गया था। तक़रीबन दो साल पहले ही 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से पुष्टि की कि हिन्दुत्व एक जीवन-शैली है, इसकी समावेशी प्रकृति पर ज़ोर देते हुए और यह कहते हुए कि हिन्दू धर्म में कोई कट्टरता नहीं है। न्यायालय ने ऐतिहासिक स्थानों के लिए नामकरण आयोग स्थापित करने की याचिका ख़ारिज करते हुए यह टिप्पणी की थी, जिसमें विविध संस्कृतियों को आत्मसात करने में हिन्दू धर्म की भूमिका पर प्रकाश डाला गया। जबकि याची को सन् 1995 के आदेश की अपेक्षा थी। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने साल 2023 में आगे बढ़कर अपने रुख़ को मज़बूत तरीक़े से पुष्टि के साथ जीवन के तरीक़े की व्याख्या को मज़बूत किया गया है, जो लगभग तीन दशकों से एक सुसंगत न्यायिक दृष्टिकोण को दर्शाता है।
दरअसल साल 1995 में देश के सुप्रीम कोर्ट ने मनोहर जोशी बनाम एन.बी. पाटिल के मामले में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय जारी किया था। यह मामला तब उठा, जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने मनोहर जोशी सहित नौ भाजपा उम्मीदवारों का चुनाव रद्द कर दिया था, क्योंकि उन्होंने 1992-93 के मुंबई दंगों के बाद हिन्दू राज्य बनाने के लिए वोट माँगे थे। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि ‘हिन्दुत्व अथवा हिन्दू धर्म उपमहाद्वीप में लोगों की जीवन-शैली और मन की स्थिति है, न कि धर्म।’ इसका मतलब यह था कि चुनावों में हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म की अपील करना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाता है, जो धार्मिक आधार पर प्रचार करने पर रोक लगाता है। इस फ़ैसले के राजनीतिक निहितार्थ थे; क्योंकि इसने भाजपा जैसी पार्टियों को धार्मिक पहचान के बजाय सांस्कृतिक और जीवनशैली पहचान के रूप में हिन्दुत्व का उपयोग करके प्रचार करने की अनुमति दी। हालाँकि यह विवादास्पद रहा है, आलोचकों का तर्क है कि इसने भारत के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को कमज़ोर किया है। पिछले कुछ वर्षों में इस फ़ैसले पर बहस होती रही है, जिसके कारण इसकी दोबारा जाँच की माँग उठती रही है।
यह खंड 1995 के न्यायालय के आदेश के बारे याचिकाकर्ता के प्रश्न का व्यापक विश्लेषण प्रदान करता है, जिसमें कहा गया है कि हिन्दू धर्म जीवन जीने का एक तरीक़ा है, जो क़ानूनी निर्णयों, समाचार रिपोर्ट्स और विद्वानों के संदर्भों में व्यापक शोध पर आधारित है। विश्लेषण का उद्देश्य सभी प्रासंगिक विवरणों को शामिल करना है, जिससे पाठकों को विषय के क़ानूनी, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों में रुचि रखने वालों के लिए पूरी समझ सुनिश्चित हो सके।
बहरहाल साल 1995 का निर्णय मनोहर जोशी बनाम एन.बी. पाटिल मामले में था, जिसकी सुनवाई न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा के नेतृत्व में भारत के सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने की थी। इसके अलावा हाई कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था कि जोशी का अभियान के दौरान दिया गया बयान- ‘पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में स्थापित किया जाएगा; यह धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा-123(3) के तहत एक भ्रष्ट आचरण का गठन करता है, जो धर्म के आधार पर वोट के लिए अपील करने पर रोक लगाता है।’
हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर, 1995 को इस फ़ैसले को पलट दिया था, जिसमें एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया गया कि ‘हिन्दुत्व अथवा हिन्दू धर्म उपमहाद्वीप में लोगों की जीवन-शैली और मन की स्थिति है, न कि धर्म।’ यह व्याख्या महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इसने अदालत को यह तर्क देने की अनुमति दी कि हिन्दुत्व की अपील करना धार्मिक प्रचार के बराबर नहीं है, जिससे जोशी का चुनाव बरक़रार रहा। इस फ़ैसले का संदर्भ भारतीय क़ानून में दिया जा सकता है। हालाँकि पूर्ण पाठ तक सीधे पहुँच के लिए क़ानूनी डेटाबेस की आवश्यकता हो सकती है। रही हिन्दुत्व को धर्म को रूप में प्रचार करके चुनाव जीतने की बात, तो यह चलन आज भी बंद नहीं हुआ है। कई पार्टियों के नेता, ख़ासतौर पर भाजपा नेता और प्रधानमंत्री मोदी भले ही ये नहीं मानते हों कि हिन्दू कोई धर्म है; लेकिन अपनी राजनीतिक रोटियाँ आज भी हिन्दू धर्म के नाम पर ही सेंकते नज़र आते हैं। हिन्दुओं को ख़तरे में बताकर, हिन्दू को धर्म बताकर उसे भी ख़तरे में बताकर चुनावों में प्रचार करते हैं। और जब कहीं दंगा-फ़साद हो, तो फिर उन्हीं हिन्दू युवाओं को मरने-कटने के लिए आगे कर दिया जाता है। आज तक जितने भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए हैं, उनमें से ज़्यादादर दंगे राजनीति से प्रेरित निकले हैं। ऐसा नहीं है कि दूसरे धर्मों के लोग कुछ कम हैं; लेकिन सनातन धर्म, जिसे वैदिक धर्म भी कहते हैं; को हिन्दू धर्म बताकर लोगों को गुमराह करने की राजनीति किसी भी हाल में उचित नहीं है।
बहरहाल, हिन्दू को धर्म न मानने को लेकर न्यायालयों का तर्क इस समझ पर आधारित था कि हिन्दुत्व धर्म एक अवधारणा के रूप में केवल धार्मिक प्रथाओं से परे एक व्यापक सांस्कृतिक और सामाजिक ढाँचे को समाहित करता है। इसे भारतीय उपमहाद्वीप की विविध परंपराओं, रीति-रिवाज़ों और दर्शन को प्रतिबिंबित करने वाले जीवन के तरीक़े के रूप में वर्णित किया गया था। इस व्याख्या को ऐतिहासिक और अकादमिक विचारों के साथ संरेखित करने के रूप में देखा गया था, जैसे कि ब्रिटिश इतिहासकार मोनियर विलियम्स द्वारा जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपनी पुस्तक धार्मिक विचार और भारत में जीवन में पंथों और सिद्धांतों का एक जटिल समूह के रूप में वर्णित किया था।
इस निर्णय का चुनावी राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, विशेष रूप से भाजपा जैसी पार्टियों पर; जिन्होंने हिन्दुत्व को एक वैचारिक ढाँचे के रूप में अपनाया और उसका फ़ायदा उठाया। इसने राजनीतिक अभियानों को हिन्दुत्व को एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में लागू करने में सक्षम बनाया, जो धार्मिक अभियान के रूप में वर्गीकृत किये बिना संभावित रूप से मतदाता की भावना को प्रभावित करता है। इसलिए आज हम सबको यानी हर धर्म और वर्ग क लोगों को धर्म का सही अर्थ समझने की ज़रूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)