इस बार का राष्ट्रीय चुनाव ख़ास रहा। न कोई हवा, न यह पता चला कि वोटर ने किस मुद्दे को पकड़ा। वोटर के इस रुख़ से नेता लोग तो परेशान हुए ही, मीडिया के लोग भी हवा में तीर चलाते रहे। हाँ, जिनके हित किसी दल ख़ास के साथ जुड़े थे, वे उन्हें 400 पार बताते रहे। ज़मीन पर यह चुनाव पिछले तीन महीने में कभी भी 400 पार वाला नहीं दिखा। न किसी ब्रांड की हवा थी, न वोटर अपना मन खुलकर बता रहा था। फिर भी कुछ मुद्दे थे, जो ज़मीन के भीतर-ही-भीतर अपना काम कर रहे थे; लेकिन समझ नहीं आ रहे थे। अब 04 जून को पता चलेगा कि जनता ने क्या फ़ैसला किया? हाँ, एक बात साफ़ है कि इस चुनाव में भाषणों का स्तर बहुत नीचे चला गया, और दुर्भाग्य से ऐसा करने में ख़ुद देश के प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं रहे। कुछ नेता ऐसे भी रहे, जिन्होंने ख़ुद को मुद्दों और अपने घोषणा-पत्र तक सीमित रखा; जिनमें राहुल गाँधी का नाम लिया जा सकता है। बेशक प्रधानमंत्री मोदी की निंदा करने से वह भी ख़ुद को बचा नहीं पाये; भले उनकी भाषा बेहतर रही हो।
यह चुनाव कुछ राज्यों में आश्चर्यजनक नतीजे दे सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी का इंडिया गठबंधन की सरकार बनने पर महिलाओं के खाते में एक लाख रुपये डालने के लिए इस्तेमाल किया गया खटाखट शब्द इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रधानमंत्री मोदी तक इसे अपनी चुनावी जनसभाओं में कहते दिखे, भले कटाक्ष के लिए। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी का जाति जनगणना, संविधान बचाने, बेरोज़गारी और महँगाई के मुद्दे जनता के बीच पहुँचते दिखे। यदि इसने अपना काम किया होगा, तो कांग्रेस का आँकड़ा पिछली बार की 52 सीटों से उछाल मार सकता है और उसे बेहतर स्थिति तक पहुँचा सकता है। इस चुनाव में राहुल गाँधी का इंडिया गठबंधन के दो बड़े साथियों उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव और बिहार के तेजस्वी यादव के साथ बहुत बेहतर तालमेल दिखा। लगा नहीं कि यह अलग-अलग दल हैं, जिनकी अपनी नीतियाँ हैं। राष्ट्रीय (कांग्रेस) और उसके क्षेत्रीय सहयोगियों का यह ताल-मेल वोटों में तब्दील हुआ, तो भाजपा को यह इन दो राज्यों में उसकी पिछली बार की सीटों से नीचे धकेल सकता है। तालमेल का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि कहीं भी कांग्रेस और उसके क्षेत्रीय सहयोगियों के मुद्दों का टकराव नहीं हुआ। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने जिस सामाजिक समानता और न्याय की बात इस चुनाव के मुख्य मुद्दे के रूप में सामने रखी, वह वास्तव में सपा और राजद की राजनीति का भी आधार रहा है।
यह मुद्दा न सिर्फ़ जातिगत रूप से, बल्कि आर्थिक और सामाजिक रूप से भी मतदाता को एकजुट करता है। बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में यदि ऐसे मुद्दे गठबन्धन को लाभ करते हैं, तो इसका सीधा नुक़सान भाजपा का होगा। इसका एक कारण यह भी है कि यह वर्ग जब इस तरह के मुद्दों पर वोट करता है, तो कमोवेश एकतरफ़ा चला जाता है। यही कारण है कि इस ख़तरे को समझते हुए भाजपा के ब्रांड प्रचारक और प्रधानमंत्री मोदी को अपने भाषणों में इस झूठ की मदद लेने पड़ी कि यदि कांग्रेस गठबंधन सत्ता में आया, तो वह इन (हिन्दू) जातियों का आरक्षण मुसलमानों को दे देगा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा, जो हिमाचल में कांगड़ा लोकसभा सीट से मैदान में हैं; ने इस पत्रकार से बातचीत में कहा- ‘कांग्रेस के बारे में भला कोई ऐसे सोच भी कैसे सकता है? आपको लगता है कि आज़ादी के समय से लगातार जो कांग्रेस इन जातियों को आरक्षण की समर्थक रही है, वह उनका आरक्षण ख़त्म कर सकती है? यह तो हास्यास्पद आरोप है।’
मतदान के बीच कई ऐसे लोग भी इस पत्रकार को मिले, जिन्होंने कहा कि उन्होंने भाजपा, स्थानीय उम्मीदवार या राहुल गाँधी के मुद्दों के आधार पर वोट नहीं दिया। उन्होंने सिर्फ़ मोदी के नाम पर वोट दिया। नि:संदेह अभी भी काफ़ी लोग हैं, जिन पर मोदी पर पिछले 10 साल की छवि का असर अभी भी है। इनमें से कुछ ऐसे लोग भी मुझे मिले, जिन्होंने कहा कि वे राहुल गाँधी के रोज़गार और महँगाई जैसे मुद्दों को ग़लत नहीं मानते; क्योंकि यह हक़ीक़त है। लेकिन मोदी ने धर्म के लिए जो किया, उसके कारण कम-से-कम इस बार का वोट तो उन्हें देना बनता है। साफ़ है जनता का भाजपा के बड़ी संख्या में सांसदों से मोह भंग था। लोग बेरोज़गारी से भी त्रस्त हैं। और महँगाई भी उन्हें परेशान कर रही है; लेकिन धार्मिक आधार पर वे मोदी के साथ खड़े हैं। ज़मीन की इस हक़ीक़त पर नज़र दौड़ायी जाए, तो मोदी अपने इन समर्थकों के लिए धर्म के आधार पर महत्त्वपूर्ण हैं, सरकार की कार्यकुशलता के कारण नहीं। इन चुनावों में भाजपा और मीडिया के एक बड़े वर्ग और उसी लाइन पर चलने वाले राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी के सामने कौन? वाला नैरेटिव बनाया, तो यह नैरेटिव मोदी की मज़बूत धार्मिक छवि पर आधारित था। यह नैरेटिव कभी भी देश को चला सकने की क्षमता के आधार पर जनता का बनाया नहीं रहा। जिस तरह मोदी समर्थक उन पर राम मंदिर बनवाने और हिन्दुओं को ताक़त देने के कारण उन पर फ़िदा हैं; उसी तरह रोज़गार, महँगाई और सामाजिक न्याय की बात करने वाले राहुल गाँधी के मुद्दों को पसंद करने वाले लोग राहुल गाँधी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखने की कल्पना कर रहे हैं।
इसके बावजूद नैरेटिव यह बना दिया गया कि मोदी के मुक़ाबले विपक्ष में कोई नहीं; क्योंकि इस नैरेटिव को गढ़ने वाली भाजपा के साथ उसके समर्थक पत्रकारों (गोदी मीडिया) की बड़ी $फौज खड़ी दिखी। कांग्रेस, राहुल गाँधी और विपक्ष को मीडिया के इस वर्ग ने भाजपा के प्रभाव के कारण अलग-थलग कर दिया। यही कारण रहा कि अक्सर राहुल गाँधी के भाषणों में यह पीड़ा अक्सर उभर आती थी, जब वह मीडिया के इस ताक़तवर वर्ग पर निष्पक्ष नहीं होने का आरोप लगाते थे। निश्चित ही इससे राहुल गाँधी को कुछ राजनीतिक नुक़सान भी झेलना पड़ा। लेकिन बहुत-से जानकार मानते हैं कि धन-बल के ज़ोर से मीडिया को एकतरफ़ा चलाने की भाजपा की इस मुहिम का सबसे बड़ा नुक़सान ख़ुद मोदी को हुआ है, जिन्होंने इस चुनाव प्रचार में बहुत हल्के शब्दों का इस्तेमाल करके अपनी ही छवि को बड़ी चोट पहुँचायी है। उत्तर प्रदेश में एक जगह युवा बेरोज़गार राहुल पांडेय ने इस पत्रकार से बातचीत में कहा- ‘हम दिन भर टीवी पर मोदी जी का झूठ सुनकर पक चुके हैं। वह रोज़गार की बात नहीं करते। महँगाई की बात नहीं करते। वह अब 2014 और 2019 वाले मोदी नहीं हैं। दोनों बार हमने उनका समर्थन किया था, इस चुनाव में नहीं।’ इस बार फ्लोटिंग वोटर भी भाजपा और मोदी से बिदका हुआ है। मतदान के दौरान अलग-अलग राज्यों में ऐसे बहुत-से लोग मिले, जिन्होंने इस पत्रकार से कहा कि वे इस बार बदलाव के लिए वोट डाल रहे हैं। इनमें नौकरी-पेशा भी थे, बेरोज़गार भी और महिला-युवा-प्रौढ़ सभी ही। राहुल गाँधी के रोज़गार-महँगाई, जातीय जनगणना, युवाओं को रोज़गार की गारंटी और अग्निवीर योजना ख़त्म करने, पुरानी पेंशन, महिलाओं को 8,330 रुपये महीने (साल भर में एक लाख), जीएसटी, 10 किलो अनाज और किसानों को एमएसपी की गारंटी की बात पहले चरण के बाद धीरे-धीरे गाँवों में भी पहुँच गयी। महिलाओं को साल में एक लाख देने का राहुल का वादा उन महिलाओं को भी आकर्षित करने में काफ़ी हद तक सफल रहा है, जो पिछले दो चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी की फैन रही हैं। ख़ासकर ग्रामीण इला$कों में भाजपा को इसका बड़ा नुक़सान झेलना पड़ सकता है। ऐसा लगता है कि बढ़ती महँगाई ने महीने के 8,330 रुपये देने के कांग्रेस के वादे ने महिलाओं को कांग्रेस (इंडिया) गठबंधन की तरफ़ जाने को प्रोत्साहित किया है।
इसके विपरीत भाजपा और ब्रांड मोदी के पास जनता को देने के लिए कुछ नहीं था। इसलिए उनके मुद्दे हिंदू-मुस्लिम, मंगलसूत्र और मुजरा जैसे जुमलों तक सिमट गये, जो वास्तव में वोट की गारंटी नहीं देते। यह मुद्दे उन वोटर को ही भाजपा की तरफ़ आकर्षित कर सके, जो पहले ही धर्म के आधार पर मोदी और भाजपा के साथ हैं। फ्लोटिंग वोटर ऐसे मुद्दों पर कभी भी लगातार तीन बार वोट नहीं देता; क्योंकि उसकी नज़र दैनिक ज़रूरतों पर ज़्यादा रहती है। यह समाज का बड़ी तादाद वाला मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग है। इसी ने 2004 और 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए को 10 साल सत्ता में बनाये रखा था। लेकिन 2014 और 2019 के चुनावों में मोदी के साथ रहने वाले इस फ्लोटिंग वोटर का मूड इस बार पिछले दो चुनावों जैसा नहीं दिखा।
यह चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नरेंद्र मोदी और राहुल गाँधी के बीच न होते हुए भी मोदी बनाम राहुल गाँधी का चुनाव है। नतीजे चाहें जो भी आएँ, इस चुनाव ने इस देश में मोदी के बाद राहुल गाँधी को एक राष्ट्रीय नेता और विकल्प के रूप में जनता के सामने खड़ा कर दिया है। इस चुनाव के दो सबसे बड़े राजनीतिक पात्रों में मोदी थके हुए और उबाऊ मुद्दों के सहारे खड़े दिखते हैं, जबकि राहुल गाँधी जनता की ज़रूरत के मुद्दों के साथ एक ऊर्जावान नेता के रूप में खड़े दिखते हैं। उबाऊ मुद्दों पर निर्भर होने के बावजूद मोदी ताक़तवर दिखते हैं, तो इसलिए कि वह ज़मीन पर एक मज़बूत संगठन के शिखर पर खड़े हैं, जहाँ उनकी ख़ुद की तमाम कमज़ोरियाँ छिप जाती हैं। अपने बूते जनता के मुद्दों की लड़ाई लड़ने और ऊर्जावान होने के बावजूद राहुल गाँधी यदि मोदी से कमतर दिखते हैं, तो इसका कारण वह ख़ुद नहीं, उनकी पार्टी कांग्रेस का लचर संगठन है। लेकिन एक जीत कांग्रेस और राहुल गाँधी दोनों को उसी मुक़ाम पर ला सकती है, जिस पर आज मोदी विराजमान हैं। क्या राहुल गाँधी और कांग्रेस को इस चुनाव में वह अवसर मिलेगा? यह भी 04 जून को ही पता चलेगा।