अशोक कुमार दिल्ली के सदर बाजार स्थित स्वदेशी मार्केट में बटन की दुकान चलाते हैं. कुछ महीनों पहले अशोक कुमार को सीईपी का नोटिस मिला है, जिसमें उनकी दुकान को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया है. नोटिस उनके पास सात-आठ महीने पहले आया था. अशोक बताते हैं, ‘आज आप मालिक हैं, कल कोई आकर कहे कि वो मालिक है, आप गश खाकर गिर जाते हैं. यही हमारे साथ हुआ. पहले सीईपी वाले पूछताछ करने आए. मेरा नाम व दुकान का नंबर लिख ले गए. बाद में नोटिस भेज दिया कि आप तो इस संपत्ति के मालिक ही नहीं हैं.’ सदर बाजार में उनकी यह दुकान 70 साल पुरानी है. 1947 में उनके पिता लाहौर से भारत आए थे. वे बताते हैं, ‘पिता जी कहा करते थे कि जब वे लाहौर में अपना जमा-जमाया काम छोड़ भारत आए थे तो यहां के हालात बहुत खराब थे. लोग सड़कों से धंधा चलाते थे. नेहरू सरकार ने पाकिस्तान छोड़कर भारत आने वालों की कोई सहायता नहीं की थी. दोनों देशों के हुक्मरानों के इस राजनीतिक फैसले से लोगों की मिट्टी खराब हो गई थी. पाकिस्तान से आकर लोग यहां अपने रिश्तेदारों के घर आसरा ले रहे थे. जिनका कोई नहीं था वे भगवान भरोसे थे. पिता जी ने भी नाना जी के यहां अंबाला में तीन महीने बिताए. उसके बाद वे दिल्ली आ गए और काफी जद्दोजहद के बाद ये दुकान किराये पर ली.’ 1989 तक दुकान में बतौर किरायेदार रहने के बाद अशोक कुमार और उनके पिता ने इसे खरीदकर उसकी रजिस्ट्री करा ली. इसके बाद से बाकायदा दुकान से संबंधित टैक्स भी भरते रहे. वे सवाल उठाते हैं, ‘जब हम मालिक ही नहीं थे तो हमसे किस बात का टैक्स लिया जा रहा था? शत्रु संपत्ति की रजिस्ट्री कैसे हो सकी? तब कस्टोडियन कहां था? क्यों उसने उन लोगों के पाकिस्तान जाते ही संपत्ति जब्त नहीं की? दुकान खरीदने से पहले हमने सारे दस्तावेज जांचे थे, 40 साल से किरायेदार थे. इसलिए मालिक पर तो संदेह करने का प्रश्न ही नहीं था.’
विस्थापन के बाद व्यक्ति एक नई शुरुआत जमीनी स्तर से करता है. सफलता सुनिश्चित नहीं होती. अब अगर वह सफल हो जाए और फिर उसे वहां से भी हटाया जाए, इसकी पीड़ा अशोक कुमार के इन शब्दों से पता चलती है, ‘लाहौर के अनारकली विहार में तब हमारी सर्राफ की दुकान प्रसिद्ध थी. हम वो सब छोड़कर भारत चले आए. खून-पसीना बहाकर यहां वर्षों में हमने साख बनाई. जिस देश पर भरोसा किया, आज सत्तर साल बाद हमसे वही रोजगार छीन रहा है. हम व्यापारी लोग हैं. धंधा करें या अदालतों के चक्कर लगाएं? जो पाकिस्तान गए, उनके जाने की सजा हमें क्यों? ये तो सरासर दादागिरी है. हम तो लुट रहे हैं एक तरह से. 40 साल तक किराया दिया, वो गया. दुकान की पगड़ी और खरीदी का पैसा गया. ऊपर से मालिक होकर भी अपनी ही दुकान में किरायेदार बनने की तलवार सिर पर लटक रही है.’ थोड़ा रुककर वे कहते हैं, ‘हमसे कहते हैं कि जवाब दो यह शत्रु संपत्ति नहीं है. अब जिससे खरीदी उसे 27 साल बाद हम कहां ढ़ूढ़ें. जिन लोगों ने संपत्ति हमें बेची वो तो शांति से बैठे होंगे, भुगत हम रहे हैं. अब तो लगता है कि कभी भी उठाकर हमें यहां से बाहर फेंक दिया जाएगा. सरकार का कुछ भरोसा नहीं. बीबी-बच्चों सहित हमें हरिद्वार भेजने की तैयारी है.’