डॉक्टर ताज फारूकी की उत्तर प्रदेश के सीतापुर में बहुत बड़ी संपत्ति थी. उनके चाचाओं के पाकिस्तान चले जाने के कारण वह उनसे छिन गई. यहां तक कि उनके एक चाचा इंग्लैंड बस गए थे, उन्हें भी पाकिस्तानी मान लिया गया. वे बताते हैं, ‘मेरे दादा-दादी की मौत के बाद उनकी संपत्ति मेरे पिता और उनके तीन भाइयों के बीच बराबर बंट गई थी. एक मकान था जिसमें चार हिस्से थे और एक बगीचा जिसके दो हिस्से हुए थे. इनमें एक हिस्सा मेरे पिता का भी था. बाद में मेरे दो चाचा पाकिस्तान चले गए और एक इंग्लैंड.’ कुछ समय बाद डॉक्टर फारूकी के पास एक सरकारी नोटिस आया. पूरी संपत्ति को सरकार ने शत्रु संपत्ति मान लिया था. उनके इंग्लैंड जा बसे चाचा को भी पाकिस्तानी करार दे दिया गया. वे कहते हैं, ‘देश उन्होंने छोड़ा, सजा हमें मिली. बहुत बड़ी संपत्ति हमने खो दी. मकान का चौथाई शेयर था हमारे पास, जिसकी कीमत तब पचास लाख रुपये थी. मकान की बनावट के कारण उसमें हिस्से की गुंजाइश नहीं थी. इसलिए बाकी तीन हिस्से खरीदने की इच्छा जताई. पर सरकार ने बेचने से इनकार कर दिया. कहा गया कि पाकिस्तान के साथ शत्रु संपत्तियों का मामला सुलझाया जाएगा. चूंकि मामला अल्पसंख्यकों से जुड़ा था और पीडि़तों की संख्या भी कम थी, इसलिए सरकारों ने इसे सुलझाने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई. सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी या मोदी की, कभी किसी ने अल्पसंख्यकों के हितों की परवाह नहीं की.’
डॉक्टर फारूकी के पास अदालत जाने का विकल्प था पर उनके पिता का देहांत हो गया. वे इकलौती संतान हैं. उस समय वे डॉक्टरी की प्रैक्टिस भी कर रहे थे. वे कहते हैं, ‘मैं अकेला था. चार बेटियां थीं. इन चक्करों में पड़ता तो उम्र भी कम पड़ जाती, करिअर खत्म हो जाता. हमारी व्यवस्था कैसे काम करती है ये तो आप जानते ही हैं. मेरे इंग्लैंड वाले चाचा ने तो बोला था कि संपत्ति के लिए मैं अदालत में केस लड़ूं. फिर मैंने कोशिश की. सीईपी के दफ्तर मुंबई भी गया. उनसे गुजारिश की. जमीनें तो हम बहुत खरीद सकते हैं, पर इससे भावनात्मक जुड़ाव है. उन्होंने आवेदन देने को कहा. बोले, पहले गृह मंत्रालय जाएगा, फिर विदेश मंत्रालय, फिर पाकिस्तान से बात होगी. बस मैं समझ गया कि लड़ने से कोई फायदा नहीं. ये सरकारी विभाग हैं, दोनों मुल्कों के प्रधानमंत्रियों की भी बैठक करा सकते हैं. लालफीताशाही इनकी रगों में है. गलती खुद करें, भाेगे जनता.’
डॉक्टर फारूकी से जायदाद छीन ली गई थी. पर लगान उनसे वसूला जाता रहा. वह भी 30 साल तक देते रहे. इस आस में कि उन्हें उनका हिस्सा वापस मिलेगा. 1995 में वे बगीचे का अपना आधा हिस्सा वापस पाने में सफल भी रहे. इसके लिए उन्हें आखिरकार एक मुकदमा करना ही पड़ा. पर मकान में से हिस्सा उन्हें नहीं मिल सका. वे कहते हैं, ‘हम उस पशु को पाल रहे थे जो दूध नहीं देता. जिस संपत्ति पर से हमारा मालिकाना हक छीन लिया गया, उसका लगान हम भर रहे थे. लगान की राशि भले ही मामूली थी पर सही मायने में यह गलत था न. और लड़ने पर गलत को गलत साबित करना इस व्यवस्था में बहुत चुनौतीपूर्ण है. आज भी वो हमसे लगान मांगते हैं. डीएम तक ने पत्र भेजा था. मैंने कह दिया, मैं नहीं दूंगा, नीलाम कर दो मकान.’ डॉ. फारुकी की कहानी एक सवाल छोड़ती है कि क्या नया कानून सीईपी को इसी तरह की मनमानी करने की छूट ताे नहीं दे देगा?