मतदाता पुनरीक्षण और समय के विरुद्ध दौड़

बिहार में मतदाता सूची से अपात्र लोगों को हटाने के लिए पुनरीक्षण कर रहा चुनाव आयोग

इंट्रो- चुनाव आयोग कह रहा है कि बिहार के लगभग आठ करोड़ मतदाताओं का संपूर्ण पुनरीक्षण सटीक और त्रुटिरहित मतदाता सूची बनाने के लिए किया जा रहा है, जो उचित और स्वतंत्र है तथा निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए इसकी बुनियादी आवश्यकता है। क्या बिहार में केवल दो महीनों में लगभग आठ करोड़ मतदाताओं का ईमानदारी से पुनरीक्षण संभव है? विभा शर्मा की रिपोर्ट :-

कई विपक्षी नेताओं का तर्क है कि आगामी विधानसभा चुनावों में केवल योग्य नागरिकों के ही मतदान करने की सुनिश्चितता के लिए यदि भारत निर्वाचन आयोग (चुनाव आयोग) बिहार में मतदाता सूची से अपात्र लोगों को हटाने के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण कर रहा है, तो 2024 के आम चुनावों से पहले बिहार से चुने गये 40 सांसदों को लोकसभा से तुरंत हटा दिया जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेंद्र यादव ने कहा है- ‘मैं इस बात से सहमत हूँ कि केवल योग्य भारतीय नागरिकों को ही मतदान करना चाहिए। लेकिन अगर चुनाव आयोग के आँकड़े सही हैं, तो 2024 के लोकसभा चुनावों में लाखों अयोग्य मतदाताओं ने मतदान किया, जिसका अर्थ है कि बिहार और शायद पूरे देश के परिणाम ग़लत थे। मतदाता सूची में गंभीर विसंगतियाँ थीं। इसलिए बिहार के सभी 40 सांसदों को तुरंत इस्तीफ़ा दे देना चाहिए और वहाँ नये सिरे से चुनाव कराने का आदेश दिया जाना चाहिए।’

विपक्ष की बात में दम हो सकता है; लेकिन चुनाव आयोग कहता है कि बिहार के लगभग आठ करोड़ मतदाताओं का संपूर्ण पुनरीक्षण सटीक और त्रुटिरहित मतदाता सूची बनाने के लिए किया जा रहा है, जो उचित और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बुनियादी आवश्यकता है। मूलत: चुनाव आयोग की प्रक्रिया में दो पहलू शामिल हैं- मतदान के लिए पंजीकृत पात्र मतदाताओं को शामिल करना तथा अपात्र मतदाताओं को हटाना, जिनके नाम प्रवास, मृत्यु या विदेशी अवैध अप्रवासी होने जैसे कारणों से ग़लत तरीक़े से मतदाता सूची में शामिल किये गये हैं।

बिहार में अंतिम संशोधन के बाद से कई परिवर्तन हुए हैं- शहरीकरण के कारण लोग गाँवों से शहरों और अन्य राज्यों की ओर जा रहे हैं। मौतों की सूचना नहीं दी जा रही है और शायद कुछ संदिग्ध राजनीतिक कारण भी हैं; जो किसी भी भारतीय नागरिक के लिए आपत्तिजनक होने चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस तरह का अभ्यास समय-समय पर किया जाना चाहिए; लेकिन यहाँ सवाल समय का है और वह भी अभी क्यों। अन्य प्रश्न हैं- क्या बिहार जैसे विशाल राज्य में, जहाँ जनसंख्या असमान है, इतनी बड़ी प्रक्रिया दो महीने में ईमानदारी से पूरी की जा सकती है? क्या 24 जून को शुरू की गयी इस प्रक्रिया में आठ करोड़ मतदाताओं को शामिल किया जा सकता है? क्या उनसे अचानक उनकी पहचान के लिए प्रासंगिक दस्तावेज़ दिखाने के लिए कहा जा सकता है? याद रखें, इनमें से कुछ मतदाता समाज के अत्यंत ग़रीब और हाशिये पर पड़े वर्गों से आते हैं।

कई विपक्षी दलों और अन्य लोगों ने एसआईआर को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और इसे एक दुर्भावनापूर्ण और शरारती अभ्यास कहा, जो लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित कर सकता है। विपक्ष ने इसे सत्तारूढ़ भाजपा के निर्देशों के तहत ईसीआई द्वारा आयोजित धाँधली का प्रयास बताया।

कुछ सरल गणित

अब हम 28 जुलाई, 2025 की स्थिति (जब यह लेख लिखा गया) और चिह्नित मतदाताओं के बारे में विपक्ष के तर्क पर वापस आते हैं। घर-घर जाकर एक महीने तक चले सर्वेक्षण के बाद 25 जुलाई को जारी किये गये चुनाव आयोग के आँकड़ों में 64 लाख मतदाताओं की पहचान की गयी। अब अगर इन 64 लाख मतदाताओं को 40 यानी बिहार के सांसदों की संख्या से भाग दिया जाए, तो जो आँकड़ा सामने आता है, वह 1.6 लाख होगा।

2024 के लोकसभा चुनावों में सबसे कम जीत का अंतर 48 वोटों का था, जो मुंबई उत्तर पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र से शिवसेना के रवींद्र दत्ताराम वायकर ने हासिल किया था। सबसे अधिक (मतों के संदर्भ में) जीत असम के धुबरी निर्वाचन क्षेत्र से रक़ीबुल हुसैन की रही, जिन्होंने 10 लाख से अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल की। मुद्दा यह है कि पिछले सात दशकों में भारत में हुए मतदान में लोकसभा की काफ़ी सीटें छोटे अंतर (पाँच प्रतिशत या उससे कम अंतर) से जीती गयी हैं। वास्तव में डेटा विश्लेषण से पता चलता है कि 2009, 2014 और 2019 में लगभग 23 प्रतिशत सीटों पर जीत का अंतर पाँच प्रतिशत या उससे कम था।

2024 के लोकसभा चुनावों में जीत का औसत अंतर राज्यों में अलग-अलग होगा। कुछ सीटों पर कड़ी प्रतिस्पर्धा होगी, जिसका फ़ैसला मुट्ठी भर वोटों से होगा; जबकि अन्य सीटों पर भारी अंतर से भारी जीत होगी। सिर्फ़ तर्क के लिए मुद्दा यह है कि अगर इन सभी 64 लाख मतदाताओं को आज मतदाता सूची से हटा दिया जाए, तो 2024 के लोकसभा परिणामों के बारे में विपक्षी नेताओं का तर्क भी समझ में आ जाएगा और सिर्फ़ बिहार में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में। विधानसभा चुनावों में जीत का अंतर और भी कम होता है। और नाम हटाने या जोड़ने से निश्चित रूप से नतीजों पर असर पड़ेगा। और यही बात विपक्ष को चिन्तित करती है।

अब तक क्या हुआ है?

चुनाव आयोग के अनुसार, बिहार के 99.8 प्रतिशत मतदाताओं को कवर किया जा चुका है। चिह्नित मतदाताओं की सूची में लगभग 22 लाख मृतक मतदाता, लगभग सात लाख एक से अधिक स्थानों पर पंजीकृत मतदाता और 35 लाख वे मतदाता शामिल हैं, जो या तो स्थायी रूप से विस्थापित हो गये हैं या उनका पता नहीं लगाया जा सका है। 7.24 करोड़ मतदाताओं के फार्म प्राप्त हो चुके हैं और उन्हें डिजिटल कर दिया गया है तथा उनके नाम मसौदा मतदाता सूची में शामिल किये जाएँगे। शेष मतदाताओं के बीएलओ रिपोर्ट सहित फॉर्मों का डिजिटलीकरण भी 01 अगस्त, 2025 तक पूरा हो जाएगा। जिन लोगों ने फॉर्म नहीं भरा है या जिनकी मृत्यु हो गयी है या जो स्थायी रूप से पलायन कर गये हैं। इन मतदाताओं की सूची 20 जुलाई को बिहार के राजनीतिक क्षेत्र में 12 राजनीतिक दलों के साथ साझा की गयी, वे हैं- बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (लिबरेशन), राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय पीपुल्स पार्टी, आम आदमी पार्टी।

किसी भी त्रुटि को मसौदा मतदाता सूची में सुधारा जा सकता है, जिसे 01 अगस्त को प्रकाशित किया जाएगा। 01 अगस्त से 01 सितंबर तक कोई भी मतदाता या राजनीतिक दल निर्धारित प्रपत्र भरकर ईआरओ के समक्ष किसी भी छूटे हुए पात्र मतदाता के लिए दावा प्रस्तुत कर सकता है या किसी अयोग्य मतदाता को हटाने के लिए आपत्ति दर्ज करा सकता है। चुनाव आयोग ने कहा- ‘एसआईआर के पहले चरण के अब तक सफलतापूर्वक संपन्न होने का श्रेय बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी, 38 ज़िला निर्वाचन अधिकारियों, 243 ईआरओ, 2,976 एईआरओ, 77,895 मतदान केंद्रों पर तैनात बीएलओ, स्वयंसेवकों, सभी 12 राजनीतिक दलों, उनके 38 ज़िला अध्यक्षों और उनके द्वारा नामित 1.60 लाख बीएलए को जाता है।’

एसआईआर राजनीति

विपक्ष जबकि इसे वापस लेने की माँग कर रहा है; सत्तारूढ़ भाजपा का दावा है कि बांग्लादेश से घुसपैठिये और रोहिंग्या मुसलमान बंगाली सीख रहे हैं और भारत में आधार और मतदाता कार्ड प्राप्त करने के लिए अपना नाम बदल रहे हैं और भारतीय चुनावों में मतदाता बन रहे हैं। तीव्र मतभेदों के कारण मानसून सत्र का पहला सप्ताह बाधित रहा, विपक्षी दलों ने प्रदर्शन किये और केंद्र ने जवाबी कार्रवाई की। बिहार से आने वाले केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि एसआईआर पर सवाल उठाने वालों को बुनियादी संवैधानिक ज्ञान की कमी है। चुनाव आयोग केवल अपने संवैधानिक जनादेश का पालन कर रहा है, इसलिए इससे किसी को असहज क्यों होना चाहिए?

सही बात है कि चुनाव आयोग बिहार में मतदाता सूची से अयोग्य लोगों को बाहर करने के लिए यह कार्य कर रहा है, जो अच्छी बात है। लेकिन सवाल यह है कि यह अभी क्यों किया गया और पहले क्यों नहीं किया गया? कांग्रेस महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठाती रही है, जबकि पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में इस तरह के किसी भी संशोधन के प्रभावों को लेकर आशंकित है। चुनाव आयोग देशव्यापी एसआईआर की योजना बना रहा है।

इसकी शुरुआत बिहार से क्यों हुई?

इस अचानक घोषित जाँच के समक्ष कुछ प्रमुख मुद्दे थे- रोज़गार संकट; अन्यत्र आजीविका की तलाश में बिहार छोड़ रहे युवा, शिक्षा और बेहतर भविष्य, राज्य की दबावग्रस्त स्वास्थ्य सेवा प्रणाली, क़ानून व्यवस्था और महिलाओं तथा हाशिये पर पड़े लोगों के ख़िलाफ़ अपराध, जाति और पहचान की राजनीति और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का स्वास्थ्य।

बिहार में विपक्षी दल- राजद, कांग्रेस और वामपंथी दल जद(यू)-भाजपा की नीतीश कुमार सरकार को उन मुद्दों पर घेरने की रणनीति बना रहे थे; जिनके बारे में कहा जा रहा था कि उनका ज़मीनी स्तर पर काफ़ी प्रभाव पड़ रहा है। ज़ाहिर है भाजपा समर्थक भी कई मुद्दों पर भगवा पार्टी से ख़ुश नहीं थे। बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम से अवगत लोगों का कहना है कि एसआईआर की घोषणा से पहले, राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों वाला विपक्षी ख़ेमा सकारात्मक ज़मीनी रिपोर्ट्स और इन मुद्दों पर नीतीश को घेरने की रणनीति पर गर्व कर रहा था; लेकिन घोषणा के बाद ये सभी बातें अचानक अप्रासंगिक हो गयीं और उनका ध्यान संशोधन के ख़िलाफ़ लड़ने पर केंद्रित हो गया।

बिहार ही क्यों? इसका एक कारण शायद 2024 के विधानसभा चुनावों में पड़ोसी राज्य झारखण्ड के नतीजे भी थे। झारखण्ड में अपनी चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सहित शीर्ष भाजपा नेताओं ने बार-बार बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठ की बात की, जो संथाल परगना और कोल्हान क्षेत्रों की पहचान और जनसांख्यिकी को तेज़ी से बदलकर झारखण्ड के लिए एक बड़ा ख़तरा पैदा कर रहे हैं। उन्होंने सत्तारूढ़ झामुमो नीत गठबंधन सरकार पर राजनीतिक हितों के लिए इस तरह की घुसपैठ को प्रोत्साहित करने का भी आरोप लगाया; लेकिन चुनाव फिर से हेमंत सोरेन के पक्ष में गये।

ग़रीबों और हाशिये पर पड़े लोगों से निपटना

संशोधन के पीछे कई अच्छे कारण हैं; लेकिन जिस तरह से यह किया जा रहा है, उससे कई ख़ामियाँ भी उजागर हुई हैं। दस्तावेज़ी प्रमाण के साथ नागरिकता साबित करने का भार लोगों पर है और अधिकारी दस्तावेज़ों का सत्यापन कर रहे हैं। आलोचकों का तर्क है कि इनमें से बड़ी संख्या में मतदाता राज्य के सबसे हाशिये पर पड़े नागरिकों में से हैं, जिन तक राज्य मशीनरी पहुँचने में विफल रही।

चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि एसआईआर के तहत मतदाता की पात्रता के प्रमाण के रूप में आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड स्वीकार्य दस्तावेज़ नहीं हैं, जिसका विपक्ष और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने यह कहते हुए विरोध किया कि चुनाव आयोग ने इसके लिए कोई वैध कारण नहीं दिया। आख़िरकार आधार कार्ड स्थायी निवास प्रमाण पत्र, ओबीसी / एससी / एसटी प्रमाण पत्र और पासपोर्ट प्राप्त करने के लिए स्वीकार किये जाने वाले दस्तावेज़ों में से एक है। बिहार के क़स्बों और गाँवों से मीडिया में आयी ख़बरों के आधार पर एडीआर के हलफ़नामे में कहा गया है कि वे एसआईआर प्रक्रिया की वास्तविकता का चौंकाने वाला विवरण देते हैं, जो पूरी तरह से मनमाना, अवैध और ईसीआई के अपने आदेश और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है।

तथ्य यह है कि हर कोई शिक्षित नहीं है या मतदाता पंजीकरण के लिए आवश्यक दस्तावेज़ या प्रमाण प्रस्तुत करने की स्थिति में नहीं है। आवश्यक दस्तावेज़ों में नगर निगम, पंचायत या किसी अधिकृत सरकारी निकाय द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र, जिसमें जन्म तिथि और स्थान दर्शाया गया हो; पासपोर्ट, मैट्रिकुलेशन या उच्च शिक्षा प्रमाण पत्र (स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र या विश्वविद्यालय की डिग्री, जिसमें आवेदक की जन्म तिथि शामिल हो); सरकारी पहचान पत्र या पेंशन दस्तावेज़, निवास प्रमाण पत्र (ज़िला मजिस्ट्रेट या समान सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी स्थायी निवास प्रमाण पत्र), वन अधिकार प्रमाण पत्र (मुख्य रूप से आदिवासी समुदायों से पात्र व्यक्तियों को वन अधिकार अधिनियम के तहत प्रदान किया गया); जाति प्रमाण पत्र (सक्षम सरकारी प्राधिकारी द्वारा जारी एससी, एसटी, ओबीसी के लिए मान्य, एनआरसी दस्तावेज़ (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से सम्बन्धित दस्तावेज़), परिवार रजिस्टर (स्थानीय निकायों द्वारा बनाये रखा गया घरेलू रजिस्टर या समान रिकॉर्ड, जिसमें परिवार के सदस्यों और प्रमुख विवरणों की सूची होती है; भूमि या आवास आवंटन पत्र और 1987 से पूर्व का सरकारी / पीएसयू आईडी (1987 से पहले किसी सरकारी निकाय या पीएसयू द्वारा जारी किया गया कोई भी पहचान दस्तावेज़)। तकनीकी पहलुओं को छोड़ दें, तो सवाल यह है कि दूरदराज़ के गाँवों और हाशिये पर पड़े तबक़ों में कितने लोगों के पास ये दस्तावेज़ हैं?

उच्च जाति की समस्याएँ

ज़ाहिर है तथाकथित ऊँची जातियों के लोग भी बहुत ख़ुश नहीं हैं। दिल्ली स्थित बिहार के एक उच्च जाति पत्रकार के अनुसार, इस कार्य में शामिल कई अधिकारी एससी / एसटी / ओबीसी समुदायों से आते हैं। जब वे देखते हैं कि उनके समुदाय के लोग किस तरह संघर्ष कर रहे हैं, तो वे ऊँची जाति के मतदाताओं का जीवन कठिन बना देते हैं। ऐसा मेरे अपने परिवार में भी हुआ है। धारणा यह है कि ऊँची जातियों के अधिकांश लोग भाजपा के मतदाता हैं।

अब चुनाव की बारी

यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि भाजपा को एसआईआर से सफलता मिलती है या नहीं। जैसे-जैसे बिहार में राजनीतिक सरगर्मी बढ़ रही है, सभी की निगाहें विपक्ष और उनके अगले क़दम पर टिकी हैं। विवादास्पद संशोधन को लेकर चल रहे विवाद के बीच राजद के तेजस्वी यादव ने एक नाटकीय संकेत दिया कि उनकी पार्टी इस साल के अंत में होने वाले 2025 के चुनावों का बहिष्कार कर सकती है। इससे यह अटकलें लगायी जाने लगीं कि क्या यह एक वास्तविक संभावना है या योजनाओं के गड़बड़ा जाने की बढ़ती चिन्ताओं के बीच यह सिर्फ़ एक ख़तरा है। तेजस्वी यादव ने उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में कई बातें कहीं; लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा ने एसआईआर को लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर करने और मतदाता डेटा में हेरफेर करने के लिए नियुक्त किया था। उन्होंने पटना में संवाददाताओं से कहा- ‘यदि वे धोखाधड़ी के माध्यम से चुनाव जीतना चाहते हैं, तो चुनाव कराने का क्या मतलब है?’

उन्होंने धोखाधड़ी के माध्यम से मतदाता सूची में घुसपैठ करने वाले अवैध प्रवासियों के बारे में उभरते आँकड़ों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया। तेजस्वी ने कहा कि वह इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि राजद उस चुनावी प्रक्रिया को छोड़ देगा, जिसमें उसका विश्वास नहीं है। उन्होंने इंडिया ब्लॉक के साझेदारों के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा- ‘हम अंतिम निर्णय लेने से पहले अपने (इंडिया ब्लॉक) साझेदारों और लोगों से परामर्श करेंगे।’

कांग्रेस ने इसका समर्थन करते हुए कहा कि उसे कथित तौर पर बड़े पैमाने पर अनियमितताओं की जानकारी है, जबकि सत्तारूढ़ जद(यू) ने बहिष्कार की धमकी को चुनावों में अपनी ख़राब संभावनाओं के बारे में विपक्ष की आशंका का प्रतिबिंब बताया।

दो महीने में ईमानदार एसआईआर?

ऐसा किया जा सकता है; लेकिन क्या यह शून्य त्रुटियों के साथ 100 प्रतिशत सटीक होगा कि कोई भी पात्र मतदाता छूटेगा नहीं, कोई भी अयोग्य व्यक्ति शामिल नहीं होगा? जैसा कि चुनाव आयोग दावा कर रहा है। यह देखना अभी बाक़ी है। यह एक बहुत बड़ी प्रक्रिया है। पहले चरण के बाद प्रक्रिया को पूरा करने के लिए सुधार और अन्य चरणों की आवश्यकता होती है। क्या अधिकारी उन 35 लाख लोगों के घरों का दौरा करेंगे, जो या तो स्थायी रूप से पलायन कर गये हैं या जिनका पता नहीं लगाया जा सका है? इनमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं, जो काम या किसी अन्य कारण से राज्य से बाहर गये हों? क्या राज्य में पुनरीक्षण कार्य के दौरान उपस्थित न होने के कारण उन्हें उनके अधिकार से वंचित किया जा सकता है?

शुरुआत में लगभग 7.9 करोड़ मतदाताओं तक पहुँचने, फॉर्म एकत्र करने और दस्तावेज़ों का सत्यापन करने की प्रक्रिया एक जटिल और समय लेने वाला काम था। चुनाव आयोग का कहना है कि 24 जून को एसआईआर प्रक्रिया शुरू होने के बाद से बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) और बूथ लेवल एजेंट (बीएलए) ने महत्त्वपूर्ण अपडेट प्रदान किये हैं।

इस प्रक्रिया में मतदाताओं तक पहुँचने के लिए, विशेष रूप से दूरदराज़ के क्षेत्रों में; बी.एल.ओ. और स्वयंसेवकों द्वारा व्यापक फील्डवर्क किया गया। लेकिन यदि कार्य सही ढंग से किया भी गया होता, तो भी फॉर्म एकत्रित करना, दस्तावेज़ों का सत्यापन करना तथा प्रवासी मतदाताओं, मृत्यु और एकाधिक पंजीकरण जैसे मुद्दों का समाधान करना निश्चित रूप से चुनौतीपूर्ण रहा होगा। सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद मतदाताओं को शामिल करने या बाहर करने में अभी भी त्रुटियाँ हो सकती हैं। ईसीआई इन चुनौतियों से निपटने के लिए क़दम उठाएगा; लेकिन कार्य का विशाल आकार पूरी स्थिति को थोड़ा अवास्तविक बना देता है। अब तक इस प्रक्रिया में 7.23 करोड़ मतदाताओं को शामिल किया जा चुका है; जो बिहार के मतदाताओं का 99.8 प्रतिशत है। एसआईआर दिशा-निर्देशों के अनुसार, अगला चरण 01 अगस्त से शुरू होगा और 01 सितंबर, 2025 तक जारी रहेगा।

इस अवधि के दौरान मतदाता या राजनीतिक दल दावे और आपत्तियाँ दर्ज करा सकते हैं, जिसमें मसौदा सूची से बाहर रह गये पात्र मतदाताओं को शामिल करना और अयोग्य प्रविष्टियों को हटाना शामिल है। 25 जुलाई को चुनाव आयोग ने एसआईआर को मतदाताओं के पूर्ण विश्वास और सक्रिय भागीदारी के साथ एक शानदार सफलता घोषित किया। 24 जून तक 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 7.24 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने अपने गणना फार्म जमा कर दिये हैं, जो भारी भागीदारी का संकेत है। लोगों को इसलिए शामिल नहीं किया गया, क्योंकि बीएलओ को ये मतदाता नहीं मिले या उन्हें गणना प्रपत्र वापस नहीं मिले; क्योंकि वे अन्य राज्यों / संघ शासित प्रदेशों में मतदाता बन गये थे या अस्तित्व में नहीं पाये गये या उन्होंने 25 जुलाई तक प्रपत्र जमा नहीं किया या किसी कारणवश मतदाता के रूप में पंजीकरण कराने के इच्छुक नहीं थे।

चुनाव आयोग ने कहा- ‘इन मतदाताओं की सही स्थिति 01 अगस्त तक ईआरओ / एईआरओ द्वारा इन फॉर्मों की जाँच के बाद पता चलेगी। हालाँकि वास्तविक मतदाताओं को 01 अगस्त से 01 सितंबर, 2025 तक दावे और आपत्ति की अवधि के दौरान मतदाता सूची में वापस जोड़ा जा सकता है। एसआईआर के प्रथम चरण के सफल समापन का श्रेय बिहार के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, सभी 38 ज़िलों के ज़िला शिक्षा अधिकारी, 243 ईआरओ, 2,976 एईआरओ, 77,895 मतदान केंद्रों पर तैनात बीएलओ, लाखों स्वयंसेवकों और सभी 12 प्रमुख राजनीतिक दलों के क्षेत्रीय प्रतिनिधियों, जिनमें उनके ज़िला अध्यक्ष और उनके द्वारा नियुक्त 1.60 लाख बीएलए शामिल हैं; की पूर्ण भागीदारी को जाता है। एसआईआर अवधि के दौरान बीएलए की कुल संख्या में 16 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई।’

निजी तौर पर अधिकारी कई चुनौतियों को स्वीकार करते हैं- दस्तावेज़ों की आवश्यकताओं और साक्षरता के स्तर के कारण भागीदारी में कठिनाइयों का सामना करने वाले व्यक्ति और समुदाय, मानदंडों को पूरा करने के लिए संघर्ष करने वाले लोग, विशेष रूप से वे जो अस्थायी रूप से राज्य के बाहर रह रहे हैं या जिनके पास उचित दस्तावेज़ नहीं हैं; कई व्यक्ति, विशेष रूप से हाशिये के समुदायों के लोग; जिनके पास आवश्यक दस्तावेज़ नहीं हैं या उन तक उनकी पहुँच नहीं है। उदाहरण के लिए जन्म प्रमाण पत्र या जाति प्रमाण पत्र; कई लोग, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में फॉर्म भरने और प्रक्रियाओं को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

अगले-दावे और आपत्तियाँ

01 अगस्त से 01 सितंबर तक 64 लाख मतदाताओं के भाग्य का फ़ैसला होगा। इसका मतलब है कि हर दिन दो लाख से अधिक लोगों तक पहुँचना। एसआईआर को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण प्रक्रिया पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया था; लेकिन मामले की सुनवायी जारी है। याचिकाकर्ताओं ने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले चुनाव आयोग द्वारा संशोधन के आदेश की जल्दबाज़ी और प्रक्रिया पर सवाल उठाया था। उन्होंने निर्वाचन आयोग द्वारा मताधिकार और नागरिकता के प्रमाण के रूप में अनिवार्य किये गये दस्तावेज़ों की सीमित और विभेदित सूची पर भी सवाल उठाया। बिहार और देश के बाक़ी हिस्सों में दस्तावेज़ी प्रमाण के साथ नागरिकता साबित करने का दायित्व लोगों पर है।