खंडेलवाल द्वारा
27 अक्टूबर 2025
बिहार के एक छोटे से गाँव की धूलभरी गलियों में 19 वर्षीय रामवती कभी “अछूत” कहलाती थी। कुएँ से पानी भरने जाओ तो औरतें पीछे हट जाती थीं। उसकी परछाईं तक मनहूस मानी जाती थी। मगर, ग्रेजुएशन के बाद, अंग्रेजी भाषा सीखकर आज, गुरुग्राम के एक कॉल सेंटर में बैठी वही रामवती अपनी आवाज़ से महाद्वीपों के पार ग्राहकों से बात करती है। यहाँ कोई उसकी जात नहीं पूछता। उसकी क़ीमत उसकी बोलने की रफ़्तार, विनम्रता और काम के प्रति लगन से तय होती है।
मुंबई के किसी और कोने में राजू, जो कभी एक मज़दूर का बेटा था, अब बीएमडब्ल्यू की ड्राइविंग सीट पर है। जिन अफ़सरों को वह रोज़ ऑफ़िस छोड़ने जाता है, वे मुस्कुराकर “गुड मॉर्निंग” कहते हैं — “कौन सी जात हो?” नहीं पूछते।
राजू का चचेरा भाई रमेश, एक बिजली मिस्त्री, सुबह से रात तक टेक पार्क, मॉल और ऊँची रिहायशी सोसाइटियों में काम करता है। वहीं राम, जो एक सोसाइटी का हेल्पिंग स्टाफ है, बुज़ुर्गों को उतरने में मदद करता है, उनके किराने या खाने का सामान उठाता है — अब उसके लिए लोगों के दिलों में सम्मान है, संकोच नहीं।
गाँव के कुएँ से लेकर वर्चुअल दुनिया तक, भारत का तेज़ शहरीकरण, तकनीकी उन्नति और खुलती हुई ग्लोबल अर्थव्यवस्था, सदियों से बनी जातीय दीवारों को चुपचाप गिरा रही है। शहर अपनी अव्यवस्था और अवसरों के साथ एक नए युग का महान समताकारी (Great Equaliser) बन चुका है — जहाँ जात नहीं, योग्यता और परिश्रम पहचान तय करते हैं।
सदियों तक जाति व्यवस्था ने तय किया कि कौन ऊँचा है और कौन नीचा, कौन क्या काम करेगा और कौन नहीं। मगर अब एक धीमी, पर गहरी सामाजिक क्रांति चल रही है — जिसे आगे बढ़ा रहे हैं शहरीकरण और डिजिटल कनेक्टिविटी के दो मज़बूत इंजन। शादी-ब्याह या गाँव के सामाजिक रीति-रिवाजों में जात की दीवारें अब भी कायम हैं, लेकिन शहरों में वे दीवारें दरक चुकी हैं।
अब तरक़्क़ी का रास्ता परिश्रम और हुनर से निकलता है, खानदान और कुलनाम से नहीं। सबसे नज़र आने वाला बदलाव अब सार्वजनिक जीवन में दिख रहा है। देश के मंदिर, जो कभी भेदभाव के गढ़ थे, अब सबके लिए खुले हैं। प्रवेश का टिकट डिजिटल होता है, जातीय नहीं। कार्यालयों, मॉलों और सर्विस सेक्टर ने एक नई समानता रची है — यहाँ अहमियत काम की है, नाम की नहीं।
पुराने सामाजिक बंधन, जो औरतों के कदम रोकते थे, अब टूट रहे हैं। सड़क से लेकर बोर्डरूम तक, महिलाएँ बराबरी से हिस्सेदारी निभा रही हैं। यह बदलाव परंपरागत समाज की नींव से लेकर उसकी मानसिकता तक को चुनौती दे रहा है। इस परिवर्तन को रफ़्तार दी है तकनीक ने।
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने चाहतों और सपनों को लोकतांत्रिक बना दिया है। अब कोई भी जानता है कि सफलता विरासत से नहीं, मेहनत से मिलती है। इस नई डिजिटल दुनिया में जात का कोई दाम नहीं।
प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी, जो सामाजिक विश्लेषक हैं, कहते हैं — “शहरों में एक नई आपसी निर्भरता (Interdependency) जन्म ले रही है। अब बिजली मिस्त्री, प्लंबर, डिलीवरी बॉय — सब अहम हैं। वे हर घर में बेझिझक जाते हैं, उनके काम की क़ीमत है, जात की नहीं। आज कोई ऊँची जात का युवा डिलीवरी बॉय से पार्सल लेता है या किसी बाई पर घर की ज़िम्मेदारी छोड़ता है तो उसे उसकी जात की परवाह नहीं रहती। यह बदलाव मामूली दिखता है, पर सामाजिक दृष्टि से गहरा और ऐतिहासिक है।”
नोएडा के आवासीय कॉम्प्लेक्स हों या मुंबई की सोसायटियाँ — हाउस हेल्प, ड्राइवर, टेक्नीशियन, सब एक बड़े महानगरीय ताने-बाने में शामिल हो चुके हैं। अब जाति किसी दरवाज़े के बाहर नहीं खड़ी रहती। सर्विस इकॉनमी ने इस सामाजिक बदलाव को और गति दी है।
कॉल सेंटर्स, बीपीओ, और ऐप-आधारित कामों में व्यक्ति की पहचान उसकी आवाज़, उसकी प्रोफ़ाइल, और रेटिंग से होती है — उपनाम या जात से नहीं। तकनीकी गुमनामी ने जन्म आधारित भेदभाव को धीरे से किनारे कर दिया है, कहती हैं सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर।
अब वेटर, ड्राइवर, इवेंट मैनेजर, या कैटरर — सब अपनी पेशेवर पहचान से पहचाने जाते हैं। बैंगलोर की एक्टिविस्ट मुक्ता के मुताबिक, ” शहरों में पहनावे और संस्कृति में भी यह बराबरी झलकती है। जीन्स और टी-शर्ट जैसे कपड़े अब नई पीढ़ी की साझा यूनिफ़ॉर्म बन गए हैं। जातीय अंतर कपड़ों और बोलचाल से मिट गए हैं। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम — महानगर एक पैन-इंडियन समाज की बुनियाद गढ़ रहे हैं। मॉल, मल्टीप्लेक्स, कैफ़े — यह सब नई समानता के प्रतीक हैं, जहाँ कोई जात पूछने की फुर्सत नहीं रखता। रोज़मर्रा की भागदौड़ में, लोग जात भूलकर केवल काम, लक्ष्य और सपनों पर भरोसा करना सीख रहे हैं।”
सच तो यह है कि आधुनिक शहर एक ग़ैर-सियासी क्रांति ला रहे हैं — बिना किसी घोषणा के, बिना किसी नारे के। ज़िंदगी की ज़रूरतें, रोज़ी-रोटी की मजबूरी, और तकनीक की सर्वव्यापकता मिलकर एक नया समाज रच रही हैं — जहाँ इंसान को पहली बार अपने जन्म की बेड़ियों से निकलकर खुद कुछ बनने का सच्चा मौक़ा मिला है।
यह नया भारत है — जहाँ पहचान अब जात से नहीं, काम और काबिलियत से बनती है।




