गैर-ज़रूरी आक्षेप

शिवेन्द्र राणा

आजकल संसद इतिहास की विवेचना का नया मंच बन गयी है। अतीत के स्वर्ण युग एवं उसकी व्यथा-कथा, दोनों से सुपरिचित होना राष्ट्रीय समाज के वर्तमान एवं भावी जीवन के लिए एक उम्दा तरकीब है। अतीत को चित्त एवं अवचेतन मन में जागृत रहना ही चाहिए, ताकि वर्तमान को निर्देशित तथा भविष्य को आकार देने हेतु सुयोग्य तर्कों का आधार उपलब्ध रहे। किन्तु यह प्रक्रिया तब संकट में पड़ सकती है, जब इतिहास मानस-चेतन पर पूर्णत: अच्छादित होने लगे। तब उपरोक्त प्रक्रिया वर्तमान को तो भ्रमित करेगी ही, भविष्य को भी संकटपूर्ण स्थिति में डालेगी।

उदाहरणस्वरूप, चूँकि इस्लाम ने मध्ययुग में अपने धार्मिक उन्माद में भारत की संस्कृति एवं सभ्यता का ध्वंस किया है; इस सोच के आधार पर चलायमान युग की प्रतिशोधात्मक गतिविधियाँ अनावश्यक संकट पैदा करेंगी। और कर भी रही हैं, जिसका दुष्परिणाम इस्लामिक मतावलम्बियों के बढ़ते विघटनवादी मनोवृत्ति के प्रसार के रूप में जम्हूरियत को भुगतना पड़ेगा, और भुगतना पड़ भी रहा है। इसी प्रकार बिहार की जनता कभी इस पूरे खित्ते पर क़ाबिज़ मगध साम्राज्य के स्वर्णिम कालखण्ड के दूरस्थ अतीत से परे देखेगी, तो उसे अपने आज में ग़रीबी, बेरोज़गारी, वंचना, असमानता का संकट दिखेगा, जो अपने इतिहास की विरुद्धावलियाँ सुनाने से तो दूर नहीं होगा। संकट वर्तमान में उपस्थित है, तो उसका समाधान भी आज को ही ढूँढना होगा। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आज भारतीय राजनीति में इतिहास के औचित्य पर ऐसी ही विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है, जो उसके विमर्श के औचित्य को व्यापक रूप से प्रभावित भी कर रही है। इतना कि अब यह विमर्श देश के संसदीय पटल तक खिंच आया है। इन दिनों विपक्ष के आरोपों और सवालों के समक्ष सत्ता पक्ष उसके पुराने शासन-काल के इतिहास के उदाहरणों से जवाब दे रहा है और अपने शासनादेशों को उचित ठहरा रहा है। इस चक्कर में धर्म स्थल खोदने से लेकर संग्रहालय तक खोजे जा रहे हैं। नेहरू-इंदिरा के शासकीय आदेशों से लेकर उनके निजी पत्र तक निकाले जा रहे हैं। यह सब राजनीति की फ़ौरी पेशबंदी एवं वैचारिक उठापटक के निमित्त तो औचित्यपूर्ण हो सकता है; लेकिन लोकतांत्रिक प्रगति के लिए सर्वथा औचित्यहीन ही प्रतीत होता है।

कल तक कहा जा रहा था कि चुनावी नारों द्वारा देश को आदर्श लोकतांत्रिक राज्य बनाने की उम्मीद पर जनता से सत्ता प्राप्त की गयी। और आज वैचारिक भटकाव का आलम यह है कि जम्हूरियत की मुख्य बहस इतिहास की खुदाई पर केंद्रित हो गयी है। जबकि सरकार एवं विपक्ष दोनों को यह समझ नहीं आ रहा कि इतिहास पर शोध आधारित विमर्श के लिए उचित निर्धारित स्थान विश्वविद्यालय और दूसरे शोध संस्थान हैं, संसद नहीं। असल में इस देश में एक बड़ा संकट यह है कि अक्सर संस्थाओं का उपयोग उस कार्य के लिए नहीं होता, जिसके निमित्त वे अस्तित्व में आयी हैं। और यही समस्या राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की है। वे वही काम नहीं करते, जिसके लिए उनका निर्वाचन हुआ है। जैसे कि पादरी, मुल्ले-मौलवी एवं बाबा-शंकराचार्य आदि धार्मिक-पंथीय चेतना एवं समाज के नैतिक उत्थान के लिए प्रयास के बजाय टीवी-ग्लैमर और राजनीति में घुसे हुए अपना बाज़ार चमकाने में लगे हैं और ऐसे ही संसद में जनकल्याण के लिए निर्वाचित नेताओं के इतिहास एवं व्यक्तिगत जीवन पर संभाषण हो रहे हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार, ‘शासन का उद्देश्य सर्व समाज और देश के कल्याण के अतिरिक्त अच्छे प्रबंधन यानी सुशासन स्थापित करना होना चाहिए।’ लेकिन भारत में आदर्श राज्य केवल शब्द-आडंबर में ही सन्निहित दिखता है। यहाँ विकासशील एवं औपनिवेशिकता के धक्के से धूल-धूसरित हुए भारत को संगतहीन बौद्धिक जुगाली और कोरी बकवास में ही विकसित और विश्वगुरु बनाया जाता है। और यही इस जनतंत्र का दुर्भाग्य है। कहने का आशय यह है कि देश की राजनीति में जितनी ऊर्जा भाषणबाज़ी में अब तक बर्बाद हुई है, उसका आधा हिस्सा भी व्यावहारिक कार्यरूप में दिखता, तो देश अब तक सच में विश्वगुरु और विकसित होने के नज़दीक होता। कांग्रेस सरकार ग़रीबी हटाओ के नारे लगाते हुए संविधान पर ही संकट थोप गयी; और वर्तमान भाजपा सरकार, जो लंबे समय से अपनी बड़ी-बड़ी योजनादारी की बयानी दावेदारी से ही नहीं उबर पा रही थी कि अब इतिहास की अनर्थक विवेचना में लग गयी है। उसकी यह इतिहास की चर्चा की अतिशयता कहीं वर्तमान के संकट को धूमिल न कर दे, यह अंदेशा प्रबल है।

वर्तमान में विमर्श के विषय- संविदा की नौकरियों का अनिश्चित संकट, बढ़ता निजीकरण, वक़्फ़ बोर्ड की दादागीरी, सिविल सेवा से लेकर पुलिस, रेलवे एवं एसएससी की परीक्षाओं में बढ़ती धाँधली, सरकारी संस्थानों में फैलते अनाचार, नौकरशाही की बढ़ती प्रशासनिक गुंडागर्दी, भारत से यूरोप में प्रति वर्ष बढ़ते पलायन आदि होने चाहिए थे। आज संसदीय बहस का विषय होना चाहिए था कि एक साधारण कांस्टेबल के पास करोड़ों की संपत्ति कैसे आयी? क्या प्रशासनिक तंत्र इस चरम स्तर पर भ्रष्टाचार में लिप्त है? आज भारत से प्रति वर्ष अरबों डॉलर विदेश में पढ़ रहे बच्चों के लिए उनके परिवारों द्वारा भेजे जा रहे हैं। इस सम्बन्ध में सवाल यह है कि क्या हमारा ख़ुद का शैक्षणिक तंत्र इस आर्थिक नुक़सान को रोकने और स्वयं विश्व स्तर की शिक्षा प्रदान करने में आज भी असमर्थ है? लेकिन इसके विपरीत संसद में इतिहास-दर्शन के ज्ञान का भुलावा जनता को दिया जा रहा है। इतिहास ज़रूरी है; लेकिन वर्तमान की क़ीमत पर नहीं। हालाँकि संसद में होने वाला यह अनर्गल प्रलाप किसी पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक धोखाधड़ी ही नहीं, बल्कि इनके व्यावहारिक रवैये का नमूना भी है। असल में सत्ता पक्ष संसद को इतिहास की विवेचना में इसलिए बाँध सकने में सक्षम हुआ है; क्योंकि विपक्ष के पास वर्तमान की बेहतरी की कोई तरतीब ही नहीं है। और जब विपक्ष जनता के सामने वर्तमान की कोई उपयुक्त उम्मीद न पैदा करे, तो सत्ता पक्ष के लिए इतिहास के भुलावे देना सहज होता है।

अब नेहरू-इंदिरा की अतीत की ग़लतियों या सत्ता पक्ष के शब्दों में- ‘संविधान-विरोधी कृत्यों’ को कोसकर वर्तमान की असफलताओं का परिमार्जन तो नहीं हो सकता। और न ही अतीत की उनकी कमियों की आड़ में आज की सत्ता उन्मादी कार्य कर सकती है। अक्सर सत्ता का उन्माद सरकारों और नेताओं को अपने ध्येय-पथ से विचलित कर अहंकार की ओर मोड़ देता है और तंत्र के सहयोग से जन-विरोधी बना देता है। इसका ख़ामियाज़ा जनतंत्र को भुगतना पड़ता है। नेहरू परिवार ने अपनी राजनीतिक यात्रा में जो ग़लतियाँ कीं, उनका दण्ड उनकी राजनीतिक विरासत और उनकी पार्टी भुगत रही है। क्या भाजपाई उसी रास्ते के पथिक होना चाहते हैं और स्वयं की बहुमत की श्रेष्ठता के अभिमान में अपनी पार्टी और उसकी लोकतांत्रिक विरासत को आलोचना की ओर धकेल देना चाहते हैं? आख़िर कब तक वर्तमान की कमज़ोरियों एवं ख़ामियों का प्रतिशोध अतीत से लिया जाता रहेगा।

सवाल फिर भी वही हैं कि क्या अतीत की सरकारों की ग़लतियाँ गिनाकर इनके शासन की ख़ामियाँ ढक जाएँगी? क्या पूर्व के राजनेताओं की भूलें, उनके संविधान की मर्यादा के विरुद्ध किये गये कृत्य वर्तमान सत्ता को उसी कुमार्ग के अनुसरण का औचित्य सिद्ध करेंगे? क्या आये दिन की लफ़्फ़ाज़ियों से शासन के सूत्र दुरुस्त हो जाएँगे? इन सभी प्रश्नों के नकारात्मक जवाब शासन की उस अवधारणा को खंडित कर रहे हैं, जिन्हें वर्तमान के आदर्श राज्य एवं शासन के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

जो अतीत में बीत चुका है, वही इतिहास है। जो आज है या आगे आने वाला है, वह अभी इतिहास नहीं है। और राष्ट्र का अभीष्ट आदर्श इतिहास से नहीं, वरन् वर्तमान की राजनीति, नीतिशास्त्र एवं सामाजिक नियमों से तय होगा। सेबाइन के कहते हैं- ‘आदर्श राज्य के निर्माण के लिए आदर्श सामग्रियों की ही आवश्यकता होगी। यह राजनीतिज्ञों एवं विधि निर्माताओं का कर्तव्य है कि वे अपनी आदर्श राजनीतिक रचना के लिए उपयुक्त साधन एवं सामग्रियाँ एकत्रित करें। क्योंकि वे ही आदर्श राज्य के निर्माता हैं।’

एक दूसरे पक्ष के रूप में ध्यात्वय है कि संसद की प्रति मिनट की कार्यवाही में 2.5 लाख रुपये ख़र्च हो रहे हैं, जो घंटे के हिसाब से डेढ़ करोड़ होते हैं। और जनता की यह गाढ़ी कमायी इतिहास वाचन के लिए नहीं, बल्कि वर्तमान की सुव्यवस्था की चर्चा पर व्यय हो, तो नैतिक रूप से चर्चा अधिक स्वीकार्य होगी। सत्य तो यह है कि अतीत के विश्वगुरु भारत की लाक्षणिक, अलंकारिक परिभाषाओं एवं आत्ममुग्धता की अभिव्यंजनाओं के पीछे अभाव, असमता, ग़रीबी, बेरोज़गारी से जूझता एक पददलित भारत भी है, जो इन असमय, औचित्यहीन बहसों में कहीं पीछे छूटा जा रहा है। इसकी वंचना का निवारण लोकतांत्रिक भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए थी, वह तो अतृप्त क्षुधा के मौन के साथ इतिहास की ज्ञान मीमांसा सुनने को मजबूर है।

असल में जब कोई सत्ता अतीत को नकारात्मक रूप से कुरेदती है, तो इसके पीछे उसकी अपनी आंतरिक कमज़ोरियों पर आवरण डालने और वर्तमान की स्व-श्रेष्ठता का अहंकार दिखाने की मंशा होती है। पिछले दिनों पुणे में एक कार्यक्रम में वर्तमान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने परोक्ष रूप से सत्ता पक्ष को चेताते एवं आमजन की वैचारिक शंका को व्यक्त करते हुए कहा- ‘सभी को लगता है समाज में सब कुछ ग़लत हो रहा है। लेकिन हर नकारात्मक पहलू के लिए समाज में 40 गुना ज़्यादा अच्छी और शानदार सेवा की जा रही है।’ हो सकता है कि भागवत के कथन में सत्यता हो; क्योंकि जनता के बीच नकारात्मक प्रसार एवं अच्छी सेवा का निरपेक्ष मूल्याँकन व्यक्तिगत रूप से भी निर्धारित किया जा सकता है। लेकिन उल्लेखनीय रूप से उन्होंने सरकार को एक बेहतरीन सलाह देते हुए यह भी कहा- ‘इंसान पहले सुपरमैन, फिर देवता और उसके बाद भगवान बनना चाहता है। व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए। नहीं तो वह गड्ढे में गिर सकता है।’ उम्मीद है कि सत्ता पक्ष उनकी सलाह सुनने और उसके अनुरूप आचरण प्रदर्शित करने में रुचि लेगा।