यूक्रेन की अंतरिम सकार के अमेरिका-भक्त प्रधानमंत्री अर्सेनी यात्सेन्युक शनिवार 26 अप्रैल के दिन इटली की राजधानी रोम में थे. पत्रकारों को संबोधित करते हुए मात्र 39 साल के यात्सेन्युक ने आरोप लगाया, ‘रूसी युद्धक विमानों ने पिछली रात यूक्रेनी वायुसीमा का सात बार अतिक्रमण किया है. यूक्रेन को युद्ध शुरू करने के लिए भड़काना ही इसका एकमात्र उद्देश्य हो सकता है.’ कुछ देर पहले अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता स्टीवन वॉरन ने भी यही आरोप लगाया था. यह बताने का कष्ट दोनों में से किसी ने नहीं किया कि रूसी विमान कब और कहां यूक्रेनी वायुसीमा के भीतर घुसे थे. यात्सेन्युक यह कहने से भी नहीं चूके कि रूस यूक्रेन पर कब्जा करना और ‘तीसरा विश्वयुद्ध छेड़ देना चाहता है.’ आरोपों की गहमा-गहमी वाले उसी दिन अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली और ब्रिटेन के प्रमुखों ने एक टेलीफोन-सम्मेलन के माध्यम से रूस के विरुद्ध नए प्रतिबंध लगाने का भी निर्णय किया. ये प्रतिबंध यथासंभव 28 अप्रैल से लागू हो जाने थे.
एक ही सप्ताह पहले, 17 अप्रैल को जेनेवा में रूस, अमेरिका और यूक्रेन के विदेश मंत्रियों तथा यूरोपीय संघ की विदेशनीति प्रभारी कैथरीन ऐश्टन के बीच वार्ता हुई थी. घंटों चली इस चार-पक्षीय बातचीत में आशा के विपरीत कुछ ऐसे कदम तय हुए थे, जिनसे लग रहा था कि अब स्थिति बेहतर बनेगी. यूक्रेन की और दुनिया भर की जनता राहत की सांस ले सकेगी. हालांकि सब को आश्चर्य हुआ था कि ‘जेनेवा घोषणा’ के नाम से प्रचारित इस सहमति को पत्रकारों के सामने अमेरिकी और रूसी विदेशमंत्री ने साथ मिल कर नहीं, बल्कि अलग-अलग पेश किया. इस सहमति में, जो कोई औपचारिक समझौता नहीं है, यूक्रेन में तनावों को घटाने और नागरिक सुरक्षा को बढ़ाने के लिए आवश्यक कदमों को बताते हुए कहा गया हैः
- सभी पक्ष हर तरह के बलप्रयोग, डराने-धमकाने और उकसावों से दूर रहेंगे.
- सभी हथियारबंद अवैध गिरोहों (ग्रुपों) को निहत्था किया जाएगा. अवैध कब्जों वाले भवन उनके कानूनी मालिकों को लौटाए जाएंगे. यूक्रेनी शहरों और गांवों में अवैध कब्जों के अधीन सड़कों, मैदानों और सार्वजनिक स्थानों को खाली कराया जाएगा.
- ऐसे प्रदर्शनकारी, जो अपने हथियार डाल देंगे और अपने कब्जे वाले मकानों को खाली कर देंगे, क्षमादान के अधिकारी होंगे, बशर्ते कि उन्होंने कोई गंभीर अपराध नहीं किए हैं.
- इस घोषणा को अगले दिनों में लागू करने के दौरान जहां भी आवश्यक हो, वहां ‘यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन ‘(ओएससीई) के पर्यवेक्षक यूक्रेनी अधिकारियों के साथ सहयोग करेंगे. अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस इस काम में सहयोग देने और अपने पर्यवेक्षक उपलब्ध कराते हुए इसे सफल बनाने का वचन देते हैं.
- (यूक्रेनी) संविधान-रचना की पूर्वघोषित प्रक्रिया पारदर्शी होगी और किसी को उससे बाहर नहीं रखा जाएगा. इसके लिए यूक्रेन के सभी अंचलों और राजनीतिक निकायों के बीच व्यापक राष्ट्रीय संवाद तथा सार्वजनिक टीका-टिप्पणियों और सुझावों की संभावना उपलब्ध कराई जाएगी.
असहमतिपू्र्ण सहमति
हैरानी की बात यही नहीं थी कि अमेरिका और रूस के विदेशमंत्री एकसाथ पत्रकारों के समक्ष नहीं आए, दोनों ने अपनी सहमति की अलग-अलग असहमतिपूर्ण व्याख्या की. सबसे पहले रूसी विदेशमंत्री लावरोव आए. उन्होंने कहा कि सहमति यूक्रेन के ‘सभी अंचलों के सभी सशस्त्र गिरोहों को निहत्था करने पर हुई है.’ घोषणा की लिखित शब्दावली में ‘सभी अंचल’ लिखा तो नहीं मिलता, लेकिन उसमें लिखे ‘सभी हथियारबंद अवैध गिरोहों’ का तर्कसंगत मतलब यही होना चाहिए कि हथियारबंद गिरोह चाहे जहां हों, चाहे जिस अंचल में हों और चाहे जिस पक्ष के समर्थक या विरोधी हों, उन्हें निहत्था किया जाएगा. यानी, राजधानी किएव के मैदान-चौक पर अब भी डेरा डाले या उसके आस-पास के भवनों पर अब भी अधिकार जमाए उन हथियारबंद लोगों को भी निहत्था किया जाएगा, जो पश्चिमी देशों के भक्त व इस समय की अंतरिम सरकार के समर्थक हैं. यह हो नहीं सकता कि रूसी पक्ष तो रूस समर्थकों को निहत्था करना मान ले, किंतु रूस-विरोधियों को हथियार रखने की छूट दे दे.
लेकिन, अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन केरी यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रभारी कैथरीन ऐश्टन के साथ जब पत्रकारों के सामने आए तो वे यही पट्टी पढ़ाते लगे कि सहमति पू्र्वी यूक्रेन के रूस समर्थक सशस्त्र लोगों के हथियार छीनने पर ही हुई है. उन्होंने इस बात का कोई जिक्र नहीं किया कि किएव में अड्डा जमाए हथियारबंद गिरोहों का क्या होगा. जेनेवा घोषणा के पहले दिन से ही अमेरिका रट लगाए हुए है कि रूस पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषी पृथकतावादियों पर लगाम लगा कर उनके कब्जे वाले भवनों को खाली कराए, जबकि रूस कह रहा है कि यही काम यूक्रेनी अंतरिम सरकार पहले अपनी राजधानी में तो कर दिखाए. यूक्रेन की अंतरिम सरकार भी इस घोषणा के बाद से ऐसा ही व्यवाहर कर रही है, मानो उसे केवल पूर्वी अंचलों के रूस-समर्थक विद्रोहियों के ही हथियार छीनने और उनके होश ठिकाने लगाने हैं. सरकार ने एक बार भी यह नहीं बताया कि उसने राजधानी किएव में अब तक क्या किया है.
दंगाइयों की सरकार
उल्लेखनीय है कि 21 फरवरी से सत्तारूढ़ यूक्रेन की वर्तमान अंतरिम सरकार दंगाई प्रदर्शनकारियों के उन संगठनों व राजनीतिक पर्टियों की मिली-जुली सरकार है, जो अंशतः घोर-दक्षिणपंथी और नस्लवादी हैं. यूक्रेन को यूरोपीय संघ और अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी सैन्य-संगठन नाटो का सदस्य बनाना उनका ध्येय है. नवंबर 2013 से ही प्रदर्शनकारी राजधानी किएव के उस भव्य मैदान-चौक पर अड्डा जमाए बैठे हैं, जिसके चारों ओर सरकारी मंत्रालय, कार्यालय और व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं. उनके अनवरत हिंसक प्रदर्शनों, धरनों और कब्जा-अभियानों से हार मानकर देश के निर्वाचित राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को 21 फरवरी की ही रात आनन-फानन में भागना पड़ा. राष्ट्रपति के भागते ही प्रदर्शनकारियों और संसद की कुछ विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने मिल कर उसी रात सत्ता हथिया ली. यूक्रेन को रूसी प्रभावक्षेत्र से बाहर निकालने के लिए व्याकुल अमेरिका और यूरोपीय संघ की तभी से बांछें खिल गई हैं. उन्हें अपनी मनोकामना पूरी होती लग रही है.
337 वर्षों तक सोवियत संघ का अभिन्न अंग रहने के बाद यूक्रेन 1991 में एक स्वतंत्र देश बना था. बताया जाता है कि स्वतंत्र यूक्रेन को अपनी तरफ खींचने के प्रचार-अभियानों और राजनीतिक हेराफेरियों पर अमेरिका तभी से कम से कम पांच अरब डॉलर बहा चुका है. खुद यूक्रेन में स्थित सुविज्ञ सूत्रों से (लेखक को) पता चला है कि किएव में धरना देने वाले प्रदर्शनकारियों और दंगाइयों को, उनके जोश-खरोश और योगदान के अनुसार, प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 100 से 500 डॉलर तक दिए गए हैं. देश में जहां-जहां रूस विरोधी प्रदर्शन होते हैं, अमेरिका या उसके मित्र देशों के पैसों के बल पर होते हैं. एक सूत्र का तो यह भी कहना है कि पूर्वी यूक्रेन के दोनबास क्षेत्र में रहने वाले रूसी-भाषियों की ओर से जो रूस-समर्थक प्रदर्शन चल रहे व कब्जा-अभियान हो रहे हैं, उनके लिए भी पैसा अमेरिका से ही आता है. अमेरिका यह पैसा अपने यहां रहने वाले रूसी करोड़पतियों के माध्यम से भेजता है, ताकि उसका अपना नाम सामने न आ सके और वह इस पैसे को रूस के मत्थे मढ़ कर उसके विरुद्ध प्रतिबंधों का औचित्य सिद्ध कर सके.
किएव की यात्रा के लिए लगा तांता
यह बात बहुत दूर की कौड़ी जरूर लगती है, पर रूस को नीचा दिखाने और उसकी अर्थव्यवस्था चौपट करने पर तुले अमेरिका और उसकी कठपुतली यूक्रेनी सरकार के लिए सब कुछ संभव है. दोनों ने मिल कर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन पर पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषियों को उकसाने और उन्हें हथियार दे कर यूक्रेन के मामलों में हस्तक्षेप करने के आरोपों की झड़ी लगा रखी है. सीमापार रूसी सैनिकों के जमाव पर वे ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ वाली गुहार लगा रहे हैं. जबकि तथ्य यह है कि किएव में रूस-विरोधी प्रदर्शन शुरू होने के पहले ही दिन से लेकर अब तक — केवल राष्ट्रपति ओबामा को छोड़ कर– उपराष्ट्रपति जो बाइडन और विदेशमंत्री जॉन केरी सहित अमेरिका के सभी प्रमुख नेता, मंत्री, सेनेटर, धन्नासेठ किएव के फेरे लगा चुके हैं– कुछ तो कई बार. यही हाल यूरोपीय संघ वाले देशों के नेताओं का भी है. पैसे भी खूब लुटाए जा रहे हैं. यह सब दखलंदाजी नहीं तो क्या कोई तीर्थ यात्रा और धार्मिक चढ़ावा है? कोई रूसी नेता या मंत्री तो वहां अभी तक देखने में नहींआया!
यही नहीं, स्वयं यूक्रेनी सरकार के परम शुभचिंतक जर्मनी के सार्वजनिक प्रसारण नेटवर्क ‘एआरडी’ की एक साहसिक खोजपूर्ण टेलीविजन रिपोर्ट से इस बीच यह भी सिद्ध हो चुका है कि किएव के मैदान-चौक पर यानुकोविच-विरोधी उग्र प्रदर्शनों के अंतिम दिनों में वहां हुई गोलीबारी में 100 से अधिक जो लोग मारे गए, उनमें बहुत से ऐसे भी प्रदर्शनकारी थे, जो उन गोलियों से मारे गए, जो पास के होटल ‘उक्राइने’ (यूक्रेन) पर कब्जा जमाए हथियारबंद प्रदर्शनकारियों के ही एक गिरोह ने छिपकर चलाईं. यानी, प्रदर्शनकारियों के ही एक गुट ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं. लेकिन, न तो अमेरिका इन लोगों की धरपकड़ की मांग कर रहा है और न अंतरिम सरकार ने ही मामले की सही छानबीन में कभी दिलचस्पी दिखाई. उसने सरकारी वकील की एक दिखावटी जांच द्वारा रूसी गुप्तचर सेवा को दोषी बता कर अपने हाथ झाड़ लिए. कोई नहीं जानना चाहता कि गोली चलाने वाले लोग कौन थे और उन्हें मशीनगनें भला कहां से मिलीं.
‘धोबी पर बस न चले तो गधे के कान ऐंठे’
स्वयं आज भी अपनी नाक के नीचे बैठे हथियारबंद प्रदर्शनकारियों और सरकारी भवनों के कब्जाधारियों पर उंगली उठाने में असमर्थ अंतरिम सरकार ने, जेनेवा वार्ताओं के एक ही दिन पहले, ‘धोबी पर बस न चले, तो गधे के कान ऐंठे’ वाली कहावत को चरितार्थ करता एक ‘आतंकवाद-विरोधी’ सैनिक अभियान छेड़ा. पूर्वी यूक्रेन में दोन्येत्स्क क्षेत्र के रूस-समर्थक विद्रोहियों को निहत्था करने और लगभग एक दर्जन शहरों व कस्बों में उनके कब्जे वाले सरकारी भवनों को खाली कराने के लिए टैंक-सवार सैनिक रवाना किए गए. लेकिन, पहले छह टैंक जैसे ही क्रामातोर्स्क नाम के कस्बे में पहुंचे, सैनिकों ने अपने टैंकों पर रूसी झंडे फहरा दिए. कुछ स्थानीय निवासी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे, तो कुछ उनके साथ मिल कर खुशियां मनाने लगे. ‘किएव ने हमें भुला दिया है,’ इन सैनिकों ने कहा, ‘हमें हफ्तों से ठीक से खाना तक नहीं मिला है.’ उन्होंने बताया कि वे यूक्रेनी वायुसेना की 25 वीं ब्रिगेड के सैनिक हैं और पहलू बदलकर अब रूस-समर्थक विद्रोहियों के साथ मिल गए हैं. 15 किलोमीटर दूर के करीब एक लाख जनसंख्या वाले स्लाव्यांस्क में जब वे पहुंचे तो उनका और भी जोरदार स्वागत हुआ. सैनिक भी दिग्भ्रमित हैं. लगभग एक दशक से चल रही क्रांतियों-प्रतिक्रांतियों और राजनीतिक उठा-पटक के कारण सेना और पुलिस का मनोबल रसातल में पहुंच गया है.
किएव के दंगाइयों की हू-बहू नकल
अपनी नाक इस बुरी तरह कटने के बाद किएव की अंतरिम सरकार ने उसी सप्ताहांत पड़ रहे ईस्टर त्यौहार के बहाने से अपना अभियान रोक दिया. पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषी विद्रोही भी धरना देने, सड़कों पर और सरकारी भवनों के सामने बाधाएं खड़ी करने और उन पर कब्जा जमा लेने के हूबहू वही कारगर तरीके अपना रहे हैं, जो यूक्रेन के रूस-विरोधी प्रदर्शनकारी राजधानी किएव में भारी सफलता के साथ दिखा चुके हैं. उनकी मांग अपने क्षेत्र का रूस में विलय करने से अधिक इस बात को लेकर है कि यूक्रेन को एक संघात्मक शासन-व्यवस्था वाला देश बनाने के लिए जनमतसंग्रह कराया जाए, रूसी भाषा की प्रधानता वाले पूर्वी तथा दक्षिणपूर्वी यूक्रेन को सच्चे स्वायत्तशासी अधिकार दिए जाएं. लेकिन यूक्रेन की अंतरिम कठपुतली सरकार और उसके यूरोपीय-अमेरिकी सूत्रधार यही रट लगाए हुए हैं कि पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषी रूस के चाटुकार पृथकतावादी हैं जिनके जरिये रूस अपना विस्तार करना और यूक्रेन को अपनी मुठ्ठी में कसे रखना चाहता है.
पश्चिम का रामबाण तर्क
पश्चिमी देश इस बात में कोई बुराई नहीं देखते कि वे स्वयं भी तो यूक्रेन को अपनी मुठ्ठी में कसना चाहते हैं. रूस का तो वह फिर भी तीन सदियों तक हिस्सा रहा है जबकि जर्मनी, फ्रांस या अमेरिका से तो उसका कुछ भी लेना-देना नहीं है. ऐसी आपत्तियों पर पश्चिम का सबसे रामबाण तर्क होता है– हम लोकतंत्र हैं. मानो लोकतंत्र होना सदा-सर्वदा सच्चा और सही होने का ऐसा जन्मसिद्ध एकाधिकार है, जो केवल अमेरिका और उसके पिट्ठुओं की बपौती है. उन्हीं के पास यह जानने की दैवदृष्टि भी है कि कौन सच्चा लोकतंत्र है और कौन नहीं.
चारपक्षीय जेनेवा वार्ताओं के बाद यूक्रेन की अंतरिम सरकार ने देश के पूर्वी भाग के रूस-समर्थकों के विरुद्ध अपना कथित ‘आतंकवाद-विरोधी’ अभियान फिर से छेड़ दिया है. पहले ही दिन एक हेलीकॉप्टर मार गिराया गया जबकि स्लाव्यांस्क के पास गोलियों की बौछार से क्षतिग्रस्त एक अंतोनोव-30 परिवहन विमान जैसे-तैसे उतरने में सफल रहा. किएव की सरकार अपने सुरक्षाबलों की निष्ठा पर क्योंकि अब भी पूरा विश्वास नहीं कर सकती, इसलिए वह अमेरिका के माध्यम से रूस पर दबाव डलवा रही है कि रूस अपने समर्थकों को अनुशासित करे. अमेरिका ने रूस के विरुद्ध प्रतिबंधों का विस्तार करने के साथ-साथ रूस से लगी सीमा वाले पोलैंड, एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया में अपने 600 अतिरिक्त सैनिक भेजने और इन देशों की हवाई निगरानी बढ़ा देने की घोषणा की है.
पर्यवेक्षक पकड़े गए
‘यूरोपीय सुरक्षा एवं सहयोग संगठन’ की ओर से उसके ‘स्पेशल मॉनिटरिंग मिशन’ (विशेष पर्यवेक्षण मिशन) के करीब 140 पर्वेक्षक वैसे तो पहले से ही यूक्रेन में तैनात हैं और अपनी रिपोर्टें संगठन के सभी देशों के पास भेजते रहते हैं. लेकिन, यूक्रेनी सरकार ने देश के पूर्वी हिस्से की टोह लेने के लिए एक और दल ‘मिलटरी वेरिफिकेशन टीम’ (सैनिक सत्यापन टीम) के कुछ सदस्यों को भी संभवतः अलग से बुला रखा है.
जर्मन सेना ‘बुंडेसवेयर’ के नेतृत्व में गठित इस टीम के एक दर्जन सदस्यों को स्लाव्यांस्क के रूसियों की जनमिलिशिया ने 26 अप्रैल को बंदी बना लिया. वे किसी वर्दी में नहीं थे, बल्कि सामान्य कपड़े पहने हुए थे. उन में से चार जर्मनी के हैं, बाकी यूक्रेन, चेक गणराज्य, डेनमार्क, स्वीडन और पोलैंड के बताए जाते हैं. 27 अप्रैल को उन्हें मीडिया के सामने पेश करने के बाद स्वीडिश बंदी को मधुमेह का रोगी होने कारण रिहा कर दिया गया. स्लाव्यांस्क के स्वघोषित मेयर व्याचेस्लाव पोनोमार्येव ने उन पर ‘नाटो के भेदिये’ होने का आरोप लगाया और कहा कि उन्हें यूक्रेनी सरकार द्वारा बंदी बनाए गए रूसी-भाषी जनमिलिशिया के सदस्यों के साथ अदला-बदली से ही रिहाई मिल सकती है. रूसी विदेशमंत्रालय ने आश्वासन दिया है कि विदेशी बंदियों को शीघ्र ही छुड़ाने की हर संभव कोशिश की जायेगी.
रूसी सैनिक-जमाव
उधर अमेरिका उपग्रहों से ली गई पुरानी तस्वीरों के माध्यम से सिद्ध करने में लगा है कि रूस ने यूक्रेनी सीमा के पास 40 से 50 हजार सैनिक जमा कर रखे हैं, जो किसी भी समय सीमा पार कर सकते हैं. लेकिन, मॉस्को में पैदा हुए और वहीं पढ़े-लिखे सैन्य-विशेषज्ञ अलेक्सांदर गोल्त्स का कहना है कि वे बीती फरवरी से ही वहां हैं पर यूक्रेन पर कब्जा करने के लिए कतई पर्याप्त नहीं हैं. पुतिन के आलोचक गोल्त्स ने एक जर्मन दैनिक से कहा कि यह सैन्यबल छाताधारी (पैराशूट) सैनिकों तथा थल सेना की 3-4 विशिष्ट इकाइयों को मिला कर बने एक त्वरित हस्तक्षेप बल के आदिरूप (प्रोटोटाइप) जैसा है और यूक्रेन के किसी प्रादेशिक भूभाग तक को हड़पने के योग्य नहीं हैं. यूक्रेन में ‘यदि कोई नई सीमा खींचनी है, तो कम से कम एक लाख जवानों की जरूरत पड़ेगी. यदि हम सारी बातों को विवेकसम्मत ढंग से सोचें, तो यूक्रेन पर आक्रमण का आदेश संभव नहीं लगता,’ गोल्त्स का कहना है. उन्होंने याद दिलाया कि अमेरिका सहित संसार का कोई भी देश नागरिक जनता के प्रतिरोध पर कभी विजय प्राप्त नहीं कर पाया. इसे पुतिन भी जानते हैं.
अमेरिका-भक्तों के माथे पर शिकन
दूसरी ओर राष्ट्रपति बराक ओबामा रूस को ईंट का जवाब पत्थर से देने की कुछ ऐसी उतावली में लगते हैं कि अमेरिका के सबसे विश्वस्त जर्मनी जैसे भक्तों के माथे पर भी शिकन पड़ने लगी है कि वे आखिर चाहते क्या हैं. 25 अप्रैल को अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन केरी ने जी-7 के सभी देशों के सरकार प्रमुखों को फोन कर हड़काया कि ‘सात दिनों से रूस सही दिशा में कोई ठोस कदम उठाने से मना कर रहा है.’ उन्होंने सभी सात देशों को मजबूर कर दिया कि वे एक साझी घोषणा में रूस से कहें कि वह हफ्ते भर के अंदर पूर्वी यूक्रेन के रूस समर्थकों की नकेल कसे, वरना बहुत बुरा होगा. लेकिन, यूक्रेन की अंतरिम सरकार से कोई आग्रह, कोई अपील नहीं की गई. इसी से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यूक्रेन-संकट को, जिसे यूरोपीय संघ और अमेरिका ने ही मिल कर पैदा किया, किसी संभावित युद्ध तक ले जाने में दिलचस्पी और उतावली किस की है.
स्थिति यह हो गई है कि पश्चिमी सरकारें और सारे मीडिया मिलकर रूसी राष्ट्रपति के विरुद्ध एक स्वर में जितना अधिक प्रलाप कर रहे हैं, आम जनता का उनके ऊपर से विश्वास उतना ही उठता जा रहा है. कम से कम जर्मनी में तो यही देखने में आ रहा है. पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले पाठक-पत्रों और वेबसाइटों पर छपने वाली पाठकों की टिप्पणियों में उन लोगों का पलड़ा काफी भारी है, जो पश्चिमी सरकारों के इरादों के प्रति शंका और राष्ट्रपति पुतिन के प्रति समझ दिखा रहे हैं. मीडिया वाले हैरान हैं और नेता परेशान. इन प्रतिक्रियाओं में ऐसे बहुत सारे तथ्यों का उल्लेख मिलता है, जो और सरकारें तो छिपाती ही हैं, मीडिया वाले भी दबा देते हैं.