इवेंट मैनेजमेंट स्पिन गेंदबाजी है, गेंद की जगह घटनाओं को मनमाफिक दिशा में घुमाने का हुनर मोदी की राजनीति की कुंजी है. उन्हें इस काम में अपने विरोधियों पर काफी बढ़त हासिल है. लिहाजा उनकी सरकार एक साल में कितनी कामयाब रही यह जवाबी कव्वाली के पुरजोश मुकाबले से तय किया जाएगा. सरकार और विपक्ष, जिसके लाउडस्पीकर का शोर जितना ऊंचा जाएगा और जो मंच पर देर तक टिका रहेगा, खुद को जुमले, लंतरानियों और बोलती बंद करा देने की अदाओं का सरताज भले मान लंे, लेकिन इससे एक औसत नागरिक के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला. वह सरकार को भी वैसे ही नापता है जैसे समाज में अपनी हैसियत. जिंदगी से जो मेरी अपेक्षाएं थीं कितनी पूरी हुईं, कोई मुझे प्यार करता है या नहीं, खुद मैं परिवार, समाज और देश के लिए कैसा हूं…यह कभी शास्त्रार्थ से पता नहीं लगाया जाता. अनुभव और संवेदना पर आधारित ये खामोश फैसले एक आंतरिक बोध के रूप में ऐसे होते हैं जैसे सुनसान रात में ओस टपकती है जिसकी आवाज सुनाई नहीं देती. यह जरूर होता है कि राजनीति के स्पिनर अपनी कारगुजारियों से सपनों, कमजोरियों, स्वार्थों को हवा देकर इन फैसलों को बदलवा देते हैं. जाहिर है इन दिनों फिजा में छाई जवाबी कव्वाली का मकसद भी यही है.
अगर प्रधानमंत्री मोदी को म्यूट मोड पर रख कर यानि उन्हें उनके भाषणों के बिना देखा जाए तो एक दिलचस्प नजारा दिखाई देता है जो सालगिरह के शोर के पीछे दुबकी चुप्पी से लेकर भविष्य के बीच की खाली जगह में बनती धुंधली आकृतियों का अंदाजा देता है. कूटनीतिज्ञ, जासूस, कार्टूनिस्ट, फोटोग्राफर और प्रधानमंत्रियों के निजी स्टाफ के सदस्य उन्हें इसी तरह आंकते हैं क्योंकि शब्दों के जाल में फंसकर भटकने का अंदेशा बहुत कम हो जाता है. मोदी राजपाट संभालने के बाद से संसद और सार्वजनिक कार्यक्रमों में बहुत कम मुस्कराते पाए गए, चेहरे पर सायास कमोबेश एक जैसा ही सधाव रहता है जिससे भावनाओं को भांप पाना कठिन होता है, चुनाव के समय वाली आवाज का लोच अब नहीं है, अब उसमें पुरानी ड्रामाई कशिश तभी पैदा की जाती है जब किसी बात पर बहुत जोर देना होता है, चेहरे के सधाव के बरअक्स मंत्रियों और भाजपा के बड़े नेताओं की देहभाषा को देखा जाए तो साफ हो जाता है कि यह सिर्फ एक आदमी का शो और रुतबा है, बाकी झालर लोकतांत्रिक खानापूर्ति के लिए सजाई गई है.
इसके बिल्कुल उलट मोदी जब विदेश में होते हैं तब सहज, प्रसन्न और बेलाग लपेट होते हैं, बोलने की रौ में अनजान दिशाओं में ऐसे जाते हैं कि खुद को भी भूल जाते हैं. यह एक बिडंबना है कि वास्तविक मोदी विदेश में ही दिखाई देते हैं. अपनों के बीच उनके खुलेपन में ऐसा विस्फोटक क्या है जो अब तक के किए धरे को मटियामेट कर सकता है. इसकी खोज आने वाले दिनों में जरूर की जाएगी कि असली मोदी कौन है. ऐसा ही एक क्षण चीन यात्रा के दौरान सरकार की ऐन सालगिरह के दिन शंघाई में भारतीयों के बीच से उठते मोदी-मोदी के प्रायोजित पार्श्वसंगीत के बीच आया जब प्रधानमंत्री ने खुद को परिभाषित करने की कोशिश की. चीनी यात्री ह्वेनसांग की अपने गांव बड़नगर की यात्रा और वहां बौद्धों के एक पुरातन संस्थान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, जब मैं मुख्यमंत्री बना तो मैंने सरकार से कहा खुदाई कराओ. इसके बाद एक छोटा-सा पॉज लेकर उन्होंने कहा, कोई अपने यहां खुदाई क्यों कराएगा, आंय?…लेकिन मैं ऐसा ही हूं. आत्ममुग्धता के आवेश से चेहरे की झुर्रियों समेत रेखाएं खिल उठीं. उन्होंने आसमान की थाह पा चुके पक्षी के पंख की तरह बायां हाथ हिलाया जिसमें उन गीतों की लय थी जो महानायकों के मिथ और रहस्यों के बारे में गाए गए हैं. साथ ही उस हाथ की जुंबिश में यह उलाहना भी थी कि जाने दो कोशिश मत करो, आप नहीं जान पाओगे कि मोदी क्या चीज है. इस तरह एक साल में मोदी एक से दो बन चुके हैं जो सरकार का अच्छा या बुरा सबसे बड़ा हासिल है.
देखने का एक और तरीका ये हो सकता है इस जवाबी कव्वाली में आरएसएस की चुप्पी और पस्ती पर गौर किया जाए जिसने चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री नामित करने के व्यक्तिवादी फैसले और नकली लालकिले से भाषण देने के स्वांग को मंजूरी देने के अलावा संगठनकर्ताओं और प्रचारकों को अभी नहीं तो कभी नहीं के भाव से मोदी के पीछे झोंक दिया था. अब वही आरएसएस खुद को बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हालत में पा रहा है. अगर पितृसंगठन की ही अपेक्षाएं मोदी से पूरी होती नहीं दिखाई दे रही तो क्या बाकी लोगों को उम्मीदों के तंबू कनात ताने रहना चाहिए.