भारत में 200 मिलियन से अधिक मुसलमान रहते हैं। फिर भी 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बाद से यहाँ धार्मिक तनाव बना हुआ है। हाल के वर्षों में एक नया और परेशान करने वाला पहलू सामने आया है- सांप्रदायिक टेलीविजन बहसों का उदय। संवाद के नाम पर टीवी समाचार चैनल नियमित रूप से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव का मंचन करते हैं, जिसमें अक्सर धार्मिक हस्तियाँ और राजनीतिक प्रवक्ता स्टूडियो की मेज़ों पर चिल्लाते हुए दिखायी देते हैं। इन कार्यक्रमों को तर्कसंगत बहस के रूप में प्रस्तुत किया जाता है; लेकिन वास्तव में ये आमतौर पर आक्रोश के तमाशे में तब्दील हो जाती हैं। रचनात्मक चर्चा को प्रोत्साहित करने के बजाय ये बहसें उकसाने के लिए रची गयी प्रतीत होती हैं। आलोचकों का तर्क है कि इस तरह के कार्यक्रम एक बड़े राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं- सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काना और राष्ट्रवादी आख्यानों को मज़बूत करना; जो सत्तारूढ़ पार्टी के हितों से मेल खाते हैं। बदले में नेटवर्क को उच्च टीआरपी प्राप्त होती है और उसके साथ-साथ अधिक विज्ञापन राजस्व भी।
‘तहलका’ की इस बार की आवरण कथा- ‘हिंदू-मुस्लिम डिबेट फिक्स?’ इस परेशान करने वाली प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है। एक काल्पनिक समाचार चैनल खोलने वाले के प्रतिनिधि बनकर ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर ने कई मुस्लिम मौलवियों से संपर्क किया और उन्हें टीवी बहसों में आने का प्रस्ताव दिया। पड़ताल से पता चलता है कि इनमें से कई तथाकथित बहसें सावधानीपूर्वक तैयार की जाती हैं, जिनकी पटकथा राजनीतिक एजेंडे, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और मीडिया समूहों के वित्तीय हितों को पूरा करने के लिए लिखी जाती है।
पैनलिस्टों को अक्सर चरम रुख़ अपनाने, टकराव बढ़ाने तथा अधिकतम नाटकीयता के लिए अपने विरोधियों का अपमान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। बदले में उन्हें क्षणिक प्रसिद्धि और आर्थिक पुरस्कार प्राप्त होते हैं। कथित तौर पर तटस्थ संचालक (मॉडरेटर) से दूर एंकर दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए भड़काऊ बयानबाज़ी को प्रोत्साहित करते हैं। इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं। कुछ पूर्व पैनलिस्टों ने मनोवैज्ञानिक संकट और सार्वजनिक अपमान का हवाला देते हुए इसमें भाग लेने से ख़ुद को अलग कर लिया है। तमाशा संस्कृति का यह उदय न केवल सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करता है, बल्कि हाशिये पर पड़े समुदायों की वास्तविक और ज़रूरी चिन्ताओं को भी महत्त्वहीन बना देता है। स्टूडियो की चमकदार रोशनी से परे इसके परिणाम दु:खद हैं।
हाल के वर्षों में अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों को निराधार आरोपों के आधार पर भीड़ द्वारा मार डाला गया है। उनके व्यवसायों का बहिष्कार किया जाता है। उनके घरों को बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया जाता है और उनके धार्मिक स्थलों पर हमले किये जाते हैं। इन टेलीविजन चैनलों पर षड्यंत्र के सिद्धांतों, जैसे- लव जिहाद या मुसलमानों द्वारा हिंदुओं से अधिक प्रजनन करने के मिथकों को बढ़ावा मिलता है। लेकिन आँकड़े एक अलग कहानी बताते हैं; मुस्लिम प्रजनन दर सन् 1992 की 4.4 से घटकर सन् 2020 में 2.3 रह गयी है। विडंबना यह है कि यह समुदाय आबादी का लगभग 15 प्रतिशत है, फिर भी संसदीय सीटों में पाँच प्रतिशत से भी कम पर उसका क़ब्ज़ा है। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका निगरानीकर्ता की है, माचिस की तीली की नहीं। जब टेलीविजन पर प्रसारित बहसें सुनियोजित युद्धक्षेत्र बन जाती हैं, तो वे पत्रकारिता के मूल सार को धोखा देती हैं। वे सूचना नहीं देते, वे भड़काते हैं। वे सत्ता को चुनौती नहीं देते, वे उसको रटते हैं।
हमारी विशेष जाँच टीम (एसआईटी) की रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है, जब देश अभी भी अहमदाबाद में हुए चौंकाने वाले विमान हादसे से उबर नहीं पाया है। भारत, जो विश्व के सबसे तेज़ी से बढ़ते विमानन बाज़ारों में से एक है; अब कठिन सवालों का सामना कर रहा है। विमान दुर्घटना जाँच ब्यूरो को बोइंग 787 ड्रीमलाइनर दुर्घटना के लिए जवाब देना होगा, जिसमें यात्रियों, चालक दल और ज़मीन पर मौज़ूद नागरिकों की जान चली गयी। चाहे आसमान में हो या स्क्रीन पर, निगरानी और जवाबदेही वैकल्पिक नहीं हो सकती।