दिल्ली के पटपड़गंज पश्चिम इलाके में बना ये घर विभिन्न कलाओं का केंद्र कहा जा सकता है. ये घर बहल परिवार का है. बहल परिवार यानी मां नवनिंद्र बहल, पिता ललित बहल और बेटे कनु बहल.
नवनिंद्र बहल पंजाबी साहित्य की पढ़ाई के बाद पटियाला की पंजाबी यूनिवर्सिटी के नाटक विभाग में पढ़ा चुकी हैं. उन्होंने थिएटर के लिए नाटक लिखे, उनका निर्माण किया साथ ही अभिनय में भी हाथ आजमाया. रंगमंच अभिनेता के रूप में उनके पति ललित बहल भी काफी सक्रिय रहे हैं. देश में जब टीवी इंडस्ट्री शुरुआती दौर में थी, तब ही बहल दंपत्ति उसमें हाथ अाजमा चुके थे. उस दौर में पंजाब में मची उथल-पुथल पर गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ बाद में आई, उससे पहले ही ललित इस समस्या पर चर्चित टीवी धारावाहिक ‘अफसाने’ और टेलीफिल्म ‘हैप्पी बर्थडे’ और ‘तपिश’ बना चुके थे. वैसे नवनिंद्र तो हिंदी फिल्मों में छोटी लेकिन यादगार भूमिकाएं निभा चुकी हैं. बड़े परदे पर नवनिंद्र आखिरी बार विकास बहल की फिल्म ‘क्वीन’ में दिखीं थीं, जहां वे उस पंजाबी एनआरआई आंटी के किरदार में थीं, जो टूटी-फूटी फ्रेंच बोलती हैं. ललित को कभी फिल्मों में हाथ आजमाने का मौका नहीं मिला था लेकिन ये कमी भी तब दूर हो गई जब दो साल पहले उन्हें दिबाकर बनर्जी और यशराज फिल्म्स के बैनर तले बनने वाली फिल्म ‘तितली’ में ‘डैडी’ के किरदार के लिए चुना गया. यहां बात हालिया रिलीज फिल्म तितली के निर्देशक कनु बहल के परिवार की हो रही है , जिनके खून में ही रंगमंच, सिनेमा और अभिनय बसा हुआ है.
कनु की पहली फिल्म ‘तितली’ काफी वाहवाही बटोर रही है. यह कार चोरों के एक परिवार की कहानी है, जो दिल्ली के एक उपनगर में रहता है. इस तरह की कहानियां ही लोगों में उत्सुकता जगाने के लिए काफी होती हैं लेकिन दिलचस्पी तब और बढ़ जाती है जब मुख्य किरदार निभा रहे अभिनेता निर्देशक के पिता हों और फिर पता चले कि फिल्म के किरदारों के चयन की प्रक्रिया और भी मजेदार रही थी.
फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार में कितनी बातें एक से दूसरे में आती हैं और ज्यादातर समय उन्हें भी इस बात का एहसास नहीं होता
बिना लाग-लपेट बोलने वाले कनु बताते हैं, ‘फिल्म में ‘डैडी’ के किरदार के रूप में अपने पिता को लेने का निर्णय एक जरूरत के मद्देनजर लिया गया. फिल्म की स्क्रिप्ट का पहला ड्राफ्ट बिल्कुल अलग था, यह अपने समय से आगे की कहानी थी. फिर भी मुख्य किरदार तितली के अलावा बड़े भाई का किरदार काफी बचकाना लग रहा था. इस पर मेरे और फिल्म के सह-लेखक शरत कटारिया के बीच काफी सोच-विचार और बहस हुई. कथानक पर हो रही बहस के बीच ही पिता का किरदार जेहन में आया. उसके बाद डैडी की भूमिका को निभाने के लिए एक अभिनेता को खोजने की जद्दोजहद शुरू हुई. ये पात्र ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं था और तमाम वरिष्ठ अभिनेता इस तरह के किरदार सरलता से निभा लेते हैं, लेकिन मुझे एक ऐसा अभिनेता चाहिए था जो नैचुरल लगे.’ बहरहाल फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर अतुल मोंगिया के साथ काफी माथापच्ची करने के बाद ललित बहल को इस भूमिका के लिए चुना गया. कनु बताते हैं, ‘बड़े होने के दौरान मेरा और मेरे पिता का रिश्ता तनावपूर्ण रहा है, इसलिए ‘डैडी’ किरदार के पीछे के कुछ पहलुओं से वे पहले से ही वाकिफ थे.’
एक असामान्य परिवार के इर्द-गिर्द कहानी गढ़ने का विचार कनु के जीवंत अनुभवों से निकला था. वे बताते हैं, ‘तितली से पहले मैं किसी दूसरी स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था जो बन नहीं पा रही थी. फिर मुझे लगा कि शायद वह एक अच्छी स्क्रिप्ट नहीं थी और मैं उसे पूरी ईमानदारी से नहीं लिख पा रहा था. व्यक्तिगत तौर पर तब मैं अपने तलाक के तनाव से जूझ रहा था और तब मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर मैं फिल्में बनाना ही क्यों चाहता हूं! ‘तितली’ की कहानी वास्तव में तब निकलकर सामने आई जब मैंने खुद से कहा कि आगे जो भी करूंगा वह निजी और ईमानदार होगा.’
तब एक बड़े भाई की ज्यादतियों से परेशान होकर घर छोड़कर भागने की योजना बनाने वाले लड़के की कहानी सहज रूप में कनु के जेहन में आई. कनु मानते हैं कि जब कथानक लिखा जा रहा था तब ये कहानी पितृसत्ता, पारिवारिक हिंसा और भाग जाने को लेकर बुनी गई थी लेकिन फिल्म एक अलग ही रूप में निकलकर सामने आई. कनु बताते हैं, ‘फिल्म एक चक्र में चलती है. फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार में कैसे, कितनी बातें एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे में आ जाती हैं और ज्यादातर समय खुद उन्हें भी इस बात का एहसास नहीं होता.’ यहां ललित भी हामी भरते हुए बताते हैं, ‘फिल्म में ऐसी ही कुछ बारीकियों को शामिल किया गया है. उदाहरण के लिए, आप जिस तरह दांतों को साफ करते हैं, कभी आप ध्यान दें तो पता लगेगा कि ये आप बिल्कुल अपने पिता की तरह ही करते हैं. अगर आप अपने परिवार से दूर भी हैं तब भी ये आपके अंदर ही, आपके साथ चलता है.’
साफगोई कनु को शायद उनके पिता से ही मिली है, जिन्होंने शुरुआत में फिल्म में कोई भी किरदार निभाने से साफ-साफ इंकार कर दिया था. इस फैसले के पीछे उनके अपने कारण थे. ललित कहते हैं, ‘मेरे दिमाग में कहीं ये था कि ये हम दोनों के लिए ही पहली फिल्म है. मेरा उसके साथ वैसे ही खटास भरा रिश्ता था. मैं इसलिए भी परेशान था कि कहीं अगर फिल्म चल नहीं पाई या मैं अपने किरदार से न्याय नहीं कर पाया तो इस असफलता के लिए कसूरवार मुझे ठहराया जाएगा.’ इसी के चलते उन्हें किरदार निभाने के लिए राजी करने के लिए दोस्तों और परिवार की जरूरत पड़ी लेकिन एक बार जब वे फिल्म के सेट पर पहुंच गए तो उन्हें समझ आ गया कि फिल्म के विषय पर कनु की पकड़ काफी मजबूत है.
कनु के मुताबिक, ‘वे अपने साथ वह संजीदगी और मजबूती लेकर आए जो किरदार के लिए चाहिए थी.’ लेकिन उनके पिता को फिल्म के सेट पर कभी भी स्क्रिप्ट नहीं दिखाई गई इसलिए वे इसका अंदाजा भी नहीं लगा पाए कि फिल्म आखिर है किसके बारे में. ललित मानते हैं कि फिल्म की शूटिंग से पहले होने वाली वर्कशॉप में जाने से उन्हें थोड़ा अंदाजा जरूर हो जाता था कि फिल्म किस दिशा में बढ़ रही है. फ्रांस में स्क्रीनिंग के वक्त ही ललित ने इस फिल्म को पहली बार देखा. ललित मानते हैं कि फिल्म में कुछ तत्व हैं जिनसे वह सहमति नहीं रखते लेकिन एक अभिनेता होने के नाते वह अपने निर्देशक को अलग रचनात्मक सोच रखने की आजादी देने को तैयार थे. हालांकि कनु बताते हैं कि फिल्म की शूटिंग के वक्त वे उत्सुकता से अपने पिता से ये पूछते थे कि उन्होंने अपने किरदार के लिए थोड़ी सी भी तैयारी की है या नहीं. तब ललित निष्पक्षता से जवाब देते कि उन्हें अपने निर्देशक की सोच में विश्वास है और वे वही करते हैं जो उनसे कहा जाता है.
बाप-बेटे के बीच इस तनावपूर्ण रिश्ते का कारण कनु के बचपन में छिपा है. नवनिंद्र बताती हैं, ‘सृजनात्मकता हमारे परिवार में रही है. मेरे पिता नाटककार थे और मां अभिनेत्री इसीलिए जब मैंने और ललित ने भी उसी दिशा में कदम बढ़ाए तो अपने ही बेटे को समय नहीं दे सके.’
जब 80 के दशक में लोग परिवार के साथ फिल्में देखने जाने लगे तब पारिवारिक फिल्मों को सिर्फ खुशियां मनाने तक सीमित कर दिया गया
यहां नवनिंद्र को बीच में रोकते हुए ललित बताते हैं, ‘अब कनु की फिल्म देखकर लगता है कि बड़े होने के दौरान उसने खुद को कितना उपेक्षित महसूस किया होगा.’ ललित ने अपनी पहचान खुद बनाई है और वे कनु के भविष्य को लेकर खासे चिंतित थे. उन्हें लगता था अभिनय कनु के लिए सबसे अच्छा विकल्प होगा. कनु अपने माता-पिता के टीवी धारावाहिकों का छोटा-मोटा हिस्सा भी बने पर धीरे-धीरे उनके माता-पिता समझ ही गए कि उन दोनों की प्राथमिकता भले ही अभिनय हो पर उनका बेटा ये नहीं करना चाहता. जब कनु ने फिल्म निर्देशक बनने की ख्वाहिश जाहिर की, तब उनके पिता को उन पर संदेह था. ललित बताते हैं, ‘वो खुद एक बच्चा था, उसमें निर्देशन के लिए जरूरी गंभीरता कैसे आ सकती थी, वो कैसे ऐसा निर्देशन कर सकता था जो अपरिपक्व न लगे.’
वैसे जब सिनेमा से जुड़े पारिवारिक संबंधों की बात आती है तब एक सवाल हमेशा खड़ा होता है कि भारतीय सिनेमा में परिवारों को एक सीमित परिधि में ही क्यों बांध दिया जाता है? 90 के दशक की फिल्में देखने वालों के लिए पारिवारिक फिल्म का मतलब सिर्फ ‘हैप्पी एंडिंग’ होता है.
पर नवनिंद्र ऐसा नहीं मानतीं. उनका कहना है कि 50 और 60 के दशक में भी अच्छी पारिवारिक फिल्में बनी हैं, ‘मदर इंडिया’, ‘दो बीघा जमीन’ इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं. नजरिया तब बदला जब 80 के दशक में लोग परिवार के साथ फिल्में देखने जाने लगे और पारिवारिक फिल्मों को सिर्फ सेलिब्रेशन यानी खुशियां मनाने तक सीमित कर दिया गया. कनु भी अपनी मां के विचार से सहमत हैं. वे मानते हैं कि कोई भी फिल्म उस दौर को ही दर्शाती है, जिसमें वह बनी है.
कनु विस्तार से बताते हैं कि किस तरह आजादी के बाद का भारतीय सिनेमा आदर्शवाद से प्रभावित था. फिर सत्तर के दशक की फिल्मों में गुस्सा दिखाई दिया जो इस आदर्शवादी व्यवस्था के अधूरे वादों से उपजे मोहभंग की अभिव्यक्ति था और जब इस गुस्से से भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो 80-90 के दशकों में इसका स्तर घटना स्वाभाविक ही था. और फिर 90 के उदारीकरण के बाद फिल्मों को उत्पाद के रूप में देखा जाने लगा, तभी से ही सिनेमा ने अपनी ताकत खो दी. कनु को हाल ही में आई फिल्म निर्देशकों की नई ब्रिगेड से काफी उम्मीदें हैं. ‘बदलापुर’, ‘एनएच 10’ और ‘दम लगा के हईशा’ जैसी फिल्मों की सफलता ने इस उम्मीद को पक्का किया है. पर भारतीय सिनेमा में कोई ‘आंदोलन’ चल रहा है, वे ऐसा नहीं मानते. वे खंडन करते हुए कहते हैं, ‘वास्तव में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समय के बाद दुनिया भारत को फिर से एक फिल्म बनाने वाले देश के रूप में पहचान रही है. मैं मानता हूं कि चंद निर्देशकों की पहली फिल्में बहुत अच्छी थीं लेकिन आंदोलन सिर्फ एक फिल्म बनाने से तो नहीं होते. यहां देखने वाली बात होगी कि हम दूसरी फिल्में कैसी बनाते हैं. तभी हमारा काम करने का तरीका यह दर्शा सकता है कि कोई आंदोलन है या नहीं.
कनु इस बात को भी नहीं मानते कि फिल्म सिर्फ उसके लेखक से संबंधित होती है. वे मानते हैं कि फिल्म उन सब की होती है, जो फिल्म बनाने में शामिल रहते हैं. ‘तितली’ भी किसी एक व्यक्ति से प्रभावित नहीं बल्कि खुद में ही एक सशक्त फिल्म है. ललित भी इस बात का समर्थन करते हैं. वे दृढ़ता से कहते हैं कि ये फिल्म उभरते भारत पर एक टिप्पणी है. कनु को संशय है पर ललित मानते हैं कि इस फिल्म की तुलना ‘दो बीघा जमीन’ से की जा सकती है, जिस तरह ‘द डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ टूटे हुए अमेरिकी ख्वाब का प्रतिबिम्ब थी, उसी तरह फिल्म ‘तितली’ भी मौजूदा समय का आईना है.