इस्लाम में तलाक का जो तरीका बताया गया है उसमें यह नहीं है कि एक बार में तीन तलाक दिया जाए. ये एक बार में तीन तलाक देने का जो तरीका लोगों ने अपना लिया है वह इस्लाम की शिक्षाओं और कुरान की हिदायतों के बिल्कुल खिलाफ है. इस्लाम ये कहता है कि अगर आपस में कोई विवाद हो जाए तो पहले शौहर और बीवी आपस में इसे सुलझा लें. अगर मामला नहीं बनता है तो किसी की मध्यस्थता से इसे ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए. फिर भी अगर बात नहीं बनती है और दोनों अलग-अलग रहना चाहते हैं तो तरीका यह है कि पहले एक तलाक दिया जाए. एक महीने का इंतजार किया जाए. उस दरमियान बीवी पति के साथ ही रहे ताकि उनके बीच में सुलह हो सके. फिर एक महीने तक बात नहीं बनती है तो दूसरी बार तलाक दिया जाए. इस तरह से तीन महीने गुजर जाने के बाद तलाक की प्रक्रिया पूरी होती है. इस दौरान बीवी अपने शौहर के साथ रहे. इससे यह मौका मिलता है कि अगर आपने गुस्से में या किसी दूसरे ऐसे ही गैरजरूरी कारण से तलाक दिया है तो आपस में सुलह हो जाए. अगर ऐसा नहीं हो तो अलगाव हो जाना चाहिए. यही इस्लाम में तलाक का जायज तरीका है.
अब कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस तरीके को अपनाए बिना एक बार में तीन तलाक दे देते हैं. इस तरीके को हम गलत मानते हैं. यह इस्लाम विरोधी भी है. जिस बात को लेकर मतभेद है, वह यह है कि कुछ उलेमा कहते हैं अगर तीन तलाक एक बार में दे दिया जाए तो उसे एक ही मानना चाहिए. कुछ उलेमा यह मानते हैं कि अगर तीन तलाक एक बार में दिया जाए और देने वाला यह कहे कि हमने सोच-समझकर एक बार में तीन तलाक दिया है तो उसको तीन तलाक मान लिया जाए. अब तलाक को लेकर दो मत हैं और दोनों मतों को लेकर कुरान और हदीस की दलीलें मौजूद हैं. सबसे बड़ी बात है कि देश में दोनों तरीके प्रचलन में हैं और दोनों तरीकों से लोग तलाक ले रहे हैं.
जहां तक बात मामले के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने की है तो ये बात सच है कि हमारे समाज में महिलाओं के साथ ज्यादती होती है. सही ये होगा कि गलत तरीकों को रोका जाए. उन्हें इज्जत दी जाए, लेकिन जो बहनें 50 हजार आॅनलाइन हस्ताक्षर के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर मांग कर रही हैं कि तीन तलाक को एक कर दिया जाए, मेरे हिसाब से यह बात सही नहीं है कि दोनों मतों में से एक मत पर कानून के जरिये रोक लगा दी जाए. हम एक मत को मानने पर कानून के जरिये कोई बात थोप देंगे तो यह सही नहीं होगा. यह अदालत का मसला नहीं है. यह मामला लोगों को सही बात बताने का है. अगर अदालत तीन तलाक को एक मान भी लेगा तो जरूरी नहीं है कि औरतों के ऊपर अत्याचार बंद हो जाएगा. जो लोग इस बात को हवा दे रहे हैं वे लोग मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करना चाहते हैं और समान नागरिक आचार संहिता को लागू करवाना चाहते हैं. मुस्लिम समाज हमेशा कहता रहा है कि उसके पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. हमें संविधान के जरिये ये अधिकार दिया गया है. इस देश में हर आदमी अपने मजहब, अपने रीति-रिवाजों के साथ रह सकता है.
इसके अलावा जहां तक बीवी को हर्जाना देने की बात है तो इस्लाम में अगर तलाक हो गया, आप शौहर-बीवी नहीं रह गए तो इस्लामी कानूनों के हिसाब से आप शौहर के ऊपर हर्जाने के लिए दबाव नहीं डाल सकते हैं. यह इस्लाम के खिलाफ है. वैसे यह समाज की जिम्मेदारी है कि महिला का भरण-पोषण सही तरीके से हो. महिलाओं के पास इसके लिए मेहर की रकम की व्यवस्था की गई है. अगर महिलाओं को शादी के समय मेहर की रकम नहीं मिली है तो वह तलाक के समय दिलाई जाती है. इसके अलावा महिलाओं को जो संपत्ति में अधिकार मिले हैं वे उन्हें ले सकती हैं. इस्लाम में महिलाओं के लिए बहुत सारे प्रावधान हैं. खराब बात यह है कि लोग इस समय उन प्रावधानों को भूल रहे हैं. लोग इन सारे प्रावधानों पर जोर नहीं दे रहे हैं. उनका ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि कैसे एक शौहर-बीवी जो अलग-अलग रह रहे हैं, उन पर हर्जाने का दबाव डाला जाए.
दरअसल, इस मसले को राजनीतिक फायदे के लिए उठाया जा रहा है. हाल ही में मेरी मुलाकात शायरा बानो से हुई जिन्होंने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. हमने उनसे पूछा कि क्या अगर सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक को एक मान लेता है तो वे अपने पति के साथ रहेंगी. उनका जवाब था नहीं. वैसे भी अगर किसी पुरुष ने महिला पर ज्यादती की है तो हमारे देश में कानून है. पर्सनल लॉ सिर्फ निकाह और तलाक के लिए है. अगर शारीरिक हिंसा, मानसिक हिंसा या उत्पीड़न का मामला बनता है तो इसके लिए आप कानूनी तरीके से शिकायत कर सकते हैं. तलाक की सजा सिर्फ औरत को मिलती है ऐसा नहीं है. पुरुष भी इसकी सजा भुगतते हैं. ये मसले इसलिए खड़े हुए हैं कि इस्लाम में महिलाओं को जो जगह दी गई है वह हमने अपने समाज में सही से लागू नहीं किया है. अगर ऐसा होता तो ऐसे मसले सामने ही नहीं आते.
(लेखक जमात-ए-इस्लामी-हिंद के महासचिव हैं )
(बातचीत पर आधारित)