भारत 145 करोड़ की आबादी वाला देश है, जो अनुमानित तौर पर दुनिया की पाँचवीं अर्थ-व्यवस्था है। लेकिन सरकारी दावा यह किया जा रहा है कि जल्द ही भारत तीसरी अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा। भारत की आर्थिक प्रगति के संदर्भ में सरकारी आँकड़े चाहे कुछ भी बोलें; लेकिन क्या इस प्रगति ने सामाजिक प्रगति में अपेक्षित योगदान दिया है? यहाँ पर सवाल भारतीय समाज में होने वाले बाल-विवाह के संदर्भ में सरकार से पूछा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त सवाल यह भी है कि लड़कियों के सशक्तिकरण सम्बन्धित सरकारी योजनाएँ भी ऐसे ग़ैर-क़ानूनी बाल-विवाह रोकने की दिशा में कारगर नतीजों को लाने में अधिक सफल होती नज़र क्यों नहीं आतीं? बाल-विवाह के संदर्भ में यह आँकड़ा काफ़ी चौंकाने वाला है कि भारत में आज भी हर मिनट में तीन नाबालिग़ लड़कियों की शादी हो रही है। बाल-विवाह मुक्त भारत नामक सिविल सोसायटी संगठनों के नेटवर्क की एक रिपोर्ट के अनुसार, बाल-विवाह की संख्या प्रति वर्ष 16 लाख पहुँच जाती है। इस नेटवर्क से जुड़े शोध दल ‘भारत बाल संरक्षण’ ने 2011 की जनगणना से जुड़े आँकड़ों के साथ राष्ट्रीय अपराध शाखा और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-21) की सूचनाओं को मिलाकर उनका विश्लेषण किया और बताया कि भारत में हर साल 16 लाख बाल-विवाह होते हैं। लेकिन हैरानी तब होती है, जब देश में होने वाले अपराधों के रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने वाली सरकारी संस्था राष्ट्रीय अपराध शाखा कहती है कि सन् 2018 से सन् 2022 के दरमियान देश में 3,863 बाल-विवाह हुए थे। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 बताता है कि इस दरमियान देश में 20-24 आयु वर्ग की 23.3 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो गयी थी।
ग़ौरतलब है कि भारत में विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 साल और लड़कों के लिए 21 वर्ष क़ानूनन तय की गयी है। बाल-विवाह निषेध अधिनियम के बावजूद हक़ीक़त यह है कि बाल-विवाह का दाग़ भारत पर आज़ादी के 77 साल होने पर भी लगा हुआ है। यही नहीं, 21वीं सदी का 24वाँ साल चल रहा है और अगले साल 2025 के समाप्त होते ही इस सदी का एक-चौथाई वक़्त बीत जाएगा और अगर बाल-विवाह को बिलकुल नहीं रोका गया, तो दुनिया की सबसे बड़ी पाँचवीं अर्थ-व्यवस्था वाले इस देश के समक्ष बाल-विवाह तब भी एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। बाल-विवाह के लिए जहाँ आर्थिक व सामाजिक कारणों की एक लंबी $फेहरिस्त गिना दी जाती है; वहीं इस कुप्रथा पर रोक नहीं लगती। लेकिन ऐसे बाल-विवाहों की आड़ में होने वाले अपराधों का अदालतों में क्या हश्र होता है? इस पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
इस रिपोर्ट के अनुसार, बाल-विवाह निषेध अधिनियम के तहत 2022 में विभिन्न अदालतों में सुनवाई के लिए सूचीबद्व कुल 3,563 बाल-विवाह मामलों में से केवल 181 मामलों में ही सुनवाई पूरी हुई। मामलों को निपटाने की धीमी गति चिन्ता का विषय है। क्योंकि इस मामले में लंबित मामलों का अंबार लगा हुआ है। ऐसा अनुमान है कि देश की न्याय व्यवस्था को 2022 तक लंबित मामलों को निपटाने में क़रीब 19 साल लग सकते हैं। ध्यान देने वाला बिंदु यह भी है कि शीर्ष अदालत कई मर्तबा अदालतों में सभी अपराधों के लंबित मामलों के प्रति अपनी चिन्ता ज़ाहिर कर चुकी है। यही नहीं, बाल-विवाह निषेध अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में दोषसिद्धि दर पर नज़र डालें, तो यह भी चिन्ता का कारण है। वर्ष 2022 में इनमें से मात्र 11 प्रतिशत मामलों में ही सज़ा सुनायी गयी; जबकि उसी साल बच्चों के ख़िलाफ़ किये गये सभी अपराधों के लिए कुल दोषसिद्धि दर 34 प्रतिशत है।
सवाल यह भी उठता है कि आख़िर सज़ा दर इतनी कम क्यों है? अदालतों के समक्ष ऐसे मामलों की सुनवाई के दौरान कौन-सी ऐसी दलीलें अरोपी पक्षों की तरफ़ से पेश की जाती हैं कि मामले कमज़ोर पड़ जाते हैं? ऐसी कमियों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो बाल-विवाह निषेध क़ानून को पूरी तरह से सफल होने में रुकावट डालते हैं। यह भी सच है कि बाल-विवाह सरीखी सामाजिक बुराई के उन्मूलन के लिए एक साथ कई मोर्चों पर गंभीरता के साथ प्रयास जारी रहने चाहिए। जहाँ ख़ामियाँ हैं, वहाँ त्वरित कार्रवाई की दरकार है।
बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ का मानना है कि बाल-विवाह मानवाधिकारों का उल्लघंन है; क्योंकि इसके लड़कियों और लड़कों, दोनों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। यही नहीं, स्थायी विकास लक्ष्य कहता है कि बाल-विवाह उन्मूलन स्थायी विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए अहम है, जिसका मक़सद 2030 तक लैंगिक समानता और महिलाओं और अविवाहित लड़कियों के सशक्तिकरण को हासिल करना है।