भारत 145 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाला देश है यानी इस समय विश्व में सबसे अधिक आबादी वाला देश। लेकिन किसी की आर्थिक व सामाजिक प्रगति को गति देने के लिए उस आबादी का स्वस्थ होना अति ज़रूरी है। यूँ तो सरकार भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार करने व स्वास्थ्य सम्बन्धी ढाँचागत निवेश में वृद्धि के दावे पेश करती रहती है और महानगरों में निजी अस्पतालों के बड़े-बड़े भवन दिखायी दे जाते हैं; पर बाहर से जो उजला दिखाने की कोशिश की जा रही है, उसके भीतर बहुत कुछ ऐसा है, जिसे अक्सर दबाया जाता है। रोगी के लिए अस्पताल बहुत महत्त्व रखता है; लेकिन अस्पताल में स्वास्थ्य स्टाफ के द्वारा होने वाली ग़लतियों, लापरवाही से रोगियों, मरीज़ों पर क्या बीतती है, इसे दूर करने की क़वायद बहुत कम नज़र आती है। भारत में 1,000 लोगों पर महज़ 2.06 के अनुपात में नर्स हैं; जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह संख्या तीन है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रति हज़ार की आबादी के लिए 3.5 बिस्तर की अनुशंसा की है; लेकिन भारत में यह दो से भी कम है। जहाँ तक डॉक्टरों का सवाल है, तो इस बाबत यहाँ फरवरी, 2024 में लोकसभा में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा प्रस्तुत आँकड़े का ज़िक्र किया जा रहा है।
लोकसभा को सूचित किया गया कि भारत में यह अनुपात 834 की आबादी पर एक है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा के अनुसार, 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। सरकार का दावा है कि भारत में डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से बेहतर हो गया है। बहरहाल यह सरकारी आँकड़ा है।
ग़ौरतलब है कि भारत में स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसके चलते यहाँ मरीज़ों को सही इलाज नहीं मिल रहा। यही नहीं, ग़लत इलाज का जोखिम भी उन पर बराबर मँडराता रहता है। और नतीजतन कई बार कोई मरीज़ विकलांग हो जाता है या अन्य कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या से घिर जाता है।
भारत में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, 36.14 लाख नर्सिंग कर्मी हैं यानी नर्स जनसंख्या अनुपात 476 पर एक हो गया है। इसका एक असर यह है कि मरीज़ों के इलाज में गड़बड़ी हो रही है। मेडिकेशन में ग़लतियाँ हो रही हैं। मध्य प्रदेश में एक नर्स ने मरीज़ को एलर्जिक रिएक्शन की जाँच के बिना ही टीका लगा दिया, जिससे उसका दायाँ हाथ सुन्न हो गया और मरीज़ 40 प्रतिशत तक विकलांग हो गया। पंजाब के एक अस्पताल में नर्स ने मरीज़ की नस की जगह धमनी में इंजेक्शन लगा दिया, उसकी तीन उँगलियाँ संक्रमण के चलते काटनी पड़ीं। ऐसी कई घटनाएँ यदा-कदा पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं।
दरअसल समस्या गहरी है। एक तो प्रति हज़ार की आबादी पर नर्स की संख्या कम है। इस समस्या के भी कई पहलू भी हैं, जिसमें नर्सों को पर्याप्त तकनीकी पेशागत शिक्षा-प्रशिक्षण की कमी। कम संख्या के चलते नर्सों पर काम का अधिक दबाब। अस्पतालों द्वारा कम वेतन पर उनकी नियुक्ति आदि। भारत में क़रीब 5,000 से अधिक नर्सिंग संस्थान हैं, इनमें से 90 प्रतिशत निजी हैं। इनमें हर साल क़रीब 3,00,000 महिला-पुरुष नर्स निकलते हैं। पर उनकी गुणवत्ता की किसे परवाह है। महज़ 20 प्रतिशत संस्थान ही पर्याप्त तकनीकी पेशागत शिक्षा-प्रशिक्षण देते हैं। हज़ारों की संख्या में डिप्लोमा देखकर ही नर्सों को अस्पताल रख लेते हैं। उन्हें उचित प्रशिक्षण दिये बिना ही मरीज़ की देखभाल, दवा देने जैसी सेवाओं में लगा दिया जाता है, जो ग़लत है।
ग़लत इलाज से मरीज़ की मौत, विकलांगता आदि होने पर नर्स को दंडित करने का कोई प्रत्यक्ष क़ानून नहीं है। दुर्लभ मामलों में ही लापरवाही साबित होने पर नर्सों के ख़िलाफ़ धारा-304 और 304(ए) के तहत मुक़दमा चलाया जा सकता है। ये धाराएँ सदोष मानव वध और लापरवाही से मौत की हैं। भारत सरकार ने देश में नर्सों की कमी के मद्देनज़र स्नातक स्तर की नर्सिंग की पढ़ाई कराने वाले संस्थानों की संख्या बढ़ाने पर ध्यान दिया है। 2014-15 से अब तक ऐसे संस्थानों की संख्या में 36 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और नर्सिंग सीट में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन संख्या बढ़ाने के साथ-साथ गुणवत्ता पर निगरानी रखना भी सरकार की अहम ज़िम्मेदारी है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार इसे लेकर कितनी गंभीर है? नर्सिंग संस्थान खोलने व चलाने की इजाज़त राज्य सरकार देती है। भारतीय नर्सिंग परिषद् मानकों की जाँच करता है। वर्ष 2023 में राष्ट्रीय नर्सिंग सलाहकार आयोग की स्थापना हुई; लेकिन इस आयोग ने अभी तक पूरी तरह से काम शुरू नहीं किया है।