नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) न सिर्फ अपने राजनीतिक जागरुकता के लिए देशभर में जाना जाता है बल्कि सांस्कृतिक समन्वय एवं कला के प्रति रुझान के लिए भी प्रख्यात है. इस विश्वविद्यालय में हाल ही में अपना वार्षिक नाट्य उत्सव ‘रंग बयार’ आयोजित किया गया. रंग बयार की शुरुआत 2012 में हुई थी और हर साल की तरह ही इस साल का आयोजन भी सफल रहा. जेएनयू की विभिन्न नाटक मंडलियां इस उत्सव के माध्यम से एक मंच पर इकट्ठा होती हैं. एक हफ्ते तक चले इस कार्यक्रम में कुल सात नाटकों का मंचन हो पाया.
4अप्रैल से शुरू हुए इस उत्सव में पहला नाटक खेला गया बहरूप ग्रुप की तरफ से. ‘अजंता की तरफ’ नाटक ख्वाजा अहमद अब्बास की तीन कहानियां ‘अजंता की तरफ’, ‘जाफरान के फूल’ और ‘मेरी मौत’ को एक धागे में पिरोए हुए था. इस नाटक का निर्देशन किया था अरविंद आलोक ने.
5अप्रैल को श्रीराम सेंटर फॉर परफॉरमिंग आर्ट्स द्वारा ‘ऐसे दिन आए कैसे’ नाटक का मंचन हुआ. इस नाटक का निर्देशन के.एस.राजेंद्रन द्वारा किया गया था. यह नाटक ब्रतोल्त ब्रेख्त की कहानी ‘द रेजिस्टिबल राइज ऑफ आर्तुरो उइ’ का हिंदुस्तानी रूपांतरण था.
6अप्रैल को विंग्स कल्चरल सोसाइटी ने ‘सारा का सारा आसमान’ नाटक प्रस्तुत किया. पाकिस्तानी कवयित्री सारा शगुफ्ता की जीवन गाथा दर्शानेवाले इस नाटक को दानिश इकबाल ने लिखा है और निर्देशन किया था तारीक हमीद ने. इस नाटक में दिखाया गया कि कैसे सारा ने विपरीत परिस्थितियों में शायरी लिखनी शुरू की और कैसे समाज उसे पागल समझता रहा और इस सब के चलते क्यों उसने एक दिन अपनी जान दे दी.
8अप्रैल को बोलिग्राड फाउंडेशन एवं स्पीका ढ़ोल ने प्रेमचंद के ‘गोदान’ की प्रस्तुति की. विष्णु प्रभाकर द्वारा किए गए इस नाट्य रूपांतरण का निर्देशन रामेंद्र चकवर्ती ने किया.
9अप्रैल को मंचन हुआ इप्टा के नाटक ‘जनरल, मगर सुन’ का. यह नाटक जुलियस फ्युचिक की एक कहानी पर आधारित था. इस कहानी का अनुवाद प्रभु जोशी ने किया और इस नाटक का निर्देशन किया था मनीश ने. यह नाटक 6 बच्चों के माध्यम से जंग की कड़वी सच्चाई बतलाता है. कैसे स्कूल जाते वो बच्चे जंग से पीड़ित लोगों की मदद करना चाहते हैं, और ऐसा करने के लिए वो बहुत मशक्कत से पैसे इकट्ठा करते हैं.
10अप्रैल को जुम्बिश द्वारा ’एकलव्य उवाच’ का मंचन हुआ. जातिवाद और शिक्षा प्रणाली पर व्यंग्य करता हुआ यह नाटक लिखा था कुलदीप कुणाल ने और इसका निर्देशन किया था सतीश मुख्तलिफ ने. यह नाटक एकलव्य की कथा का खंडन करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में जाति प्रथा के प्रचलन पर प्रकाश डालता है। कहानी जब पौराणिक परिवेश से निकलकर समकालीन समय में प्रवेश करती है तो एहसास कराती है कि इस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है. आज भी जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रथा का प्रचलन है.
11अप्रैल को सहर ने सुधन्वा देशपांडे द्वारा लिखित नाटक बहुत रात हो चली है का मंचन किया. दो पात्रों का यह नाटक दिखाता है कि कैसे जीवन की आपाधापी में लोग अपने उसूलों से अलग हो सकते हैं. यह कहानी बाबरी मस्जिद विध्वंस के संदर्भ में प्रदर्शित की गई. पूरे महोत्सव के दौरान जेएनयू सम्मेलन केंद्र खचाखच भरा रहा और हर नाटक के माध्यम से आज की ज्वलंत समस्याओं पर प्रकाश डाला गया.