भारत में हत्या, आत्महत्या और इच्छामृत्यु की वास्तविकता

भारत में ग़रीबी और भुखमरी से मरने पर किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति को सज़ा देने का कोई विकल्प नहीं है। सरकारें अपनी इच्छा से ऐसे मामलों में मुआवज़ा दे सकती हैं। लेकिन आत्महत्या की कोशिश करने पर सज़ा का प्रावधान है। हालाँकि ज़्यादातर मामले तब सामने आते हैं, जब कोई आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या की कोशिश के भी बहुत-से मामले आये दिन होते हैं; लेकिन ऐसे मामले वहीं के वहीं रफ़ा-दफ़ा कर दिये जाते हैं और ऐसी कोशिश करने वाले सज़ा से बच जाते हैं। इसी आत्महत्या की कोशिश को कोई अगर क़ानूनी तरीक़े से कोई अंजाम देना चाहे, तो उसे इच्छामृत्यु कहते हैं।

छत्तीसगढ़ के भरतपुर सोनहत स्थित बदरा गाँव के रहने वाले एक 43 वर्षीय शंकर यादव नाम के बीमार युवक ने छत्तीसगढ़ सरकार के स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल और भरतपुर सोनहत की भाजपा विधायक रेणुका सिंह को पत्र लिखकर राज्य की भाजपा सरकार से इच्छा मृत्यु की माँग की है। शंकर यादव ने पत्र में लिखा है कि उसे लंबे समय से फाइलेरिया नाम की गंभीर बीमारी है, जिसके इलाज में उसकी ज़मीन बिककर लग गयी। उसकी माँ बोल नहीं सकती और काम करके उसका इलाज करा रही है। इसलिए राज्य सरकार उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त दे या फिर उसका इलाज कराए। हालाँकि इच्छामृत्यु की इजाज़त देने का अधिकार किसी भी सरकार को नहीं है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस के मुताबिक, इच्छामृत्यु की इजाज़त तब दी जा सकती है, जब इच्छामृत्यु की माँग करने वाला व्यक्ति ख़ुद ही गंभीर बीमारी से पीड़ित हो और वह अपनी इच्छा से मृत्यु चाहता हो। लेकिन इसकी जानकारी उसके परिवार वालों को भी हो और डॉक्टरों की टीम कह दे कि मरीज़ नहीं बच सकेगा। या मरीज़ लंबे समय से कोमा में हो और डॉक्टर उसे बचाने में नाकाम हों। मरीज़ की लाइलाज बीमारी या कोमा में उसके होने पर ही ऐसा किया जा सकता है। लेकिन फिर भी डॉक्टर यह लिखकर दें कि मरीज़ ने अपनी इच्छा से मृत्यु का अनुरोध किया है।

भारत में इच्छामृत्यु का संविधान में वैसे तो कोई प्रावधान नहीं है और न ही संसद ने अभी तक ऐसा कोई प्रावधान संविधान में जोड़ा है; लेकिन इच्छामृत्यु के लिए कोर्ट जाया जा सकता है। अभी तक के भारत के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट ने 09 मार्च, 2018 को हरीश नाम के एक युवक को उसके पिता की याचिका पर इच्छामृत्यु की मंज़ूरी दी है। समय कोर्ट के पाँच जजों की बेंच ने इस मामले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जिस तरह व्यक्ति को जीने का अधिकार है, उसी तरह गरिमा से मरने का अधिकार भी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस युवक की गंभीर बीमारी के चलते उसे निष्क्रिय इच्छामृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) को मंज़ूरी दी थी, जिसके तहत युवक का इलाज बंद किया गया था, जिससे वो मर सके। हालाँकि इस मामले में फ़ैसला सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि आत्महत्या का प्रयास करने वालों को आईपीसी की धारा-309 के तहत सज़ा देने का प्रावधान किया गया है और इच्छामृत्यु को भी आत्महत्या का प्रयास ही माना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद-21 के अंतर्गत जीने के अधिकार में किसी को ख़ुद की इच्छा से मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है। हालाँकि फिर भी इच्छामृत्यु को स्वैच्छिक, ग़ैर-स्वैच्छिक और अनैच्छिक जैसे तीन भागों में बाँटा गया है। लेकिन किसी को इच्छामृत्यु सक्रिय और निष्क्रिय, दो ही रूपों में दिये जाने का प्रावधान माना गया है। अभी तक भारत में किसी को सक्रिय इच्छामृत्यु नहीं दी गयी है। क्योंकि सक्रिय इच्छामृत्यु में मरीज़ को सीधे मौत दी जाती है, जबकि निष्क्रिय इच्छामृत्यु में उसका इलाज बंद कर दिया जाता है, वेंटिलेटर सपोर्ट हटा ली जाती है। भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु अवैध है और यह आईपीसी की धारा-302 या 304 के तहत अपराध है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट संसद से इस मामले में क़ानून बनाने को कह चुका है।

यह भी जान लेना ज़रूरी है कि क़ानूनी रूप से किसी को फाँसी देने को इच्छामृत्यु नहीं माना गया है। महाभारत में भीष्म पितामह की इच्छामृत्यु से लेकर ऋषि-मुनियों की इच्छामृत्यु के कई उदाहरण मिलते हैं; लेकिन अब भारत में इसके लिए सबसे पहली शर्त है कि इच्छामृत्यु चाहने वाला व्यक्ति गंभीर रूप से लाइलाज बीमारी का शिकार हो और डॉक्टर उसे बचाने से मना कर चुके हों। इसके बाद भी उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त तभी दी जा सकती है, जब उसके अलावा उसके परिवार वालों और इलाज करने वाले डॉक्टरों की पूर्ण सहमति हो, उसके बाद ही कोर्ट इस पर विचार कर सकते हैं। हालाँकि इच्छामृत्यु में किसी एक डॉक्टर की सहमति के कोई मायने नहीं हैं। हालाँकि आज भी न जाने कितने ही लालची डॉक्टर चोरी-छिपे बचाये जा सकने वाले मरीज़ों तक को मौत की नींद सुला देते हैं। आज बिना कोर्ट की इजाज़त के कई डॉक्टर गंभीर मरीज़ों को सक्रिय मौत के लिए परिवार वालों को सौंपकर बोल देते हैं कि अब इनकी सेवा कर लो, इलाज का कोई फ़ायदा नहीं। भारत में गंभीर बीमारी से पीड़ित 1,000 मरीज़ों में सात मरीज़ों को आज ऐसी ही मौत दी जाती है; लेकिन क़ानून इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। और इस हत्या से बचने के लिए उनके पास सबसे आसान तरीक़ा मरीज़ के परिवार वालों से ऐसे बॉन्ड पर साइन करा लेना है, जिस पर साफ़-साफ़ लिखा होता है कि मरीज़ की हालत सीरियस है और इलाज के दौरान उसकी मौत की ज़िम्मेदारी अस्पताल, डॉक्टर और अस्पताल के किसी स्टाफ की नहीं होगी। आत्महत्या के मामले में भी यही होता है कि आत्महत्या करने वाले इच्छामृत्यु माँगने की जगह सीधे आत्महत्या कर लेते हैं और ज़्यादातर मामलों में ऐसे लोगों को इस जघन्य अपराध के लिए उकसाने वाले या इसके लिए ज़िम्मेदार लोग बच जाते हैं। इसी वजह से भारत में इच्छामृत्यु की भले ही इजाज़त न हो; लेकिन हत्याएँ और आत्महत्याएँ $खूब होती हैं।

भारत में इच्छामृत्यु की इजाज़त न होने के चलते ही छत्तीसगढ़ के मरीज़ शंकर यादव के पत्र के बाद उनकी 17 साल पुरानी फाइलेरिया बीमारी के इलाज के छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल ने स्वास्थ्य अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश दिये हैं कि वे मरीज़ की हर संभव मदद करें। लेकिन सवाल यह है कि आज भी भारत में लाखों ऐसे लोग हैं, जो गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि या तो वे ठीक हो जाएँ या उन्हें मौत आ जाए। किसी ऐसे मरीज़ को क़रीब से देखने और उसका दर्द सुनने पर मन दु:खी हो जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मरीज़ों से पैसा लूटने के लिए इलाज को असाध्य बना देने वाले डॉक्टरों को कभी किसी मरीज़ की तकलीफ़ और पैसे की परेशानी के मद्देनज़र उस पर दया आती है? इसका जवाब न या हाँ में भी मिल सकता है; लेकिन ज़्यादातर मामलों में जवाब न ही होगा। क्योंकि मरीज़ों को बचाने के नाम पर लूट का जो खेल भारत के निजी अस्पतालों में चल रहा है, न तो उसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है और न ही डॉक्टरों द्वारा मरीज़ों को लापरवाही, ग़लत इलाज या पैसे के लिए मार देने के किसी मामले में कोई सज़ा ही मिलती है। यही वजह है कि दूसरा भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर्स में काफ़ी बड़ी संख्या ऐसे डॉक्टर्स की है, जो मरीज़ों की जान से ज़्यादा अपनी फीस और दूसरे चार्जेज की परवाह करते हैं और अपना पैसा वसूलने के लिए मरीज़ों और उनके परिजनों के साथ क्रूरतम व्यवहार करते हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने ही अशोक राणा और निर्मला देवी नाम के दंपति की अपने बेटे के लिए इच्छामृत्यु की अपील ठुकरा दी थी। इस बुजुर्ग दंपति का 30 साल का इकलौता बेटा क़रीब 11 साल से कोमा में है और उसे नाक में नली डालकर खाना-पीना दिया जाता है। डॉक्टर मरीज़ की हालत में सुधार से इनकार कर रहे हैं और बुजुर्ग दंपति इलाज कराते-कराते कंगाल हो चुके हैं। बुजुर्ग दंपति ने सुप्रीम कोर्ट से अपने बेटे की नाक से खाना देने वाली राइल्स ट्यूब हटाने की इजाज़त माँगी थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की ही इजाज़त है, जिसके दायरे में राइल्स ट्यूब का हटाना नहीं आता है। क्योंकि राइल्स ट्यूब मेडिकल सपोर्ट नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का मतलब है कि किसी को खाना न देकर तड़पा-तड़पाकर मार देना सक्रिय मौत यानी इच्छा-मृत्यु देने के बराबर है, जो कि एक अपराध है। भारत में गंभीर और लाइलाज बीमारी के मामले में सुप्रीम कोर्ट सिर्फ़ इलाज सपोर्ट हटाने की इजाज़त दे चुका है और भविष्य में भी शायद वो ऐसे मामलों में इसकी इजाज़त दे, जो कि निष्क्रिय इच्छामृत्यु के दायरे में आता है। लेकिन सवाल यह है कि फिर भारत में भूख से तड़प-तड़पकर मर जाने वालों के लिए किसी सरकार या प्रशासन की ज़िम्मेदारी तय क्यों नहीं की गयी है? बहुत पहले क़रीब 42 साल तक कोमा में रहने पर भी मुंबई की बलात्कार पीड़ित नर्स अरुणा शानबाग को सुप्रीम कोर्ट ने 07 मार्च, 2011 को निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाज़त नहीं दी थी; जबकि उनका अपराधी बहुत पहले ही महज़ सात साल की सज़ा काटकर जेल से छूट गया था।

मौज़ूदा केंद्र सरकार ने सन् 2016 में मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेशेंट विधेयक-2016 यानी प्रोटेक्शन ऑफ पेशेंट ऐंड मेडिकल प्रैक्टिशनर बिल-2016 तैयार किया था, जिसमें निष्क्रिय इच्छामृत्यु की बात तो की गयी; लेकिन लिविंग विल शब्द का कहीं उल्लेख नहीं किया गया। आत्महत्याएँ रोकने के लिए भी केंद्र सरकार न तो कोई ठोस कठोर क़ानून बना पायी है और न ही इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों की सज़ा बढ़ा पायी है। लोगों को आत्महत्या के लिए मजबूर करने के पीछे कहीं-न-कहीं सरकार की योजनाओं का भी हाथ है। भुखमरी, बेरोज़गारी, क़ज़र् और नशा ऐसी ही समस्याएँ हैं, जिनके चलते हर साल लाखों लोग आत्महत्या के रास्ते मौत की नींद सो जाते हैं। लेकिन ऐसी मौतें रोकने के लिए क़ानूनी रूप से कोई प्रतिबंध नहीं लग सका है। यही वजह है कि आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। अगर भारत में इच्छामृत्यु माँगने की इजाज़त पीड़ितों को होती, तो काफ़ी लोगों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की पिछली रिपोर्ट्स को अगर आधार मानें, तो यह साफ़ हो जाएगा कि भारत में आत्महत्या के मामले दो से चार प्रतिशत सालाना के हिसाब से लगातार बढ़ रहे हैं। इसके अलावा सज़ा के अभाव या सज़ा कम होने के चलते हत्याओं का सिलसिला भी नहीं थम रहा है। लाइलाज बीमारी से परेशान लोगों को इच्छामृत्यु की इजाज़त न देने वाले भारत में हत्याओं और आत्महत्याओं को इस तरह बढ़ावा ही मिल रहा है, जिस पर किसी का ध्यान तक नहीं जा रहा है।