चरमराने लगी है देश की अर्थ-व्यवस्था

– ‘जब तक जीओ मौज़ करो। चिन्ता किस बात की? क़र्ज़ करो और घी पीओ।’ -संसद में मोदी

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जब उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश को तरह-तरह के रंगीन सपने दिखाकर लोकसभा के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री का चेहरा बनकर ताल ठोंकी, तो पूरे देश ने उनकी एक-एक बात को, उनके एक-एक वादे को न सिर्फ़ पूरे ध्यान से सुना, बल्कि यह सोचना शुरू कर दिया कि देश को भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और दूसरी तमाम परेशानियों से कोई मुक्ति दिलाने वाला आ गया है। और इसी विश्वास के साथ दूसरी बार यानी साल 2019 में भी लोगों ने उन्हें फिर से प्रधानमंत्री पद की ज़िम्मेदारी सौंप दी।

तीसरी बार यानी साल 2024 में कुछ लोगों का विश्वास उन पर कम हुआ; लेकिन फिर भी उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौक़ा मिला। और प्रधानमंत्री न सिर्फ़ देश में होने वाले हर चुनाव में, बल्कि अपने हर शासन-काल में देश को वादे देते रहे और रंगीन सपने दिखाते रहे। फाइव ट्रिलियन इकोनॉमी के सपने भी दिखाते रहे और कहते रहे कि देश तरक़्क़ी कर रहा है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त तो कुछ और ही बयाँ कर रही है और जिस तरीक़े से पिछले दिनों शेयर मार्केट की गिरावट ने 29 साल का रिकॉर्ड तोड़ते हुए शेयर धारकों के क़रीब 94 लाख करोड़ से ज़्यादा डुबो दिये, उससे साफ़ पता चलता है कि केंद्र सरकार की शेयर मार्केट को लेकर नीति बहुत अच्छी नहीं है।

दरअसल, केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल है और उन्हें हिंदुस्तान पर शासन करते हुए तक़रीबन 11 साल हो चुके हैं। इस बीच में हर दूसरे-तीसरे साल शेयर मार्केट गिरता रहा है। हालाँकि यह शेयर मार्केट सिर्फ़ मोदी सरकार में ही नहीं गिरा है, बल्कि पहले भी ऐसा कई बार हुआ है; लेकिन इतनी बुरी तरह से और बार-बार इतनी गिरावट नहीं होती थी। केंद्र की मोदी सरकार में ही 24 अगस्त, 2015 को सेंसेक्स में 1,624 अंक गिरा था और फरवरी, 2016 तक 26 फ़ीसदी की गिरावट शेयर मार्केट में दर्ज की गयी। गिर चुका था। इसके बाद मामूली सुधार के बाद 29 सितंबर, 2016 को पाकिस्तान के साथ तनाव और सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान बीएसई का बेंचमार्क इंडेक्स सेंसेक्स 500 अंक तक टूट गया था। इसके बाद 08 नवंबर, 2016 को रात 8:00 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक नोटबंदी की घोषणा कर दी, जिसके अगले ही दिन 09 नवंबर को सेंसेक्स 1,689 अंक गिर गया। इसके बाद कोरोना-काल में 2020 में लॉकडाउन और काम बंद होने के चलते न सिर्फ़ शेयर मार्केट गिरने लगा, बल्कि आर्थिक मंदी ने भी हिंदुस्तान को अपनी चपेट में ले लिया। इसके बाद जनवरी, 2023 में अडानी पर भ्रष्टाचार के हिंडनबर्ग रिसर्च के आरोप के बाद अडानी ग्रुप के शेयर गिरने से निवेशकों के हज़ारों करोड़ डूब गये। इसके बाद सितंबर, 2024 में सेंसेक्स और निफ्टी दोनों 16 फ़ीसदी तक कमज़ोर हुए। और अब इस गिरावट का 29 साल का रिकॉर्ड टूटा है और सिर्फ़ शेयर मार्केट की गिरावट ने ही 29 साल का रिकॉर्ड नहीं तोड़ा है, बल्कि देश के तक़रीबन 100 करोड़ लोगों के पास खाने भर की भी व्यवस्था बमुश्किल हो पा रही है।

हालाँकि मोदी सरकार में शेयर मार्केट केवल गिरा ही नहीं, बल्कि कई बार उछला भी और निवेशकों को अच्छा-ख़ासा फ़ायदा भी हुआ है। शेयर मार्केट के रिकॉर्ड के मुताबिक, साल 2014 से साल 2024 तक निवेशकों को 75.25 लाख करोड़ रुपये का फ़ायदा हुआ है। 16 मई, 2014 से 23 मई, 2019 के बीच बंबई शेयर मार्केट में सूचीबद्ध कम्पनियों का बाज़ार पूँजीकरण यानी मार्केट कैप 75.25 लाख करोड़ रुपये बढ़कर 150.25 लाख करोड़ रुपये हो गया था; लेकिन यह फ़ायदा छोटे निवेशकों को बहुत नहीं मिला; क्योंकि बड़े निवेशकों ने जब-जब मुनाफ़ा होते देखा; शेयर मार्केट से पैसा निकाल लिया, जिससे ज़्यादातर छोटे निवेशकों का पैसा डूब गया।

दरअसल, पिछले दिनों आयी इंडस वैली एनुअल रिपोर्ट-2025 यह बताती है कि आर्थिक रूप से हिंदुस्तान की हालत बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी है। इस रिपोर्ट में हिंदुस्तान को जिस प्रकार से तीन हिस्सों में बाँटा गया है, उससे साफ़ पता चलता है कि आज देश की 90 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी की आर्थिक हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि वे इंडोनेशिया जैसे देश में भुखमरी से जूझने वाले लोगों की क़तार में खड़े हो चुके हैं। यह वो तीसरा तबक़ा है, जिसके पास जो वक़्त का खाना खाने तक की व्यवस्था नहीं है। वहीं एक वो तबक़ा है, जो अमीर से और अमीर होता जा रहा है और दूसरा तबक़ा वो है, जो मेहनत करके जैसे-तैसे अपना घर चला रहा है। सरकार तो ख़ुद ही कह रही है कि वह तक़रीबन 81 करोड़ लोगों को हर महीने पाँच किलो राशन देती है। इसका मतलब साफ़ है कि सरकार के ही मुताबिक, देश में 81 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर हैं। इंडस वैली एनुअल रिपोर्ट-2025 में कहा गया है कि हिंदुस्तान में ऐसे 100 करोड़ लोग हैं, जिनमें मज़दूर, बेघर, बेरोज़गार और 90 फ़ीसदी किसान शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ़ 10 फ़ीसदी लोगों के पास ही देश की कुल कमायी का 57.7 फ़ीसदी हिस्सा चला जाता है, जबकि देश के 50 फ़ीसदी मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों की कमायी 22.2 फ़ीसदी से घटकर 15 फ़ीसदी ही रह गयी है। और किसान-कमेरा  वर्ग, ग़रीबों, बेरोज़गारों के पास बचत करने की छोड़िए, खाने भर की भी कमायी नहीं है। देश पर लगातार क़र्ज़ बढ़ रहा है और केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा के किसी भी मंत्री, सांसद, विधायक और नेता को इस बात की चिन्ता नहीं है कि आख़िर देश किस दिशा में जा रहा है। होगी भी कैसे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो संसद में बोल ही चुके हैं कि ‘मरने के बाद क्या है? क्या देखा है? जब तक जीओ, मौज़ करो। चिन्ता किस बात की? क़र्ज़ करो और घी पीओ।’

देश पहले ही जीडीपी के मामले में दुनिया के 194 देशों की सूची में 144वीं रैंक पर आ चुका है, जिससे यह साबित होता है कि हिंदुस्तान ग़रीबी के मामले में तक़रीबन 40 साल पीछे चला गया है और प्रधानमंत्री मोदी के हर साल दो करोड़ रोज़गार, किसानों की आय दोगुनी और हिंदुस्तान की इकोनॉमी फाइव ट्रिलियन करने के वादे जुमला ही साबित हुए हैं। और यहाँ न सिर्फ़ आर्थिक असमानता की खाई गहरी होती जा रही है, बल्कि अमीर लगातार देश को लूट रहे हैं, जिसमें सरकार की मिलीभगत से इनकार नहीं किया जा सकता।

अब सवाल यह उठता है कि देश की गिरती अर्थ-व्यवस्था, आम निवेशकों के साल-दर-साल डूबते पैसे और बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी आदि की क्या-क्या वजहें हैं? आख़िर क्यों अमीर और अमीर, और ग़रीब और भी ग़रीब होता जा रहा है? इसका जवाब भी इंडस वैली एनुअल रिपोर्ट-2025 में दिया गया है और वो यह है कि हिंदुस्तान की आर्थिक स्थिति केंद्र सरकार के चुनावी प्रक्रिया में अनाप-शनाप ख़र्च होते हैं, जिसमें पार्टियाँ बहुत पैसा पानी की तरह बहाती हैं; और भाजपा इसमें सबसे आगे है। इसके अलावा लोगों पर टैक्स का बोझ बढ़ गया है और कमायी में कमी आयी है। और इन सबसे बड़ा कारण है केंद्र सरकार द्वारा लिया गया अनाप-शनाप क़र्ज़, जिसका ब्याज ही लाखों करोड़ रुपये महीने है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदुस्तान पर साल 2024 की तीसरी तिमाही में ही तक़रीबन 7,118 अरब डॉलर यानी तक़रीबन 711.8 अरब डॉलर का विदेशी क़र्ज़ था, जिसका ब्याज ही तक़रीबन 23.8 बिलियन डॉलर सालाना होता है। हैरत की बात यह है कि हिंदुस्तान पर विदेशी क़र्ज़ बढ़ता ही जा रहा है। अर्थशास्त्र के कुछ जानकार कह रहे हैं कि यह क़र्ज़ हिंदुस्तान की जीडीपी का तक़रीबन 90 फ़ीसदी से ज़्यादा है। आईएमएफ रिपोर्ट में दावा किया गया है कि हिंदुस्तान पर साल 2022-23 में ही उसकी जीडीपी का क़र्ज़ 81 फ़ीसदी हो गया था। जीडीपी को लेकर भी केंद्र सरकार के आँकड़े कुछ कहते हैं, जबकि अर्थशास्त्री कुछ और ही कहते हैं। राजनीति और आर्थिक मामलों के जानकार केंद्र की मोदी सरकार पर ऐसे कई मामलों न सिर्फ़ आँकड़े छुपाने के, बल्कि देश को गुमराह करके क़र्ज़ में डुबोने तक के आरोप लगाते रहे हैं, जिसके जवाब में केंद्र सरकार ज़्यादातर ख़ामोश रहती है। हालाँकि सरकार भले ही ख़ामोश रहे; लेकिन लगातार बढ़ती जा रही चार चीज़ें- महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और ग़रीबी से यह साफ़ पता चलता है कि नोटबंदी के बाद से देश के अमीरों और नेताओं की संपत्ति में ही सैकड़ों से हज़ारों गुना इज़ाफ़ा हुआ है; लेकिन मध्यम वर्ग, निम्न-मध्यम वर्ग की कमायी कम हुई है और ग़रीबों की तो लुटिया ही डूब गयी है।

बहरहाल, केंद्र सरकार को हिंदुस्तान की गिरती जीडीपी, कमज़ोर होती अर्थ-व्यवस्था और लोगों की समस्याओं से ज़्यादा चुनाव जीतने की पड़ी रहती है। साल 2014 के बाद से नोट से वोट और तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर चुनाव जीतने में जिस तरह से भाजपा ने सारी हदें पार की हैं और चुनाव आयोग ने उसका साथ दिया है; जिससे साफ़ लगता है कि तगड़े चुनावी ख़र्च और तमाम तरह की परेशानियों के चलते ही आज ये हालात देखने को मिल रहे हैं। आम लोगों के हिस्से के अरबों रुपये अमीरों के पास किसी-न-किसी बहाने से जा रहे हैं और इसका सबसे ज़्यादा असर वेतनभोगी लोगों पर पड़ा है, जिसके चलते इस वर्ग की घरेलू बचत 30 फ़ीसदी ही रह गयी है। जबकि केंद्र की मोदी सरकार न तो शिक्षा पर और न ही रक्षा पर ज़्यादा ख़र्च कर रही है।

वर्ल्ड बैंक तो यह तक कह रहा है कि साल 2047 तक भी हिंदुस्तान की सरकार फाइव ट्रिलियन इकोनॉमी का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकेगी। लेकिन केंद्र की मोदी सरकार देश को विकसित करने के ख़वाब दिखा रही है। देश में भ्रष्टाचार की जड़ें भी इतनी गहरी हैं, कि कोई भी सरकार इससे अछूती दिखायी नहीं देती यानी हमाम में सब नंगे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)