विश्व शान्ति की चिन्ता में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को सांत्वना देने प्रधानमंत्री मोदी शान्तिदूत बनकर पहुँचे। यह अच्छी बात है। इससे युद्ध शान्त हो, न हो; लेकिन शायद प्रधानमंत्री की शान्ति-पुरुष की छवि बन जाए। उन्हें शान्ति के क्षेत्र में नोबेल मिल जाए। आख़िर विश्व शान्ति की चिन्ता हर किसी को थोड़े ही होती है? अंतरराष्ट्रीय नेता बनना इतना आसान थोड़े ही है। इसके लिए सभी देशों के शीर्ष नेताओं को रईसी दिखानी पड़ती है। विश्व शान्ति की छवि बनानी पड़ती है। अपने देश में भले ही अशान्ति हो। आख़िर दूसरे दो देशों की अशान्ति के आगे देश की अशान्ति क्या मायने रखती है? अपनों में बदनाम आदमी बाहर वालों के लिए अच्छा हो, तो अच्छा है। उसे बदनाम नहीं करना चाहिए। वह आदमी अगर देश के शीर्षस्थ पदों में से किसी पर हो, तब तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। अब यह देशद्रोह माना जाता है। संसद में सांसदों के द्वारा यशस्वी की उपाधि पा चुके प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ कीजिए कि उन्होंने विश्व भर में भारत के नाम का डंका बजवाया है। वर्ना पहले तो भारत की स्थिति बक़ौल प्रधानमंत्री- ”पता नहीं पिछले जनम में क्या पाप किया था, हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे। यह कोई देश है? यह कोई सरकार है? ये कोई लोग हैं? चलो छोड़ो, चले जाएँ कहीं और।’’
होंगे पहले के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जिनके सामने बैठकर आलोचक खुली आलोचना कर देते थे। यह अब नहीं चलता। अब तो लोकसभा और राज्यसभा के सभापति भी आलोचना नहीं सुनते। सुनें भी कैसे? आलोचना के लायक कुछ है ही नहीं। सब कुछ अच्छा ही अच्छा है। भारत तरक़्क़ी कर रहा है। दुश्मन डर से थरथरा रहे हैं। संसद से भारत को विकसित भारत कहा ही जा चुका है। नया संसद भवन बन चुका है। राम मंदिर बन चुका है। छतों से पानी टपकने वाले दोनों ऐतिहासिक निर्माणों की तकनीक नयी है। सड़कें स्पेस टेक्नोलॉजी से बन रही हैं। ये सड़कें सिर्फ़ सड़कें नहीं हैं, बल्कि बारिश के दौरान स्वीमिंग पूल बन सकती हैं और किसी को कभी भी अचानक पाताल की सैर करा सकती हैं। भ्रष्टाचारी जेल में डाले जा रहे हैं। सरकार उतनी ही ईमानदार है, जितनी ईमानदारी प्रधानमंत्री के चरित्र में है। बिलकुल साफ़-सुथरी छवि। कोई लूट नहीं; कोई संपत्ति नहीं बटोरी। जो कुछ भी है; सब ईमानदारी का है।
हालाँकि फिर भी प्रधानमंत्री मोदी को एक बेचैनी है। शायद यह बेचैनी विश्व शान्ति की ही है। कई पड़ोसी देशों में तनाव भी तो बढ़ रहा है। रूस-यूक्रेन, फिलिस्तीन-इजरायल, इजरायल-ईरान लड़ रहे हैं। उनकी विश्व शान्ति की चिन्ता अमेरिका की शान्ति की चिन्ता से मिलती-जुलती है। अपनी चिन्ता उन्हें बिलकुल नहीं है। अपनी चिन्ता उन्होंने कभी की भी नहीं। जब भी चिन्ता की; दूसरों की ही की। वैसे भी अपनी चिन्ता करके करना क्या? किसी बात का मोह है नहीं। देश की सेवा का ज़िम्मा जनता जनार्दन ने सौंपा है; सो दिन-रात सेवा में लगे हैं। जिस दिन जनता आदेश करेगी, झोला उठाकर चल देंगे। अपने मन की शान्ति का मंत्र वह जानते ही हैं। किसी भी गुफा में ध्यान लगा सकते हैं। योग से लेकर ध्यान तक में वह पारंगत हैं। राजनीति के जादूगर हैं। केंद्र की सत्ता में आने का भी उनका तरीक़ा अद्भुत था। पूरा देश गुजरात मॉडल पर ख़ुश था, जो पूरे देश में लागू होना था। शायद हुआ भी है। आज पूरा देश उसका नतीजा देख रहा है। अभी तो तीसरे कार्यकाल की शुरुआत हुई है। आगे भी बहुत कुछ होगा।
कुछ मतदाता फिर भी नहीं समझ रहे हैं। अयोध्या, प्रयागराज, बाँदा, रामटेक, चित्रकूट और रामेश्वरम् के मतदाताओं ने भी नहीं समझा। अब लोकपोल के सर्वे बता रहे हैं कि हरियाणा वाले भी नहीं समझना चाहते। वहाँ मुश्किल से 20 से 29 सीटें ही मिलने के आसार नज़र आ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखण्ड में भी स्थिति यही है। महाराष्ट्र में तो शिवाजी महाराज के चरणों में सिर रखकर माफ़ी भी माँग ली। लेकिन राज्यों की सत्ताएँ खिसकती हुई नज़र आ रही हैं। कोई समझने को तैयार ही नहीं है। लोग विकास पुरुष की छवि को पहचान ही नहीं रहे हैं। आरएसएस अलग से नाराज़ है। भाजपा के कई नेता भी विद्रोह की सही घड़ी का इंतज़ार कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर चर्चा कुर्सी हिलने की है। विरोधी वैश्विक नेता की छवि वाले प्रधानमंत्री पर हमले कर रहे हैं। विपक्षी विरोध के सुर अलाप रहे हैं। जनता को भड़का रहे हैं। कुर्सी हिलाने की कोशिश में लगे हैं। देश के एक लोकप्रिय और सर्वश्रेष्ठ नेता को बदनाम कर रहे हैं। अब तो कई अपने भी दुश्मन बन गये।
समझ में नहीं आता कि भारत को विकसित भारत बनाना किसी को क्यों नहीं दिख रहा है? विश्व भर में बजता भारत के नाम का डंका क्यों सुनायी नहीं देता? अच्छे दिन क्यों नहीं दिखते? सबको अपना परिवारजन भी कह दिया, फिर भी तरस नहीं आया। अपने दो कार्यकालों में कितने विकास कार्य किये? लेकिन देशवासियों को वो भी नहीं दिखा। तीसरी बार में लोकसभा पहुँचाया भी, तो बैसाखियों के सहारे। पता नहीं कब कुर्सी की कौन-सी टाँग टूट जाए।