पटना की यह मेरी दूसरी यात्रा थी. तब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कालेज में पढ़ता था. मुझे जानकारी मिली थी कि मशहूर आलोचक नामवर सिंह व्याख्यान देने पटना आने वाले हैं. उन दिनों साहित्य और नामवर सिंह मुझ पर नशे की तरह सवार थे. मैं नामवर सिंह को दूरदर्शन पर नियमित देखा करता और कभी उन्हें सामने देखते हुए सुनने की कल्पना करता. कॉलेज की लंबी छुट्टी होने वाली थी. मैंने तय किया कि रांची से पटना सीधा चला जाता हूं, नामवर सिंह को सुनना भी हो जाएगा और साहित्यिक किताबों की खरीदारी भी. उन दिनों रांची में साहित्य की किताबें बहुत कम मिला करतीं. कुछ दोस्तों ने बताया था कि पटना में गांधी मैदान के ठीक सामने पुरानी किताबों की ढेर सारी दुकानें हैं. वहीं अशोक राजपथ से नई किताबें खरीदने का विकल्प भी था.
शाम को मैं कांटाटोली बस स्टैंड पहुंचा और बस में बैठ गया. बगल की सीट खाली थी. मैं सोच ही रहा था कि पता नहीं कौन आएगा तभी करीब 45 साल का एक व्यक्ति उस पर आकर बैठ गया. उसने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ मैंने कहा,- ‘पटना.’ ‘वहां पढ़ाई करते हो?’ मैंने कहा,- ‘नहीं, पढ़ाई यहां करता हूं, वहां किताबें खरीदने और व्याख्यान सुनने जा रहा हूं.’ उसने तीन बार कहा- ‘गुड, गुड, गुड.’
जरा सी देर में इस व्यक्ति ने मुझसे पढ़ाई-लिखाई के बारे में काफी कुछ पूछ लिया था. उसे भी पता था कि प्रेमचंद कौन हैं, रेणु ने क्या लिखा है. हम इंजीनियरिंग, मेडिकल की पढ़ाई नहीं कर रहे हैं, इसे लेकर हम दोस्तों-रिश्तेदारों के बीच मजाक के पात्र बनते थे. यह व्यक्ति मेरी पढ़ाई में दिलचस्पी ले रहा है, देखकर अच्छा लगा.
फिर बस चल दी. थोड़ी देर में लाइटें ऑफ कर दी गईं. रांची छूटे कुछ ही समय हुआ था कि उस व्यक्ति ने मुझे छूना शुरू कर दिया. पहले तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उसके हाथों की हरकतें बढ़ने लगीं तो मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने उसके हाथ पकड़ लिए. थोड़ी देर वह शांत रहा. फिर उसने मेरी पैंट के बटन खोलकर अपना हाथ भीतर डाल दिया. अब मैं बुरी तरह घबरा गया था. मैं उठकर जाने लगा तो उसने मेरे हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘बैठो न, कुछ नहीं करूंगा.’ मैं चुप था और पटना जाने के फैसले पर अफसोस कर रहा था. आधे घंटे तक उसने कुछ नहीं किया. फिर अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और अपने पैंट में डाल दिया. मैंने प्रतिरोध में हाथ पीछे खींचने की कोशिश की. लेकिन वह इस ताकत से मेरा हाथ वापस वहीं ले गया कि मैं एकदम से रो पड़ा. एक बार रुलाई छूटी तो फिर मैं रोता ही रहा.
चलती बस की आवाज में पहले तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन फिर एक महिला की आवाज गूंजी, ‘कंडक्टर साहब, लाइट जलाइए, कोई रो रहा है.’ लाइट जली. एक महिला जो मेरी सीट के ठीक सामने बैठी थी, मेरे पास खड़ी थी. मैंने उस व्यक्ति की तरफ देखा. वह निढाल पड़ा था. उस महिला ने बिना मुझसे कुछ पूछे उस व्यक्ति को दनादन तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए तो बाकी लोग भी मेरी सीट के पास जमा होने लगे. शोर-शराबे की वजह से कंडक्टर ने गाड़ी रुकवा दी.
‘उस महिला ने बिना मुझसे कुछ पूछे, उसको दनादन तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए तो बाकी लोग भी मेरी सीट के पास जमा होने लगे’
अब उस व्यक्ति को बाकी लोग बुरी तरह पीटने लगे थे और धक्के देकर गेट की तरफ ले जा रहे थे. तय हुआ कि उसे ड्राइवर के बगल की सीट पर बिठाया जाए और आगे उतार दिया जाए. अब वह महिला मेरे बगल में थी. खिड़की की तरफ सिर टिकाकर मैं लगातार सिसक रहा था और वह मेरे सिर पर लगातार हाथ फेर रही थी.
सुबह के साढ़े छह बजे पटना पहुंचते-पहुंचते मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी. बस से उतरकर मैं जमीन पर पैर रखता उससे पहले मैं अचेत होकर गिर पड़ा. आंखें खोलीं तो मैं एक प्रसूति घर में पड़ा था. चारों तरफ से बच्चों के रोने और महिलाओं के दर्द से चीखने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ पूछता कि इससे पहले बगल में बैठी उन आंटी ने धीरे से पूछा, ‘अब बताओ, तुम्हें पटना में कहां जाना है? मेरे घर चलोगे?’ मैंने न में सिर हिलाया. दोपहर में मुझे वहां से डिस्चार्ज कर दिया गया. आंटी मुझे लेकर बाहर आ गई. दोबारा पूछा, ‘घर चलोगे ?’ मैंने कहा, ‘नहीं आंटी, अब कहीं नहीं जाऊंगा, वापस रांची.’ मुझे अब न तो नामवर सिंह को सुनना था और न ही साहित्य की किताबें खरीदनी थीं.
आंटी करीब डेढ़ घंटे और मेरे साथ रहीं. उन्होंने खाना भी मेरे साथ खाया. फिर बोलीं, ‘अब तुम पक्का ठीक हो न?’ ‘हां आंटी, आप प्लीज जाइए’, मैंने कहा. उन्होंने फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा और कागज पर घर का पता लिखकर मुझे देते हुए बोलीं, ‘पटना आना तो मेरे पास आना मत भूलना. मैं रांची आई तो तुमसे मिलूंगी.’
13 साल गुजर चुके हैं. इसके बाद मेरा पटना कभी जाना नहीं हुआ. एक-दो मौके आए भी तो मैंने टाल दिया. लेकिन अब भी जब मेरे दोस्त मेरे बनाए खाने या मेरे साफ-सुथरे घर की तारीफ में कहते हैं, ‘तुम्हारे नाम के अंत में आ लगा होता तो तुमसे शादी कर लेता’, मुझे उस आदमी का चेहरा याद आ जाता है. टीवी चैनलों पर जब भी स्त्री की सुरक्षा के लिए किसी की मां किसी की बहन बनाकर एक तरह से कमतर और पुरुषों के साये में रहने की दलील दी जाती है तो आंटी का वह आत्मविश्वास से भरा चेहरा याद आता है, उनकी बांहें याद आती हैं जिनमें 18 साल का एक युवा सुरक्षित था. लेखक:विनीत कुमार; लेखन व अध्यापन के क्षेत्र में सक्रिय विनीत दिल्ली में रहते हैं.