अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ पर अचानक यू-टर्न ने वैश्विक आर्थिक व्यवस्था को गहरा झटका दिया है। चीन को छोड़कर अन्य सभी देशों पर व्यापक पारस्परिक शुल्क को रोकने का उनका निर्णय एक दुर्लभ रियायत है। लेकिन यह उस अस्थिरता को भी रेखांकित करता है, जो ट्रम्प की व्यापार नीति को परिभाषित करती है। भारत के लिए यह क्षण चुनौती भरा भी है और एक अवसर के रूप में भी। अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रम्प ने वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता को फिर से भड़का दिया, जिससे शेयर बाज़ारों और वास्तविक अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक निर्णय बाधित हो गये। इस व्यवधान की भयावहता स्पष्ट रूप से स्वाभाविक है, क्योंकि जापान का निक्केई 7.83 प्रतिशत गिरा, हॉन्गकॉन्ग का हैंगसेंग 13.22 प्रतिशत गिरा और भारत का सेंसेक्स एक ही दिन में 2.95 प्रतिशत गिर गया। 01 जनवरी से अब तक सेंसेक्स में 6.84 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है और यह सितंबर 2024 के अपने शिखर 85,978.25 से लगभग 15 प्रतिशत नीचे है।
‘तहलका’ की आवरण कथा- ‘टैरिफ-तूफ़ान के बीच भारत स्थिर’ इस उथल-पुथल को दर्शाती है तथा यह भी बताती है कि भारत इससे कैसे निपट रहा है। जैसे-जैसे व्यापारिक अस्थिरता का तूफ़ान तेज़ होता जा रहा है, भारत ख़ुद को दो महाशक्तियों के बीच कूटनीतिक रूप से संतुलित करते हुए पा रहा है। वहीं चीन ट्रम्प के 125 प्रतिशत टैरिफ के दबाव में दो सबसे बड़े विकासशील देशों के बीच एकजुटता की अपील के साथ नई दिल्ली तक पहुँच रहा है। ट्रम्प द्वारा भारत और यूरोपीय संघ सहित 59 देशों के लिए 10 प्रतिशत से अधिक टैरिफ को अस्थायी रूप से निलंबित करना एक रणनीतिक क़दम है। यह व्यापार सौदों पर बातचीत करने के लिए 90 दिनों का समय प्रदान करता है; शायद यह इस बात की स्वीकृति है कि अमेरिका को फिर से महान् बनाओ के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक व्यापार युद्ध छेड़ना टिकाऊ नहीं हो सकता है। इसके बजाय ट्रम्प ने चीन पर अपनी शक्ति केंद्रित करने का निर्णय लिया है, जो अब अमेरिकी टैरिफ का ख़ामियाज़ा भुगत रहा है। वैश्विक टकराव से चीन के साथ द्विपक्षीय लड़ाई की ओर यह बदलाव अभूतपूर्व है। लेकिन यह बहुत कुछ कहता है; यहाँ तक कि ट्रम्प को भी अहसास हो गया है कि आधी दुनिया को नाराज़ करना आर्थिक और कूटनीतिक रूप से उलटा पड़ सकता है।
भारत के लिए यह विराम एक रणनीतिक अवसर प्रस्तुत करता है। आवेगपूर्ण तरीक़े से जवाबी कार्यवाही करने के प्रलोभन का प्रतिरोध करके तथा इसके बजाय दीर्घकालिक रणनीति अपनाकर नई दिल्ली ने स्वयं को एक व्यावहारिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित किया है। अब उसे अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार को 2.5 गुना बढ़ाने के अपने सपने को साकार करने का लक्ष्य सुनिश्चित करना चाहिए। सकारात्मक पक्ष यह है कि टैरिफ में राहत से विदेशी पोर्टफोलियो प्रवाह को बढ़ावा मिल सकता है और रुपया मज़बूत हो सकता है। इसके साथ ही तरलता में आसानी हो सकती है और ब्याज दरों में कमी आ सकती है। हालाँकि आगे का रास्ता जोखिम भरा भी है। लम्बे समय से चल रहे अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के बाधित होने का ख़तरा है, और भारत को अपने बाज़ारों में आने वाले सस्ती चीन की वस्तुओं की बाढ़ से सावधान रहना होगा। यद्यपि चीन की पहल मैत्रीपूर्ण प्रतीत हो सकती है, फिर भी भारत को सावधानी से क़दम उठाना होगा। बीजिंग की एकजुटता की अचानक इच्छा साझा मूल्यों को बढ़ावा देने से ज़्यादा उसके रणनीतिक स्वार्थ को लक्षित करती है, जो कि वह फ़िलहाल अपनी अटकी के चलते छुपा रहा है। भारत की सबसे अच्छी प्रतिक्रिया सतर्क भागीदारी में निहित है। इसलिए भारत को अमेरिका के साथ इस कूटनीतिक अवसर का लाभ उठाना चाहिए और अपने घरेलू बाज़ारों की सुरक्षा करते हुए तेज़ी से खंडित हो रहे विश्व में एक विश्वसनीय, नियम-आधारित आर्थिक साझेदार के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रखना चाहिए।
ट्रम्प के टैरिफ सम्बन्धी उतार-चढ़ाव ने भले ही बाज़ारों को हिलाकर रख दिया हो; लेकिन भारत के लिए यह आर्थिक शासन-कौशल की भी परीक्षा है। भारत के लिए अगले 90 दिन निर्णायक हो सकते हैं; न केवल व्यापार के लिए, बल्कि विकसित हो रही वैश्विक व्यवस्था में अपनी भूमिका के लिए भी।