‘हे धर्मेश, दुनिया में शांति बनाए रखना. हिंसा, झूठ और बेईमानी की जरूरत मानव समुदाय और समाज को न पड़े. धर्मेश, हमें छाया देते रहना, हमारे बाल-बच्चों को भी. खेती का एक मौसम गुजर रहा है, दूसरा आने वाला है. हम खेती के समय हल-कुदाल चलाते हैं. संभव है हमसे, हमारे लोगों से कुछ जीव-जंतुओं की हत्या भी हो जाती होगी. हमें माफ करना, धर्मेश. क्या करें, घर-परिवार का पेट पालने के लिए अनाज जरूरी है न! समाज-कुटुंब का स्वागत नहीं कर पाएं, उन्हें साल में एक-दो बार भी अपने यहां नहीं बुलाएं तो अपने में मगन रहने वाले जीवन का क्या मतलब होगा? इन्हीं जरूरतों की पूर्ति के लिए हम खेती करते हैं. खेती के दौरान होने वाले अनजाने अपराध के लिए हम आपसे क्षमा मांग रहे हैं. धर्मेश, हमें कुछ नहीं चाहिए, बस बरखा-बुनी समय पर देना, हित-कुटुंब-समाज से रिश्ता ठीक बना रहे, सबको छाया मिलती रहे, और कुछ नहीं’
झारखंड में गुमला जिले के रोगो नामक गांव में यह टाना भगतों की नियमित आराधना है. इस दौरान आदिवासी भाषा कुड़ुख में जो प्रार्थना होती है, खेड़ेया टाना भगत उसका हिंदी में कुछ ऐसा ही अर्थ समझाते हैं. गांधी टोपी पहने पुरुष और रंगीन पाड़े वाली सफेद साड़ी में महिलाएं जब सस्वर और सामूहिक तौर पर ये वाक्य फिर दोहराते हैं तो रोम-रोम में सिहरन पैदा होती है. घंटी बजाने और हाथ-पांव धोकर दीप जलाने के बाद चरखे वाले तिरंगे के सामने अपने धर्मेश यानी ईश्वर की आराधना की यह पद्धति एक अजूबे की तरह लगती है.
इस समुदाय की जीवन शैली से बहुत हद तक अनजान अजनबियों के रोम-रोम में सिहरन पैदा होने की एक साथ कई वजहें हो सकती हैं. पहली तो यही कि 21वीं सदी में भी कोई समुदाय है जिसकी आकांक्षा दुनिया मंे शांति कायम रखने, समाज की समरसता बने रहने, घर-परिवार-समुदाय को छाया मिलने, हित-कुटुंब से रिश्ते बनाए रखने भर की है. जतरा टाना भगत को अपना नायक और गांधी को अपना आदर्श मानने वाला टाना भगत समुदाय चरखाछाप तिरंगे की पूजा करता है, सत्य-अहिंसा को जीवन का मूल मंत्र मानता है, मांस-मदिरा से दूर रहता है, इतनी जानकारी तो पहले से थी. लेकिन टाना भगतों के इलाके में दो दिन बिताने के बाद अहसास होता है कि ये लोग सिर्फ दिखावे के लिए आराधना के दौरान कुड़ुख भाषा में एक मंत्र जपकर परंपराओं का निर्वाह भर नहीं करते. उनके समुदाय का एक बड़ा हिस्सा वैसा ही जीवन जीता भी है.
टाना भगतों को करीब से देखने की शुरुआत हम रांची के बारीडीह गांव से करते हैं. दो-दो पूर्व विधायकों का गांव. दोनों टाना भगत. दोनों कांग्रेसी. एक पूर्व विधायक भेल्लोर इलाज के लिए गए होते हैं. उनसे मुलाकात नहीं हो पाती. दूसरे पूर्व विधायक गंगा टाना भगत से हम अनुरोध करते हैं कि हमें टाना भगतों से सामूहिक तौर पर मिलना है. वे तुरंत अपनी मोपेड निकालते हैं और फिर हमारे पथ प्रदर्शक की तरह आगे-आगे चलते हुए हमें उस रोगो गांव में ले जाते हैं जहां हम सामूहिक आराधना का वह नजारा देखते हैं जिसका जिक्र रिपोर्ट की शुरुआत में आया है.
‘हमारे पूर्वज गांधीजी के पहले से ही अंग्रेजों से और सत्य-अहिंसा की लड़ाई लड़ रहे थे. जतरा टाना भगत ने आदिवासियों से अलग सामुदायिक परंपरा चलाई थी’
गंगा टाना भगत कहते हैं, ‘आप किसी भी गुरुवार को आ जाइए, नियमित तौर पर हम टाना भगतों की सामूहिक बैठक होती है. या फिर साल भर में तीन बार होने वाले हमारे समुदाय के विशेष सामूहिक आयोजन में आइए जब हम लोग अपने-अपने घरों में तिरंगा बदलते हैं. वही तीन बार बदला हुआ तीन तिरंगा, तीन अलग-अलग बांसों में हर टाना भगत के घर के बाहर या आराधना स्थल पर देखने को मिलेगा.’ वे आगे बताते हैं कि तिरंगा बदलने का पहला आयोजन आषाढ़ के महीने में होता है. जिस दिन तिरंगा बदला जाना होता है, उस रोज समुदाय के दूसरे लोग भी पहुंचते हैं. सामूहिक उपवास होता है, फिर सामूहिक आराधना और तब तिरंगा बदलकर भजन-कीर्तन और उसके बाद सामूहिक भोज. दूसरे झंडे को कार्तिक महीने में दीपावली के 15 दिन पहले से बदलने की प्रक्रिया शुरू होती है. इस बार भी कमोबेश वही प्रक्रिया दोहराई जाती है. तीसरा झंडा होलिकादहन के पहले बदला जाता है. इस तरह तीन तिरंगे झंडे तीन लोकों यानी धरती, आकाश और पाताल का प्रतिनिधित्व करते हैं. हर बार महिला-पुरुष सात धागों वाला जनेऊ बदलते हैं. सात धागों वाले जनेऊ के पीछे की धारणा यह है कि वह सतयुग कभी तो आएगा, जब समाज में सत्य का ही बोलबाला होगा. गंगा टाना भगत यह भी बताते हैं, ‘यदि दूसरे किस्म का आयोजन देखना हो तो दो अक्तूबर यानी गांधी जयंती को खक्सीटोला गांव आइए जहां 74 स्वतंत्रता सेनानी टाना भगतों का स्मारक है. या फिर 10 अगस्त को, उस रोज टाना भगत मुक्ति दिवस मनाया जाता है.’
गंगा टाना भगत से हम मुक्ति दिवस के बारे में पूछते हैं. वे बताते हैं, ‘तीन साल पहले इसी दिन हम लोगों को जमीन का अधिकार मिल सका. उन जमीनों का, जो आजादी की लड़ाई के दौरान ही अंग्रेजों ने नीलाम कर दी थीं और आजादी के बाद 1947 में ही उनकी वापसी के लिए विशेष एक्ट बनने के बावजूद हमें नहीं मिल पा रही थीं. हमारे समुदाय के नाम से पुस्तिका तैयार करने का काम शुरू हुआ.’ गंगा आगे कहते हैं, ‘ब्रिटिश काल में 875 टाना भगत परिवारों की 4,332 एकड़ 66 डिसमिल जमीन नीलाम हुई थी. उसमें अभी सिर्फ 172 टाना भगत परिवारों की 1,836 डिसमिल जमीन ही वापस करवाई जा सकी है. लेकिन हम मुक्ति दिवस इसलिए मनाते हैं कि चलिए इतनी देर में ही सही, जमीन वापसी की प्रक्रिया शुरू तो हो सकी.’ उन्हें यह भी कसक है कि सरकारी फाइलों में वे अब तक एक अलग समुदाय के रूप में पूरी तरह नहीं स्वीकारे जा सके हैं.
आराधना के आयोजन में दूसरे गांवों से आए कई टाना भगत बतकही में इतिहास की बातें बताते हैं. खेड़ेया टाना भगत कहते हैं, ‘हमारे पूर्वज गांधीजी के पहले से ही अंग्रेजों से और सत्य-अहिंसा की लड़ाई लड़ रहे थे. हमारे नायक व पुरोधा जतरा टाना भगत ने आदिवासी होते हुए आदिवासियों से अलग एक सामुदायिक परंपरा की शुरुआत अहिंसा मार्ग अपनाते हुए ही की थी.’ वे आगे कहते हैं कि आदिवासियों में बलि आदि की परंपरा है, हंडिया-दारू भी पारंपरिक चीजें हैं, लेकिन वीर जतरा टाना भगत ने 20वीं सदी के आरंभ में ही आदिवासी होने के बावजूद मांसाहार, बलि और नशे के खिलाफ अभियान चलाया था और तब आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा उनका अनुयायी बन गया था. झारखंड के छोटानागपुर, संथाल, मानभूम, सिंहभूम से लेकर पलामू और उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि इलाकों में भी इस अभियान का गहरा असर पड़ा और अलग-अलग नाम से इस तरह का आंदोलन चला. अनुयायी बनते गए.
खेड़ेया इतिहास की बातें बताते हैं. टाना भगत समुदाय के पुरोधा जतरा टाना भगत और गांधीजी में मुलाकात तक नहीं हुई थी. जब गांधीजी झारखंड पहुंचकर बेड़ो में तीन दिन के लिए रुके थे, उसके बहुत पहले ही जतरा टाना भगत दुनिया से विदा हो चुके थे. गांधी बेड़ो पहुंचे तब उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों के बारे में मालूम हुआ, जो बहुत पहले से ही अपने तरीके से सत्य-अहिंसा के प्रयोग के साथ अंग्रेजों को लगान न देकर देशभक्ति की लड़ाई लड़ रहा था. खेती में कपास उगाकर अपने कपड़े भी खुद तैयार करता था. खेड़ेया कहते हैं, ‘पहले हमारे समुदाय का झंडा सादा हुआ करता था, वेश भी साधा, जीवन भी सादा, लेकिन गांधीजी के आग्रह पर हमारे समुदाय ने सादे झंडे को चरखाछाप तिरंगे में बदला और बाद में हम गांधी के ही हो गए, अब तक हैं, कोशिश होगी कि हमेशा रहें भी.’
खेड़ेया आखिरी वाक्य भी एक लय में बोल जाते हैं कि कोशिश करेंगे कि गांधी की राह पर ही समुदाय की आने वाली पीढ़ी भी चले और उन्हीं की होकर रहे. लेकिन उनके इस कहे में भविष्य के प्रति एक आशंका का भाव दिखता है. टाना भगत समुदाय के लोग नहीं बताते लेकिन हमें जानकारी मिलती है कि नई पीढ़ी का जुड़ाव अपनी परंपरा से कम होता जा रहा है. इसकी कई वजहें बताई जाती हैं. एक तो ये आदिवासी समुदाय से आते हैं, आदिवासियों के बीच ही रहते हैं जिनमें बलि प्रथा की एक महत्वपूर्ण विधि है. हालांकि टाना भगतों के प्रभाव में आकर कई आदिवासी भी अब दूध-अनाज की बलि देने लगे हैं, लेकिन यह संख्या बहुत कम है. दूसरा, आदिवासी समुदाय में हंड़िया पीना भी एक परंपरा है, जिससे बचना नई पीढ़ी के लिए इतना आसान नहीं. इन सबके साथ इस खास समुदाय को बचाने-बढ़ाने के लिए सरकारी स्तर पर वह नहीं हुआ जिसकी दरकार थी. आजादी के इतने साल बाद नीलाम जमीन मिलने की प्रक्रिया का शुरू होना एक बड़ी विडंबना तो दिखाता ही है, और भी कई चीजें हैं जिनसे इनकी उपेक्षा का अनुमान लगाया जा सकता है.
1982 में सीसीएल कंपनी द्वारा टाना भगत समुदाय के बेरोजगार नौजवानों को प्रशिक्षित करने के लिए आईटीआई की शुरुआत हुई थी, लेकिन यह संस्थान तीन साल चलकर अचानक बंद हो गया. क्यों, इसका जवाब किसी के पास नहीं. रांची जिले के सोनचिपी, गुमला जिले के चापाटोली और लोहरदगा जिले के बमनडीहा में एक समय टाना भगत आवासीय विद्यालयों की स्थापना हुई थी लेकिन बकौल गंगा टाना भगत, अब वे विद्यालय भी सामान्य आदिवासी आवासीय विद्यालय की तरह चल रहे हैं और वहां टाना भगत समुदाय के बच्चों की संख्या न के बराबर है. इस समुदाय की ऐसी ही कई अन्य समस्यााएं और चुनौतियां हैं. जाहिर-सी बात है कि यदि परंपरा से नई पीढ़ी को जोड़ने वाली कोई योजना नहीं रहेगी तो इस समुदाय का इतिहास बनना तय है. इनकी संख्या अभी कितनी है, यह पक्का नहीं लेकिन अखिल भारतीय टाना भगत विकास परिषद के अनुसार इनकी जनसंख्या 44 हजार है.
‘टाना भगत समुदाय की बसाहट जहां-जहां है, वहां नक्सलियों का प्रभाव कम हुआ है. कई नक्सली इनके प्रभाव में आकर गांधी की राह अपना चुके हैंसमाजशास्त्री डॉ एस नारायण ने टाना भगतों की जमीन वापसी में अहम भूमिका निभाई है. उन्हें टाना भगत भी बहुत सम्मान देते हैं. इस समुदाय पर व्यापक सामाजिक शोध करने वाले डॉ नारायण कहते हैं, ‘बात इनकी संख्या की नहीं, इनमें संभावनाओं की है. सरकार उन संभावनाओं को नहीं देख रही है. यह गांधी के सिद्धांत सत्य, अहिंसा आदि को जीवंतता के साथ आज भी जीने वाला दुनिया का इकलौता समुदाय है.’ डॉ नारायण आगे बताते हैं, ‘इस समुदाय की बसाहट जहां-जहां है, वहां नक्सलियों का प्रभाव कम हुआ है. कई नक्सली इनके प्रभाव में आकर गांधी की राह अपना चुके हैं और यह तय है कि अगर इन टाना भगतों को समूह में नक्सल प्रभावित इलाकों में ले जाकर बसाया जाए तो ये अपनी जीवनशैली, निष्ठा से नक्सल प्रभाव कम करने में सक्षम हैं.’ नारायण कहते हैं कि उन्होंने इस बाबत केंद्रीय गृह मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपकर सलाह दी है. इस पर आगे क्या होता है, यह देखा जाना बाकी है.
टाना भगतों से और भी ढेरों बातें होती हैं. आखिर में हम खक्सीटोली गांव पहुंचते हैं, जहां एक टोली में जतरा टाना भगत की बड़ी प्रतिमा लगी है. सामने तीन चरखाछाप तिरंगे वाला बांस है. खक्सीटोली के बाहरी हिस्से में जाते हैं, जहां हरिवंश टाना भगत समेत 74 स्वतंत्रता सेनानी टाना भगतों के नाम के पत्थर कतार में दिखते हैं. इसी जगह टाना भगत समुदाय के लोग गांधी जयंती हर्षोल्लास से मनाते हैं.
और यहीं अगली कतार में लगे कुछ पत्थर टाना भगतों के साथ राजनीति का खेल भी बयान करते हैं. एक बड़ा शिलापट्ट धाकड़ आदिवासी नेता शिबू सोरेन के नाम का दिखता है जो मुख्यमंत्री रहते हुए शिलान्यास करने आए थे. दूसरे शिलापट्ट पर बड़े गैरआदिवासी कांग्रेसी नेता व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय का नाम दिखता है, जो अनावरण करने गए थे. इसी तरह कई नेताओं के नाम दिखते हैं. वहां तकली से धागा बना रहे बुधुआ टाना भगत मिलते हैं. जिरगा टाना भगत भी मिलते हैं. जिरगा कहते हैं, ‘जिन-जिन नेताओं के नाम लगे हैं, सबने कहा था कि इसे महत्वपूर्ण स्थल बनाएंगे, लेकिन अपने नाम का पट्ट लगाने के बाद इस जगह को याद तक नहीं किया उन्होंने. महत्वपूर्ण स्थल क्या बनाएंगे, एक बाउंड्री वाल तक नहीं दिलवा सके.’
टाना भगतों के साथ राजनीति आगे क्या करेगी, यह अब भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. टाना भगत पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के मतदाता और समर्पित कांग्रेसी कार्यकर्ता रहे हैं. वे कहते हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा तवज्जो इंदिरा गांधी ने दी थी. बाद में राजीव गांधी तक टाना भगतों को पार्टी तवज्जो देती रही. लेकिन उसके बाद जंगल में बसे टाना भगतों और दिल्ली में बैठी कांग्रेस की आलाकमानों के बीच संवाद में दूरी आ गई. गंगा टाना भगत कहते हैं, ‘अबकी राहुल गांधी झारखंड आए थे तो दिल्ली बुलाए हैं. जाएंगे, उम्मीद है कि फिर संवाद कायम होगा.’