– हरियाणा में भाजपा को बहुमत; लेकिन कश्मीर घाटी में नहीं जीत सकी एक भी सीट !
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव नतीजों का गहराई से अध्ययन करें, तो देखेंगे कि हरियाणा में भाजपा को भी अपनी जीत की कोई उम्मीद नहीं थी। लेकिन लोगों की नाराज़गी के बावजूद हरियाणा में उसका जीतना कई सवाल खड़े करता है। जम्मू-कश्मीर के जो नतीजे आये हैं, वो ऐसे ही रहने की उम्मीद थी। घाटी में लोगों ने भाजपा के प्रति अपनी नाराज़गी दिखायी है, जबकि जम्मू में भाजपा का प्रदर्शन सामान्य रहा। इन चुनाव नतीजों का महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के चुनावों पर कोई असर पड़ेगा, ऐसा लगता नहीं है; क्योंकि वहाँ के मुद्दे अलग हैं। इन चुनावी नतीजों को प्रधानमंत्री मोदी के लिए भी तात्कालिक संजीवनी मान सकते हैं, जो इन दिनों आरएसएस की तरफ़ से जबरदस्त दबाव झेल रहे हैं। चुनावी नतीजों को लेकर वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी का विश्लेषण :-
दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में यदि कोई पार्टी सबसे ज़्यादा घाटे में रही है, तो वह कांग्रेस है। लगभग जीता हुआ राज्य हरियाणा वह हार गयी, जबकि जम्मू-कश्मीर में वह पिछली बार की 12 सीटों के मुक़ाबले आधी सीटों पर सिमट गयी। ऊपर से तुर्रा यह कि जम्मू में उसे सिर्फ़ दो सीटें मिलीं और उसके छ: विधायकों में एक भी हिन्दू नहीं। कांग्रेस के अति आत्मविश्वास में डूब जाने से भाजपा को हरियाणा तश्तरी में रखा मिल गया। अनुच्छेद-370 हटने के बाद हुए पहले चुनाव में भाजपा कश्मीर की 47 में से एक भी सीट नहीं जीत पायी, जो उसके प्रति घाटी के लोगों की नाराज़गी को उजागर करता है। कांग्रेस की हार के बीच सबकी नज़रों के केंद्र में पहलवान विनेश फोगाट रहीं, जिन्होंने बड़ी जीत हासिल कर विरोधियों के मुँह पर ताला जड़ दिया।
पहले बात हरियाणा की। आख़िर तक यही लग रहा था कि राज्य में कांग्रेस आसान जीत हासिल करने जा रही है। लगभग सभी एग्जिट पोल भी कांग्रेस की जीत दिखा रहे थे। ज़मीन पर भी ऐसा ही दिख रहा था। बैलट पेपर की गिनती तक तो एक समय कांग्रेस 70 के पार दिख रही थी; लेकिन जैसे ही ईवीएम खुलीं, भाजपा का ग्राफ ऐसा चढ़ना शुरू हुआ कि आख़िरी नतीजा जब आया, तो वह साधारण बहुमत से दो सीटें ज़्यादा जीत चुकी थी। कांग्रेस के दफ़्तरों में सुबह जो हलवाई मिठाई बनाने की तैयारी कर रहे थे, दोपहर होते-होते वे बिना मिठाई बनाये वापस लौट चुके थे। कांग्रेस हरियाणा का चुनाव का हार चुकी थी। हरियाणा में भाजपा में लगातार तीन बार सरकार बनाने का रिकॉर्ड ज़रूर बना दिया है।
मानना पड़ेगा कि हरियाणा के नतीजे जलेबी जैसे सिद्ध हुए। कांग्रेस ने नतीजे पलटते ही गंभीर आरोप लगाया कि ईवीएम से छेड़छाड़ हुई है। पार्टी के नेता राहुल गाँधी तो हाल में जब अमेरिका की यात्रा पर गये थे, तब भी उन्होंने वहाँ कहा था कि लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी कांग्रेस की सीटें बढ़ने के बावजूद उन्हें आशंका है कि चुनाव में हेराफेरी की गयी थी। देश में ऐसी की संस्थाएँ हैं, जो ईवीएम को लेकर संदेह जता चुकी हैं। लेकिन कांग्रेस के आरोप के जवाब में इस बार फिर चुनाव आयोग ने कहा कि नतीजों को स्वीकार नहीं करना जनादेश को नहीं मानना है; क्योंकि चुनाव तो पूरी तरह निष्पक्ष हुए हैं।
यह उस चुनाव आयोग का दावा है, जो मतदान के कई-कई दिन तक वोटिंग प्रतिशत तक नहीं बता रहा है। यही नहीं, हरियाणा में गिनती करते हुए नतीजे लंबे समय तक रोकने जैसी घटना भी आयोग की तरफ़ से कई मतदान केंद्रों पर हुई। लेकिन यदि चुनाव आयोग के निष्पक्ष चुनाव के दावे पर भरोसा करें, तो भी कहना पड़ेगा कि यदि वह समय पर मतदान प्रतिशत के आँकड़े जारी कर दे, या मतदान गिनती बिना रुकावट चलते, तो शायद संदेह के जो कारण हैं, वो न रहें। संदेह तो ख़ुद चुनाव आयोग ही पैदा करता रहा है। कांग्रेस भी आरोप लगाकर चुप बैठ गयी। इससे यह संकेत गया कि शायद चुनाव में हार के कारण उसने नतीजों में छेड़छाड़ के आरोप लगाये। उसके पास प्रमाण थे, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक देनी चाहिए थी।
इन सब चीज़ों से अलग होकर देखें, तो यह तो साफ़ है कि इस चुनाव में कांग्रेस अति उत्साह में डूबी रही। इससे ज़मीन पर उसने हक़ीक़त की अनदेखी की और उसका चुनाव प्रबंधन भी भाजपा के मुक़ाबले कहीं कमज़ोर था। इसमें क़तई संदेह नहीं कि हरियाणा में भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ जबरदस्त एंटी इंकम्बेंसी थी। रोज़गार, महँगाई से लेकर किसानों और अन्य के मसले चुनाव में आख़िर तक थे। यह कहना भी ग़लत है कि यह चुनाव ज़मीन के नीचे जाट और ग़ैर-जाट में किसी हद तक चला गया। नतीजों में जातीय समीकरणों का गहरा अध्ययन ज़ाहिर करता है कि कांग्रेस को पूरा जाट वोट मिला ही नहीं। नतीजतन यह कहना ग़लत है कि यह चुनाव जाट बनाम ग़ैर-जाट हो गया था। बेशक कांग्रेस भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके इर्द-गिर्द बुनी गयी चुनावी रणनीति पर सीमित थी; लेकिन उसने सभी तबक़े की जातियों को उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतारा था। यह माना जाता है कि प्रदेश में बड़े पैमाने पर जातिगत आधार पर जो उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, उनमें से अधिकांश भाजपा की रणनीति का हिस्सा थे, ताकि कांग्रेस के वोट को बाँटा जा सके। कांग्रेस में सैलजा की नाराज़गी को भी अब हार की एक वजह माना जा रहा है। दलित राजनीति में उनके प्रतिद्वंद्वी अशोक तंवर भी ऐन मतदान से पहले कांग्रेस में लौट आये थे।
हरियाणा में कांग्रेस और भाजपा का वोट प्रतिशत तो लगभग बराबर ही रहा। भाजपा को कुल वोट मिले 39.94 फ़ीसदी, तो कांग्रेस को मिले 39.09 फ़ीसदी। बस इतने महीन अंतर में ही भाजपा कांग्रेस से 11 सीट ज़्यादा जीत गयी। नतीजों की पड़ताल करने से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि जाट वोट भी पूरा का पूरा कांग्रेस को नहीं गया। वहाँ भी बँटवारा हुआ। इससे यह संकेत मिलता है कि कांग्रेस समर्थक मतदाता तो मुखर था, भाजपा को वोट देने की सोच चुके लोग चुप बैठे थे। तभी तो यह हैरानी भरा नतीजा आया।
इस बार हरियाणा के चुनाव में भाजपा की तरफ़ से न 70 पार का नारा था, न ही मोदी की गारंटी की गूँज। कहीं भी और कभी भी यह नहीं लगा कि भाजपा इस चुनाव में है। उसके नेता तक ख़ुद की हार मान चुके थे। कुछ तो इस चिन्ता में थे कि कहीं पार्टी की सीटें 20 से नीचे न चली जाएँ। लेकिन फिर भी भाजपा की जीत हुई, तो इसे कांग्रेस की मूर्खता ही कहा जाएगा; भले उसने अपनी हार का ठीकरा ईवीएम में छेड़छाड़ और चुनाव आयोग पर फोड़ा हो। हरियाणा में हार के बाद अब यह ज़रूरी हो गया है कि राहुल गाँधी और मल्लिकार्जुन खड़गे देश भर में संगठन को मज़बूत करने पर ध्यान दें। नया नेतृत्व सामने लाएँ और सहयोगी संगठनों के कंधे पर बैठकर कुछ सीटें जीतकर संतुष्ट होने की रणनीति को त्याग दें।
भाजपा को सबसे ज़्यादा समर्थन अहीरवाल बेल्ट में मिला। वहाँ की 28 में से 21 सीटें भाजपा के खाते में गयीं। कांग्रेस को मिलीं सिर्फ़ सात सीटें। जिस जाट वर्ग को हरियाणा में एकमुश्त कांग्रेस के साथ माना जा रहा था, वहाँ की पूरी जाट प्रभुत्व वाली 17 में से भाजपा ने सात सीटें जीत लीं; जबकि कांग्रेस को आठ सीटें मिलीं। यदि 25 फ़ीसदी जाट प्रभुत्व वाली सीटों की बात भी की जाए, तो भी भाजपा को 13 और कांग्रेस को 16 सीटें मिलीं। ऐसे में यह क़तई नहीं कहा जा सकता कि जाट वर्ग ने पूरी तरह भाजपा को नकार दिया, जैसा कि पहले कहा जा रहा था। लिहाज़ा चुनाव नतीजों से ज़ाहिर होता है कि इस चुनाव का मुक़ाबला जाट और ग़ैर-जाट के बीच नहीं बदला था।
बांगड़ हलक़े की बात करें, तो वहाँ की 18 सीटों में से भाजपा को छ: और कांग्रेस को आठ सीटें मिलीं। कुरुक्षेत्र की बेल्ट की 27 सीटों में से 15 भाजपा के खाते में गयीं, जबकि कांग्रेस की हिस्से में 12 सीटें आयीं। ऐसे में साफ़ ज़ाहिर है कि कांग्रेस को सबसे ज़्यादा नुक़सान यादव बहुल अहीरवाल क्षेत्र में हुआ, जहाँ उसे भाजपा की 21 के मुक़ाबले सिर्फ़ सात ही सीटें मिलीं और यहीं से कांग्रेस के हाथ से सत्ता छिटक गयी। अहीरवाल दक्षिण हरियाणा का इलाक़ा है, जिसे पिछड़ा हुआ माना जाता था। एक ज़माने में कहा जाता था कि यदि किसी अधिकारी-कर्मचारी का तबादला महेन्द्रगढ़-नारनौल हो जाए, तो समझो उसे सज़ा दी गयी है। आज भी की इलाक़े काफ़ी पिछड़े हुए हैं। कांग्रेस समाजवादी पार्टी को भी अपने गठबंधन में जोड़ती, तो क्या उसे लाभ मिलता? यह कहना मुश्किल है।
यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि चुनाव में भाजपा ने 16, जबकि कांग्रेस ने 27 जाट उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। भाजपा ने ओबीसी 21 तो कांग्रेस ने 25, जबकि दलित भाजपा ने 17 और कांग्रेस ने भी 17 चुनाव मैदान में उतारे थे। ऐसे में नतीजों को जातियों के आधार पर देखें, तो कांग्रेस और भाजपा को कमोवेश सभी के वोट मिले। बस अहीरवाल इलाक़े ने चुनाव का रुख़ बदल दिया, जहाँ भाजपा ने कांग्रेस से 14 सीटों की बढ़त बना ली। यदि एससी के लिए आरक्षित सीटों की भी बात करें तो 17 में से नौ कांग्रेस को मिली हैं, जबकि आठ भाजपा को। इस चुनाव में सबसे बड़ा नुक़सान दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जजपा को हुआ, जिसकी सफ़ाई हो गयी। अजय चौटाला की इनेलो भी दो ही सीट जीत पायी। आम आदमी पार्टी (1.79 फ़ीसदी वोट), जो 6-7 सीटें जीतने का दावा कर रही थी; के अधिकतर उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गयी और दिल्ली से लगते हरियाणा की सभी सीटों पर उसे बुरी हार मिली। बसपा (1.82 फ़ीसदी वोट) और चंद्रशेखर आज़ाद भी फिसड्डी साबित हुए।
घाटी में भाजपा शून्य
यह हैरानी की बात है कि जो भाजपा अनुच्छेद-370 ख़त्म करने पर दावा करती थी कि उसके फ़ैसले को कश्मीर घाटी की जनता का भी समर्थन हासिल है, वह इस चुनाव में वहाँ की 47 सीटों में से एक भी नहीं जीत पायी। यही नहीं, जम्मू, जिसे राज्य का हिन्दू बहुल हिस्सा कहा जा सकता है; में भी भाजपा 43 में से 29 ही सीटें जीत पायी। यदि हाल के परिसीमन में छ: सीटें इस क्षेत्र में नहीं बढ़ी होतीं, तो भाजपा का प्रदर्शन और ख़राब हो जाता। उसने 2014 के चुनाव में 25 सीटें जीते थीं और इस बार उसका नारा 35 सीटें जीतने का था। लेकिन उसका प्रदर्शन ज़ाहिर करता है कि उसे अपेक्षित जनसमर्थन हिन्दू बहुल हिस्से में भी नहीं मिला। जम्मू की कुल 43 सीटों में 29 जीतना भाजपा की बड़ी जीत तो नहीं ही मानी जाएगी।
निश्चित ही इस चुनाव की हीरो फ़ारूक़ अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस है, जिसने घाटी ही नहीं, बल्कि जम्मू के हिस्से में भी बेहतर प्रदर्शन किया। सबसे ज़्यादा घाटे में कांग्रेस रही, जो सिर्फ़ छ: सीटें जीत पायी। जम्मू, जहाँ उसका ख़ासा जनाधार रहा है; में भी उसकी हालत यह रही कि उसकी सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उससे ज़्यादा, सात सीटें जीतीं। यह आरोप भी सामने आये कि जम्मू में नेशनल कॉन्फ्रेंस के वोट उसे तब्दील नहीं हुए, जबकि कश्मीर में हुए।
तीन महीने पहले जो उमर अब्दुल्ला लोकसभा का चुनाव हार गये थे; वे विधानसभा की दो सीटों पर जीत गये। चुनाव से ऐन पहले जब अलगाववादी नेता इंजीनियर राशिद को जेल से छोड़ा गया था, तो आरोप लगे थे कि इसके पीछे भाजपा है, ताकि घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस को बढ़त लेने से रोका जा सके। लेकिन घाटी के लोगों ने राशिद की पार्टी को समर्थन नहीं दिया। यही नहीं, पीपल्स कॉन्फ्रेंस, जो भाजपा-पीडीपी सरकार में हिस्सेदार रही; को भी जनता ने नकार दिया और इसके अध्यक्ष सज्जाद लोन चुनाव हार गये।
फ़ारूक़ अब्दुल्ला पर घाटी की जनता के भरोसे का एक बड़ा कारण यह रहा कि हाल-फ़िलहाल में वह भाजपा के प्रति काफ़ी तीखे तेवर दिखाते रहे हैं। उनके विपरीत हाल के वर्षों में जो भी भाजपा के साथ गया उसे जनता ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। इनमें पीडीपी भी शामिल है। पार्टी की नेता महबूबा मुफ़्ती की बेटी इल्तिज़ा मुफ़्ती अपनी सीट से हार गयी और पार्टी को भी सिर्फ़ तीन ही सीटें मिलीं, जबकि 2014 में 28 सीटें जीतकर वह सबसे बड़ी पार्टी थी। पीडीपी को फिर से खड़ा करने की अब दोनों माँ-बेटी पर ज़िम्मेदारी है। आम आदमी पार्टी ने भी राज्य में खाता खोल दिया, जब उसके उमीदवार मेहराज मालिक 4,538 मतों से जीत गये। उन्होंने एनसी-कांग्रेस सरकार को समर्थन का ऐलान किया है। यह माना जाता है कि अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण उन्हें जीत मिली।
नतीजों से साफ़ ज़ाहिर है कि घाटी ने मोदी सरकार के अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना मत दिया है। साफ़ है कि भाजपा कश्मीर घाटी के लोगों के दिलों में जगह नहीं बना पायी है। जम्मू के ही इलाक़े में उसके प्रदेश अध्यक्ष रविंद्र रैना तक चुनाव हार गये हैं। ज़ाहिर है भाजपा को वहाँ नया नेतृत्व खड़ा करना पड़ेगा। यह भी चर्चा है कि केंद्र आने वाले समय में लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को हटा सकता है। आरएसएस नेता राम माधव, जो इस चुनाव में भाजपा के प्रभारी थे; का नाम भी अगले लेफ्टिनेंट गवर्नर के रूप में लिया जाता है।
‘राईजिंग कश्मीर’ अख़बार की कार्यकारी संपादक अनुजा ख़ुशु ने नतीजों को लेकर फोन पर बताया- ‘चुनाव जीतने और सरकार बनाने के बावजूद उमर अब्दुल्ला की राह आसान नहीं होगी। जिस तरह का बड़ा जनादेश उन्हें घाटी में मिला है उससे उन पर दबाव रहेगा कि वह जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरें। देश में ग़ैर-भाजपा राज्य जिस तरह केंद्र सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाते हैं उस स्थिति से उमर को भी गुज़रना पड़ सकता है। दूसरा यूटी होने के कारण यहाँ एलजी का बराबर हस्तक्षेप रहेगा।’
बेशक सरकार में साझीदार कांग्रेस के अनुभव का मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को लाभ मिलेगा; लेकिन वह ख़ुद ही कह चुके हैं कि अनुच्छेद-370 को वापस कराएँगे। लेकिन उनकी पार्टी के स्टैंड के बावजूद एक हक़ीक़त यह भी है कि ऐसा होना अब मुमकिन नहीं दिखता। हाँ, एनसी और कांग्रेस जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने का प्रस्ताव विधानसभा के पहले ही सत्र में ज़रूर पास करवाने की तैयारी में हैं।
उमर अब्दुल्ला ने फोन पर हुई बातचीत में कहा- ‘हमें केंद्र से मिलकर चलना पड़ेगा। हम टकराव नहीं चाहते। हमारी पहली कोशिश सूबे का स्टेटस बहाल करवाने की है।’
इस चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर जीते वरिष्ठ नेता पीरज़ादा सईद ने कहा- ‘हमारी सरकार जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए काम करेगी। कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में साफ़ कहा है कि हम जम्मू-कश्मीर को फिर से पूरा राज्य बनाने के लिए जान लगा देंगे।’
उधर पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती ने फोन पर बातचीत में कहा- ‘हम इन नतीजों से निराश ज़रूर हैं; लेकिन ज़्यादातर सीटों पर हम दूसरे नंबर पर रहे हैं। घाटी में हमारी मज़बूत ज़मीन है। हम पार्टी को सूबे की जनता की मदद से फिर से बुलंदियों तक ज़रूर पहुँचाएँगे और उनके हुक़ूक के लिए लगातार लड़ते रहेंगे।’
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह से भी फोन पर कहा- ‘जनता का हमें पूरा समर्थन मिला है और सूबे में सबसे ज़्यादा वोट प्रतिशत हमारा रहा है। कश्मीर घाटी में हम कोई सीट नहीं जीत पाये; लेकिन हमें वहाँ काफ़ी वोट मिले हैं, जो ज़ाहिर करते हैं कि जनता समझ रही है कि भाजपा विकास की नीति में भरोसा रखती है।’
दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री कौन ?
जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला को नेशनल कॉन्फ्रेंस ने विधायक दल का नेता चुना है। उमर पहले भी राज्य के मुख्यमंत्री के अलावा वाजपेयी सरकार में विदेश राज्य मंत्री भी रहे हैं। राज्य में उनकी पार्टी कांग्रेस से मिलकर सरकार बना रही है। उधर हरियाणा में नायब सिंह सैनी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली भाजपा 17 अक्टूबर को एक बैठक में मुख्यमंत्री का चयन करेगी। इसके लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को प्रेक्षक बनाकर चंडीगढ़ भेजा गया है।